Saturday, January 29, 2011

फिर एक बार आओ बापू

बापू !
फिर एक बार आओ
अपने सपनों का महल को देखने,
जिसे आपके ही 
वारिसों ने
खँडहर कर दिया है.


हर शहर के चौराहे पर
है तुम्हारी मूर्ती 
ज़मी है जिस पर
उदासी की धूल.
तुम्हारा दरिद्र नारायण
तुम्हारी ही तरह लपेटे
कमर में आधी,
पर फटी धोती,
खडा है आज भी
लेकर कटोरा हाथ में.


हर दफ़्तर में
लगी है तुम्हारी फोटो,
जिसके नीचे बगुले
सफ़ेद कपडे पहन
करते हैं सौदा
देश के भविष्य का,
और रिश्वत का व्यापार
चलता है
मेज़ के नीचे से,
आपकी नज़रों से छुपाने के लिए.


आपके आदर्श
सीमित हैं सिर्फ़ किताबों तक,
आपको याद करते हैं
सिर्फ़ २ अक्टूबर और ३० जनवरी को,
जब आपकी समाधि पर 
माला चढ़ा कर
समझ लेते हैं
अपने कर्तव्य की इति श्री.


गरीबी हटाने के नाम पर 
बनती हैं योजनाएं,
गरीब और गरीब हो जाता है
पर भारी हो जाती है और भी
ज़ेब नेता और नौकरशाहों की.


नमक कानून तोड़कर
हिला दी थी तुमने
विदेशी शासन की जड,
पर आज देश का नमक खाकर भी
लगे हैं हमारे कर्णधार
खोखला करने में
अपने ही देश की जड़.


खुशनसीब थे तुम बापू
जो नहीं रहे देखने
अपने रामराज्य का सपना टूटते,
वरना बहुत दर्द होता,
गौडसे की चलाई हुई
गोली से भी ज्यादा.

Monday, January 24, 2011

क्षणिकाएं

     (१)
जन जन को पीस रहा
शासन का तंत्र है,
शायद यही जनतंत्र है.

     (२)
सन्नाटे की आवाज़
होती है इतनी तेज
कंपा देती है अंदर तक,
फिर भी दबा नहीं पाती
मन का कोलाहल.

     (३)
एक मुक़म्मल ज़हां
की तलाश में,
टुकड़े टुकड़े में
जी रहे हैं
ज़िंदगी.

     (४)
खुशी तलाशते फिरते हैं
हर गली मोहल्ले में,
लेकिन जब वह
टकरा के निकल जाती है
पहचानते नहीं हैं हम.

     (५)
रिश्तों की ठंडक से
होगया है ज़िस्म
इतना सर्द,
ज़म जाते हैं अश्क
आँखों से गिरते ही.

Wednesday, January 19, 2011

मेरा क्या गुनाह है ?

क्यों समझते हो
गुनहगार
हमें उस गुनाह का,
जिसमें धकेला था 
तुमने ही.


हमारा तो 
एक साधारण सपना था
छोटा सा घर,
छोटा सा परिवार
और दो वक्त की रोटी.
लेकिन कहाँ सच होते हैं
छोटे लोगों के 
छोटे सपने,
जब सामने हों
बूढ़े बीमार पिता
और भूखे भाई बहन अपने.


मैंने तो चाही थी 
सिर्फ़ मेहनत की दो रोटी,
लेकिन तुमको नज़र आयी
सिर्फ़ मेरी बोटी.
तुम्हारे बनाए दलदल में
मैं फंसती गयी,
बूढ़े बाप को दवा
भाई बहन को रोटी मिल गयी,
पर मेरी आत्मा उसी दिन मर गयी.


तुम्ही ने तो बताये थे 
गुर व्यापार के
कि बिना पूंजी के 
व्यापार नहीं होता,
और लगवा दी व्यापार में पूंज़ी
न केवल मेरे शरीर की
बल्कि आत्मा 
और सम्पूर्ण अस्तित्व की.


निरीहों का शोषण कर,
छीन कर निवाला 
उनके मुख से,
कालाबाजारी और रिश्वत 
के व्यापारी
जीते हैं इज्ज़त से.
लेकिन मैं 
फंसने पर भी तुम्हारे बनाए दलदल में
नहीं देती धोका किसी को
छीनती नहीं हक किसी गरीब का,
करती हूँ व्यापार,
ईमानदारी से,
अपने शरीर का.


अँधेरे कमरे में अप्सरा दिखती तुमको
रोशनी में मगर बदनुमा दाग,
कैसे भूल सकती मैं 
लगायी थी तुमने 
जो मेरे स्वप्नों में आग.
लेकिन तुम केवल तुम नहीं,
'तुम' में सामिल है
तुम्हारा पूरा समाज.


मुझे हिक़ारत से देखकर
डालना चाहते हो पर्दा
अपने गुनाहों पर,
लेकिन कभी सोचा है
कितना दर्द सहा है
मैंने हर दिन
अपने शरीर, आत्मा और सपनों को
सलीब पर लटके देख कर.

Sunday, January 16, 2011

मुक्तक

                              
                              (१)
पीर से प्यार इतना है कि उधार लेता हूँ,
एक बूँद आंसू को, खुशियाँ हज़ार देता हूँ.
मेरी खुशियाँ भी कितनी अजीब हैं देखो,
ज़िन्दगी बेचकर, म्रत्यु खरीद लेता हूँ.


                              (२)
नदी  क्या है ? सिर्फ  एक   प्रवाह है,
अश्कों को सुखाने को उठती हर आह है.
कौन कहता है कि नर श्रेष्ठ कृति ब्रह्मा की,
आदमी क्या है? विधना का एक गुनाह है.


                             (३)
यूँ तो हर रात के दामन में सितारे होते,
डूबने वाले को  तिनके भी सहारे होते,
पूछो मत दर्द के दरिया में बहुत डूबा हूँ,
आज यह दर्द न होता,गर वे हमारे होते.


                            (४)
दिल जो जलता है किसी का तो सुबह होती है,
दर्द सीने में छुपा कर के सुबह रोती है,
कोई पोंछेगा हथेली से ये रक्तिम आंसू,
आस इतनी सी में आँचल  को भिगो लेती है.


                            (५)
अश्रु क्या है ? दर्द की  मुस्कान है,
पीर क्या है ? प्यार का प्रतिदान है.
जी रहे हैं सब, जीने का अर्थ जाने बिना,
ज़िन्दगी क्या है ? म्रत्यु का अहसान है.

Tuesday, January 11, 2011

पहले हर अधरों को मुस्कानें दे दूं मैं ....

           
            पहले हर अधरों को  मुस्कानें दे दूँ मैं,
            फिर सूनी मांग तेरी तारों से भर दूँगा.

वासंती आँचल का  आकर्षण गहरा है,
लेकिन इन नयनों के अश्कों को चुन लूं मैं.
हर सूने हाथों में  मेहंदी रच जाने दो,
फिर तेरे आँचल को  फूलों से भर दूंगा.

            आँखों का आकर्षण ठुकराना ही होगा,
            माथे  के स्वेदबिंदु बन जाएँ सब मोती.
            पहले इन आहों से ताजमहल गढ़ दूं मैं,
            फिर तेरे यौवन का अभिनन्दन कर लूँगा.

नापो गर नाप सको दुख की गहराई को,
कितने  विश्वासों का  सेतुबंध टूट गया.
पहले प्रलयंकर का मौन मुखर होने दो,
फिर अनंग तुम को भी अभयदान दे दूंगा.

            कितनी द्रोपदियों का चीर हरण होता है,
            जाने क्यों मौन कृष्ण आकर के लौट गये.
            पहले हर दुखियों को संदेशा पहुंचा दो,
            फिर मेरे  मेघदूत   अलकापुरि भेजूंगा.