Friday, July 22, 2011

इतने मत दिखलाओ सपने

                  इतने मत दिखलाओ सपने, आँख खुले तो आंसू आयें, 
              अबकी बार लगी गर ठोकर, शायद हम फिर संभल न पायें.


                                      हर  रस्ते ने  था  भटकाया,
                                      हर मंज़िल बेगानी निकली.
                                      हाथ जिसे समझे थे अपना,
                                      मेंहदी वहाँ  परायी निकली.


              सूनापन अब रास आ गया, मत खींचो मुझको महफ़िल में,
                टूट गया दिल अगर दुबारा, टुकड़े टुकड़े बिखर न जायें.


                                     जिसको समझे थे हम अपना,
                                     नज़र बचा कर चले गये वो.
                                     जितने  भी थे  स्वप्न संजोये,
                                     अश्कों में बह गये आज वो.


              अंधियारे से प्यार हो गया, दीपक आँखों में चुभता है,
              नहीं चांदनी का लालच दो, सपने मेरे  भटक न जायें.


                                    अब न चाह किसी मंज़िल की,
                                    चलते  रहना  यही  नियति है.
                                    नहीं  सताता  अब  सूनापन,
                                    चलना जबतक पांवों में गति है.


              ले जाओ अपनी ये यादें, दफ़न कहीं कर दो तुम इनको,
                 नहीं चाहता अब मन मेरा, मुझे कब्र में ये तड़पायें.

Sunday, July 17, 2011

हाथ की लकीरें

काश साफ़ होती
तकदीर की स्लेट
और हाथ की लकीरें.

होती शुरू 
ज़िंदगी की दौड़
एक ही पंक्ति से,
समान स्तर पर,
दौड़ते सभी 
अपनी अपनी सामर्थ्य
बुद्धि और मेहनत 
के अनुसार.
लिखी जातीं तकदीर
अपने हाथों से 
और हथेली पर लकीरें
खींच पाते
हम अपनी मर्जी से.

किस्मत पर रोने
या हथेली की लकीरों को
दोष देने से 
क्या होगा?
नेताओं द्वारा दिखायी
झूठे सपनों की लहरें,
हैं सिर्फ़ दिवास्वप्न.

समझो अपनी ताकत,
आने दो सुनामी
करने को समतल
अन्याय, शोषण और भ्रष्टाचार 
पर खड़े महल,
फिर उस समतल ज़मीन पर 
लिख पाओगे अपनी तक़दीर
अपने हाथों से,
और ज़न्म लेने पर
हथेलियाँ होंगी
बिलकुल साफ़,
जिन पर उकेर पाओगे
रेखायें 
अपनी मेहनत से.

नहीं देगा दोष कोई
फिर अपनी तकदीर 
या हाथ की लकीरों को.

Wednesday, July 13, 2011

आयेगा कहाँ से गांधी

      Kashish-My Poetry की प्रथम वर्षगाँठ


१३ जुलाई, २०११ को यह ब्लॉग १ वर्ष का हो गया. इस का श्रेय जाता है आप सब के सहयोग, समर्थन, स्नेह और प्रोत्साहन को.

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आपके स्नेह और प्रोत्साहन का आभारी हूँ और आशा है कि आगे भी आपका स्नेह, समर्थन और प्रोत्साहन इसी तरह मिलता रहेगा.

आज में इस ब्लॉग की पहली प्रस्तुति दुबारा पोस्ट कर रहा हूँ और आशा है कि आपको पसंद आयेगी


आयेगा कहाँ से गांधी 

हिन्दू  भी यहाँ है , मुस्लिम  भी  यहाँ है,
हर धर्म के अनुयायी की पहचान यहाँ है.
मंदिर मैं मिले हिन्दू,मस्जिद मैं मुसल्मन थे,
वह घर  मिला मुझकोइन्सान जहाँ है.


बच्चा जो हुआ पैदाहिन्दू था  मुस्लिम था,
संयोग है बस इतनाघर हिन्दू था या मुस्लिम था.
एक रंग  था माटी काबचपन  था जहाँ बीता,
यह भेद हुआ फिर कब, ये हिन्दू था वो मुस्लिम था.


तलवार या खंजर काकोई धर्म नहीं होता,
बहता है जो सडकों पर वह सिर्फ लहू होता.
हिन्दू का या मुस्लिम का,जलता है जो घर,घर है,
उठती हुई  लपटोंमैं कुछ  फर्क नहीं होता.


नफरत की इस आंधी को अब कौन सुलायेगा,
कट्टरता  की यह  होली  कब  प्रह्लाद  बुझाएगा,
क्या मज़हबी दानव को,गांधी का लहू कम था
,
आयेगा कहाँ से गांधीजब भी वह लहू मांगेगा.

Friday, July 08, 2011

आज फिर जाने ये क्यों आशा जगी है

आज फिर जाने ये क्यों आशा जगी है,
  मैं जला बैठी हूँ दीपक शाम ही से.

   ज़िंदगी मेरी तो एक अंधी गली है,
दीप फिर आकृष्ट किस को कर सकेगा.
  ज़िंदगी आकंठ आपूरित है विष से,
एक कण अमृत का  कैसे छल सकेगा.

आज हर आहट पर यूँ मैं सिमट जाती,
  नववधू जैसे कि प्रिय के नाम ही से.

आज  अपनी श्वास  भी  अनजान सी है,
गुनगुनाते हैं अधर ये आज फिर क्यों.
होगया अभ्यस्त मन चिर मौन व्रत का,
चाहता है मुखर होना आज फिर क्यों.

आज धड़कन भी मेरी अनजान लगती,
   नयन में सपने जगे हैं शाम ही से.

गर हुआ जो भंग सपना आज फिर से,
तो मैं शायद  नींद से भी बिछुड़ जाऊं.
गर  हुए अहसास  फिर से आज  झूठे,
ज़िंदगी  फिर साथ शायद  दे न पाऊँ.

आज आकर कान में फिर गुनगुना दो,
गीत वह सुनने को व्याकुल शाम ही से.

Friday, July 01, 2011

कान्हा ! राधा से क्यों रूठे ?

सुना रहे मीठी मुरली धुन,
मुग्ध किया श्रष्टि का कन कन,
तक रहि राह तुम्हारी राधा,
कह नहिं पाती तुमको झूठे,
कान्हा ! राधा से क्यों रूठे?

कितनी व्यथित प्रेम में राधा,
बने  प्रेम  न पथ  में  बाधा,
रोक लिये हैं अश्रु नयन में,
होठों से कुछ  बात  न फूटे,
कान्हा ! राधा से क्यों रूठे?

चाहे बृज को तुम बिसराओ,
धर्म ध्वजा जग में फहराओ,
मेरा श्याम  बसा है  मन में,
रहें  नयन   दर्शन को भूके,
कान्हा ! राधा से क्यों रूठे?

सहती सब सखियों के ताने,
प्रेम  मेरा  बस   तू ही जाने,
आती याद तुम्हें राधा क्या,
मुरली जब होठों पर रखते,
कान्हा ! राधा से क्यों रूठे?

राधा का तो तन कान्हा है,
राधा का मन भी कान्हा है,
मैं हूँ दूर भला कब तुम से,
प्रेम जगत के स्वप्न न झूठे,
कान्हा ! राधा से क्यों रूठे?