Tuesday, July 31, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (२४वीं-कड़ी)


पंचम अध्याय
(कर्मसन्यास-योग - ५.२१-२९) 


अनासक्त जब बाह्य वस्तु में,
तब आत्मिक आनन्द है होता.
अक्षय सुख वह प्राप्त है करता,
स्वयं ब्रह्म में युक्त जो होता.  (२१)


स्पर्शजनित भोग दुःख कर्ता,
आदि अंत उनका है होता.
हे कौन्तेय! विवेकी जन है 
उनमें रमण कभी न करता.  (२२)


काम क्रोध वेगों की क्षमता
वश में मृत्यु पूर्व जो रखता.
वह जन ही सच्चा योगी है,
जग में सदा सुखी वह रहता.  (२३)


सुख, आनन्द अंतरात्मा में ही,
अन्दर ही है ज्योति जलाता.
ब्रह्मलीन होकर वह योगी 
ब्रह्म भाव को है वह पाता.  (२४)


संशय, पाप क्षीण हों जिसके,
चित्त संयमित, जनहित में रहता.
ऐसा सम्यग्दर्शी ऋषि जन
परम मोक्ष को प्राप्त है करता.  (२५)


काम क्रोध से जो विमुक्त है,
जीत चित्त आत्म का ज्ञाता.
मरने पर या जीवित रहते,
ब्रह्म निर्वाण यती वह पाता.  (२६)


रोक स्पर्शादी बाह्य विषयों को,
स्थिर दृष्टि बीच भवों के.
श्वास प्रश्वास नासिका अन्दर
उन दोनों को सम करके.  (२७)


इन्द्रिय, मन और बुद्धि को
पूर्णतः वश में जो करता.
इच्छा, भय व क्रोधविहीना
मुक्त मोक्ष इक्षुक मुनि रहता.  (२८)


परमेश्वर समस्त लोकों का,
यज्ञ और तप का मैं भोक्ता.
मैं ही मित्र सभी प्राणी का,
जो जाने वह शान्ति है पाता.  (२९)


**पांचवां अध्याय समाप्त**


            ......क्रमशः
कैलाश शर्मा 

Friday, July 27, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (२३वीं-कड़ी)


पंचम अध्याय
(कर्मसन्यास-योग - ५.११-२०) 


तन, मन, बुद्धि और इन्द्रिय से 
सब फल की आसक्ति त्याग कर.
करता कर्म है योगी केवल 
आत्म शुद्धि को ध्येय मान कर.  (११)


कर्म फलों की आसक्ति तज
योगी परम शान्ति है पाता.
फल आसक्ति, कामना जिसमें,
निश्चय बंधन में बंध जाता.  (१२)


मन से त्याग सभी कर्मों को
परम सुखों को प्राप्त है करता.
नौ द्वारों के शहर में रह कर 
कर्म न करवाता, न करता.  (१३)


कर्तापन, कर्म, कर्मफल का
ईश्वर सृजन नहीं है करता.
यह प्रकृति है इन सब की 
जिनसे वह यह कर्म है करता.  (१४)


ईश्वर किसी का पाप न लेता
और ग्रहण न पुण्य ही करता.
ज्ञान ढका अज्ञान से जिसका
वह किंकर्तव्य विमूढ़ है रहता.  (१५)

ब्रह्म ज्ञान से लेकिन जिनका
है अज्ञान नष्ट हो जाता.
ज्ञान, सूर्य सम उन जन को,
परम तत्व प्रकाश दिखलाता.  (१६)


बुद्धि है स्थिर परम ब्रह्म में
मन निष्ठा से वहाँ लगाता.
समस्त पाप ज्ञान में धुलते 
परम मोक्ष को है वह पाता.  (१७)


विद्या विनय युक्त ब्राह्मण,
गौ, हाथी या हो कुत्ता.
चाहे हो चांडाल सामने, 
पंडित उनमें समदर्शी रहता.  (१८)


जिनका मन समत्व में स्थित,
जीतें पुनर्जन्म इसी जन्म में.
क्योंकि ब्रह्म है सम, निर्दोषी,
वे समदर्शी स्थित हैं ब्रह्म में.  (१९)


न प्रसन्न प्रिय वस्तु प्राप्त कर,
अप्रिय पा उद्विग्न न होता.
स्थिर बुद्धि, मोहमुक्त वह ज्ञानी,
परम ब्रह्म में स्थित होता.  (२०)


               ...........क्रमशः


कैलाश शर्मा 

Monday, July 23, 2012

शब्द क्यों गुम हो गये

छा गयी मन में उदासी,
भाव क्यों मृत हो गये.
लेखनी भी थक गयी है,
शब्द क्यों गुम हो गये.


अश्क कोरों पर थमे हैं,
नयन देते न विदाई.
नेह चुकता जा रहा पर
आस की लौ बुझ न पायी.


देहरी थक कर खड़ी है,
पर कदम गुम हो गये.


चांदनी सी शुभ्र चादर
एक सलवट को तरसती.
मिलन का वादा नहीं था
आँख पर पथ से न हटती.


मौन हो पाया मुखर न, 
पर बयन क्यों खो गये.


मोड़ हमने खुद चुना था
राह सीधी छोड़ कर.
आज पीछे झांकते जब
कोई आता न नज़र.


दोष न प्रारब्ध का था,
हम ही खुद में खो गये.


कैलाश शर्मा 

Friday, July 20, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (२२वीं-कड़ी)


पंचम अध्याय
(कर्मसन्यास-योग - ५.१-१०) 


अर्जुन 


कभी कर्म सन्यास श्रेष्ठ है, 
कर्म योग की कभी प्रशंसा.
निश्चित श्रेष्ठ कौन दोनों में,
कृष्ण करो उसकी अनुशंसा. (१)


श्री भगवान 


कर्म योग व कर्म सन्यास,
दोनों ही हैं मुक्ति प्रदाता.
मगर कर्म सन्यास अपेक्षा,
कर्म योग श्रेष्ठ कहलाता. (२)


नहीं किसी के लिये द्वेष है,
वह न कोई आकांक्षा रखता.
वह निर्द्वन्द्व नित्य सन्यासी
सहज मुक्त बंधन है रहता. (३)


सांख्य और योग में अंतर 
केवल अज्ञानी जन हैं करते.
एक मार्ग में भी स्थित हो,
वह दोनों का ही फल लभते. (४)


सांख्य मार्ग से मिले जो मंजिल
वही कर्म योगी भी पाता.
सांख्य व योग को एक मानता 
वही सत्य का ज्ञाता होता. (५)


बिना कर्म योग के अर्जुन 
दुष्कर है सन्यास प्राप्ति.
कर्म योग निष्ठा से करके
शीघ्र ही होती ब्रह्म प्राप्ति. (६)


योगयुक्त, शुद्धचित्त जन जो
जीत इन्द्रियों को है लेता.
सर्व आत्माओं से तदात्म कर, 
करके कर्म भी लिप्त न होता. (७)


हो जाता जो युक्त ब्रह्म से 
और तत्व वेत्ता जो होता.
कर्म इन्द्रियों से कर यह समझे
मैं न कर्म का कर्ता होता. (८)


इन्द्रिय जनित कर्म सब करके,
ज्ञानी जन है सदा समझता.
इन्द्रिय इन्द्रिय विषयों को करतीं,
उनमें है वह लिप्त न होता. (९)


ब्रह्म समर्पित कर कर्मों को,
तज आसक्ति कर्म जो करता.
पाप कर्म से लिप्त न होता,
जैसे जल में कमल का पत्ता. (१०)


               ........क्रमशः


कैलाश शर्मा 

Friday, July 13, 2012

खामोशी की जुबां (ब्लॉग जगत में २ वर्ष)

अमर प्रेम के ऐतिहासिक प्रतीक
ताज महल की प्रष्ठभूमि में,
भीगते मेघ की बूंदों से
जब पकड़ कर तुम्हारी मादक हथेली
खींचीं थीं कुछ काल्पनिक लकीरें
अपनी किस्मत की,
कितने जग गये थे स्वप्न
रुत हो गयी और मनभावन,
हो न पाया दिल
मुखर चाह कर भी,
पर निगाहें बन गयीं
खामोशी की जुबां.

बारिस अब भी होती है
हवायें अब भी गुनगुनाती हैं
प्रीत के मधुर गीत,
लेकिन तुम्हारी स्मृतियों में डूबा
नहीं करता मन मयूर नृत्य,
ढूँढता है काले बादलों में
एक सलोना चेहरा
जिसे देख बजने लगती थी
मृदंग कभी दिल में.
बारिस की गिरती बूंदें
नहीं अब गुदगुदाती
हथेलियों को.

आज अकेलेपन के सन्नाटे में
ढूँढता हूँ वह हाथ
जहाँ खींची क्षणिक लकीरें
नहीं बन पायीं नियति मेरी
और ढक गयीं
किसी और के नाम की मेंहदी से.


ब्लॉग जगत में दो वर्ष 


१३ जुलाई, २०१२ को यह ब्लॉग २ वर्ष का हो गया. इसका श्रेय जाता है आप सब के सहयोग, समर्थन, स्नेह और प्रोत्साहन को.

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आपके स्नेह और प्रोत्साहन का आभारी हूँ और आशा है कि आगे भी आपका स्नेह, समर्थन और प्रोत्साहन इसी तरह मिलता रहेगा.


कैलाश शर्मा 

Tuesday, July 10, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (२१वीं-कड़ी)


चतुर्थ अध्याय
(ज्ञान-योग - ४.३३-४२)


यज्ञ द्रव्य आदि वस्तु से,
ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ होता है.
कर्म पूर्ण रूप से अर्जुन
ज्ञान रूप में ढल जाता है. (३३)


श्रद्धा, भक्ति और सेवा से,
ज्ञानी जन से जब पूछोगे.
तत्व शास्त्र ज्ञाताओं से 
परम ज्ञान शिक्षा पाओगे. (३४)


पाकर ज्ञान जिसे तुम अर्जुन,
मोह प्राप्त फ़िर न तुम होगे.
स्वआत्मा में देखोगे सबको
और सभी को मुझमें पाओगे. (३५)


करने वाले अगर पाप तुम
समस्त पापियों से बढ़ कर.
पार करोगे पाप सभी तुम 
ज्ञान रूप नौका पर चढ़ कर. (३६)


जैसे प्रदीप्त अग्नि हे अर्जुन!
लकड़ी जला राख कर देती.
तदा आत्म ज्ञान की अग्नि,
कर्म सभी भस्म कर देती.  (३७)


इस पृथ्वी पर ज्ञान के सदृश
कुछ भी पवित्र नहीं है होता.
कर्म योग से हुआ सिद्ध जो
उसे है निज अंतस में पाता. (३८)


श्रद्धावान, संयमित इन्द्रिय,
परम ज्ञान को है वह पाता.
ज्ञान प्राप्ति जैसे ही होती,
परम शान्ति है वह पाता. (३९)


श्रद्धा हीन और अज्ञानी,
संशयवान विनाश है पाता.
दोनों लोक गंवाता है वह,
संशयशील न है सुख पाता. (४०)


त्याग दिया है सब कर्मों को
जिसने कर्म योग के द्वारा.
वह न कर्म बंधन में बंधता
संशय जला ज्ञान के द्वारा. (४१)


है अज्ञान जनित संशय जो, 
ज्ञान रूप तलवार से काटो.
कर्म योग में स्थित होकर 
युद्ध कर्म को तुम उठ जाओ. (४२)


                 ......क्रमशः


   चतुर्थ अध्याय समाप्त 


कैलाश शर्मा 

Saturday, July 07, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (२०वीं-कड़ी)


चतुर्थ अध्याय
(ज्ञान-योग - ४.२०-३२)


आसक्ति हीन कर्म फल में
सदा निराश्रित तृप्त है रहता.
सदा कर्म करने पर भी वह, 
कुछ भी कर्म नहीं है करता.


त्याग परिग्रह, काम निवृत्त हो,
चित्त, शरीर नियंत्रित रखता.
केवल शरीर से कर्म भी करके 
नहीं पाप बंधन में वह बंधता.


हो संतुष्ट, मिले जो कुछ भी,
द्वंद्व, द्वेष से ऊपर रहता.
बंधन मुक्त है वह हो जाता,
हार जीत में जो सम रहता.


राग द्वेष आसक्ति रहित है,
चित्त ज्ञान में स्थित होता.
यज्ञ समझ कर कर्म करे जो,
उसका कर्म विलीन है होता.

साधन यज्ञ व हविष ब्रह्म है,
और यज्ञ अग्नि भी ब्रह्म है.
है एकाग्रता ब्रह्म में जिसकी,
होता उसका प्रातव्य ब्रह्म है.


देवों को प्रसन्न करने को
कुछ योगी जन यज्ञ हैं करते.
ब्रह्म अग्नि में अन्य हैं योगी
आत्म ब्रह्म को आहुत करते.


अन्य श्रवण आदि इन्द्रिय को
संयम अग्नि में आहुत करते.
अन्य शब्द आदि विषयों को
इन्द्रिय अग्नि में अर्पित करते.


अन्य सर्व इन्द्रिय कर्मों को 
और प्राण शक्ति कर्मों को.
अर्पित करते ज्ञान प्रज्वलित
आत्म संयमी योगाग्नि को.


यज्ञ करे हैं धन से और तप से,
मन पर संयम कुछ योग मानते.
स्वाध्याय, ज्ञान यज्ञ कुछ करते,
यति लोग स्वव्रत तीक्ष्ण बनाते.


प्राण, वायु पर करें नियंत्रण,
आती जाती सांस रोकते.
पूरक, कुम्भक, रेचक द्वारा
प्राणायाम यज्ञ हैं करते.


भोज सूक्ष्म मात्र में करके 
प्राणों को प्राणों में होमते.
सभी यज्ञ के ज्ञाता हैं वे, 
पाप यज्ञ अग्नि में होमते.


यज्ञ शेष अन्न को खाकर
ब्रह्म सनातन जन हैं पाते.
ब्रह्म लोक है मिलेगा कैसे
बिना यज्ञ यह लोक न पाते?


बहु विधि यज्ञ विहित वेदों में,
उन्हें कर्मजनित तुम समझो.
जान लिया तुमने यदि इतना,
बंधन मुक्त स्वयं को समझो.


             .........क्रमशः


कैलाश शर्मा 

Wednesday, July 04, 2012

आईना


जब भी देखता
अपनी सूरत आईने में 
पाता खड़े पीछे 
मेरे कंधे पर हाथ रखे,
लेकिन मुड़कर देखने पर 
पाता एक खाली पन,
शायद तुम्हारी स्मृतियां
समा गयी हैं इस आईने में.


पाने को छुटकारा
तुम्हारी यादों से 
हटा दिया आईना
दीवार से.
पर आईने की खाली जगह 
और भी जगाती यादें
आईने की
और उसमें तुम्हारी परछाईं की.


दीवारें खंडहर हो जाती हैं
उस पर टंगा आईना हट जाता है,
लेकिन स्मृतियां 
खंडहर होकर भी
और बिखर जाती हैं
दिल के हर कोने में.


कैलाश शर्मा  

Monday, July 02, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (१९वीं-कड़ी)


चतुर्थ अध्याय
(ज्ञान-योग - ४.१०-१९)


राग, क्रोध, भय को तज कर,
सच्चे मन से शरण में आया.
ज्ञान यज्ञ से कर पवित्र मन,
उसने मेरे स्वरुप को पाया.


जैसे भाव सहित वह आता,
उसी भाव से मैं अपनाता.
पार्थ कोई भी मार्ग चुने वह,
मेरा मार्ग ही है अपनाता.


चाहें जो फल कर्म यहीं पर,
शरण देवताओं की वे जाते.
मनुज लोक में कर्मों के फल,
शीघ्र मनुज को हैं मिल जाते.


कर्म और गुण पर आधारित
चार वर्ण का सर्जक हूँ मैं.
यद्यपि इन कर्मों का कर्ता,
पर अकर्म अविनाशी हूँ मैं.


नहीं कर्म फल की इच्छा,
लिप्त कर्म मुझे न करता.
मुझे जानता है जो ऐसे,
वह भी कर्मों से न बंधता.


इस रहस्य को जान पूर्व में,
मुमुक्षुओं ने कर्म किया था.
अपना कर्म करो वैसे ही,
पूर्वज जन ने पूर्व किया था.


क्या है कर्म, अकर्म है कैसा,
भ्रमित विवेकी भी हो जाते.
वह कर्म, अकर्म बताता हूँ मैं
जान जिसे सब मोक्ष हैं पाते.


तत्व कर्म का ज्ञान योग्य है,
और अकर्म को भी समझो.
जानो रूप निषिद्ध कर्म का,
गहन गति कर्मों की समझो.


जो अकर्म कर्म में देखे,
और कर्म अकर्म में बूझे.
बुद्धिमान योगी वह जन है,
सब निष्पन्न कर्म हैं उसके.


समारंभ सारे कर्मों का
फल इच्छा के बिना हैं करते.
ज्ञानाग्नि में कर्म जलाये,
ज्ञानी उसे ही पंडित कहते.


             .........क्रमशः


कैलाश शर्मा