Sunday, December 30, 2012

कब तक रहोगे मौन?

हे कृष्ण !
कब तक रहोगे मौन,
आज मैं दामिनी
आगयी स्वयं
अपने प्रश्नों का उत्तर मांगने.

द्रोपदी की पुकार
सुनकर आये तुरंत
और बचाई उसकी लाज,
शायद वह आपकी
सखी थी,
वर्ना क्यों नहीं सुनी
मेरी चीख और पुकार
जब कर रही थी मैं संघर्ष
उन वहशियों से.
कहो क्यों न लगाऊं
आरोप भेद भाव का?

चारों और बढ़ रहा है
अत्याचार, व्यभिचार,
त्रस्त कर रहा मानस को
बढ़ता भ्रष्टाचार,
नहीं सुरक्षित नारी
घर में या बाहर,
रोज होते बलात्कार.

तुम्हीं ने कहा था गीता में
जब जब होगा धर्म का नाश
मैं लूँगा अवतार 
अधर्म विनाश हेतु.

हे कृष्ण !
दो मुझे उत्तर
कौन सा धर्म है बचा
धरती पर?
कौन सा बचा है
अधर्म होने को?
क्यों न कहूँ
तुम्हारे आश्वासन भी
नहीं रहे अलग
धरती के नेताओं से.

क्या है तुम्हारा मापदंड
अधर्म के आंकलन का?
कितनी और दामिनियों का दर्द
चाहिये आप की तराज़ू को
झुकाने के लिए
अन्याय का पलड़ा?

कैलाश शर्मा 

Friday, December 28, 2012

घर


बहुत कमज़ोर
दीवारें इस घर की,
दबा लेता अन्दर
दर्द की सिसकियाँ,
कहीं आवाज़ से
भरभरा कर
गिर न जायें.

*********

गुज़ार दी उम्र
कोशिश में
बनाने की एक घर,
पर बन पाया
सिर्फ़ एक मकान,
जिसके आँगन में
पसरा है मौन
और चिर इंतज़ार
चिड़ियों के चहचहाने का.

नहीं पता था 
आज के समय
नहीं है चलन
घर बनाने का,   
बनते हैं सिर्फ़ मकान. 

कैलाश शर्मा

Saturday, December 22, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (४२वीं कड़ी)

   
        दसवां अध्याय
(विभूति-योग -१०.२९-४२


नागों में मैं शेषनाग हूँ,
और वरुण जलचरों में हूँ.
पितरों में अर्यमा है जानो 
नियमपालकों में मैं यम हूँ.  (१०.२९)

दैत्यों में प्रहलाद है जानो,
और समयगणकों में काल हूँ.
सिंह सभी पशुओं में जानो,
और गरुण सभी पक्षियों में हूँ.  (१०.३०)

पावन करने वालों में वायु हूँ,
राम शस्त्रधारियों में जानो.
मगर हूँ मैं सभी मत्स्यों में,
नदियों में गंगा तुम जानो.  (१०.३१)

आदि, अंत, मध्य सृष्टि का
मुझको ही अर्जुन तुम जानो.
विद्या में अध्यात्म ज्ञान हूँ,
वाद-विवाद में वाद है जानो.  (१०.३२)

मैं ही अकार अक्षरों में हूँ,
द्वंद्व समास समासों में हूँ.
अक्षय काल मुझे ही जानो,
सर्वतोमुखी विधाता मैं हूँ.  (१०.३३)

सर्व संहारक मृत्यु भी मैं हूँ,
और भविष्य का उद्गम भी मैं.
कीर्ती, श्री, वाणी, मेघा नारी में,
स्मृति, धृति और क्षमा भी मैं.  (१०.३४)

व्रहत्साम साम मन्त्रों में,
छंदों में गायत्री भी मैं हूँ.
मासों में मैं मार्गशीर्ष हूँ,
मैं वसन्त ऋतुओं में हूँ.  (१०.३५) 

द्यूत हूँ मैं छल करनेवालों में,
तेजस्वियों का तेज भी मैं हूँ.
मैं ही विजय और उद्यम हूँ,
सात्विकजन का सत्व भी मैं हूँ.  (१०.३६)

मैं यादवों में वासुदेव हूँ
और धनञ्जय पांडवों में.
मुनियों में व्यासमुनि मैं,
शुक्राचार्य हूँ मैं कवियों में.  (१०.३७)

दंड दमन करने वालों का,
नीति विजय इक्षुक में हूँ.
गुह्यभाव में मौन हूँ मैं,
ज्ञान ज्ञानियों का मैं हूँ.  (१०.३८)

जो भी बीज सर्व प्राणी का
मुझको ही वह अर्जुन जानो.
नहीं चराचर जग में कुछ भी
मेरे बिना जो रह सकता हो.  (१०.३९)

दिव्य विभूतियों का मेरी
कोई अंत नहीं है अर्जुन.
जो कुछ मैंने तुम्हें बताया,
वह तो है संक्षेप में वर्णन.  (१०.४०)

ऐश्वर्य, सोंदर्य और शक्ति से  
देखो संपन्न है जिस प्राणी को.
उत्पन्न मेरे तेजस्वी अंश से 
समझो तुम उस उस प्राणी को.  (१०.४१)

इससे अधिक और कुछ ज्यादा
जान करोगे क्या तुम अर्जुन?
मैं हूँ स्थित सम्पूर्ण विश्व में
करके व्याप्त एक अपना कण.  (१०.४२)

**दसवां अध्याय समाप्त**

                  .....क्रमशः

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कैलाश शर्मा 

Tuesday, December 18, 2012

भेड़िये

दिन में ही अब 
घूमते भेड़िये
तलाश में शिकार की 
और करते शिकार खुले आम,
भयभीत हैं सभी
लगाते गुहार मदद की 
पर जंगल का राजा शेर 
अपना पेट भरने के बाद 
सोया है गहरी नींद में, 
क्यूंकि वह है सुरक्षित 

अपनी मांद में
और नहीं है चिंता
मासूम प्रजा की.

बढाने होंगे खरगोश को ही
अब अपने नाखून और दांत
साहस और शक्ति
मुकाबला करने भेड़ियों से,
अब भेड़ियों को प्राप्त है
शेरों का संरक्षण.

© कैलाश शर्मा

Saturday, December 15, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (४१वीं कड़ी)

      दसवां अध्याय 
(विभूति-योग -१०.१९-२८



श्री भगवान :
मेरी दिव्य विभूतियाँ जो हैं,
उनका अब करता हूँ वर्णन.
मेरे विस्तार का अंत नहीं है,
जो विशेष कहता हूँ अर्जुन.  (१०.१९)

समस्त प्राणियों में स्थित,
गुणाकेश जो आत्मा मैं हूँ.
और समस्त प्राणी जन का,
आदि, मध्य, अंत भी मैं हूँ.  (१०.२०)

आदित्यों में मैं विष्णु हूँ,
सूर्य अंशुमाली ज्योति में.
हूँ मरीच मैं मरुद्गणों मैं,
और शशि मैं सब तारों में.  (१०.२१)

वेदों में मैं सामवेद हूँ,
और इंद्र देवताओं में.
मन इन्द्रियों में जानो,
व चेतना प्राणीजन में.  (१०.२२)

रुद्रों में हूँ मैं शिवशंकर,
यक्ष, राक्षसों में कुबेर हूँ.
वसुओं में हूँ मैं अग्नि,
और पर्वतों में मैं मेरु हूँ.  (१०.२३)

पुरोहितों में मुख्य पुरोहित
मुझे ब्रहस्पति तुम जानो.
कार्तिकेय सेनापतियों में,
जलाशयों में सागर जानो.  (१०.२४)

भृगु हूँ मैं महर्षियों में,
ॐ शब्द हूँ मैं शब्दों में.
हूँ जपयज्ञ सभी यज्ञों में,
और हिमालय स्थावर में.  (१०.२५)

मैं हूँ पीपल सब वृक्षों में,
देवर्षियों में मैं नारद हूँ.
मैं चित्ररथ हूँ गंधर्वों में,
सिद्धों में कपिलमुनी हूँ.  (१०.२६)

अमृत से उत्पन्न उच्चै:श्रवा,
अश्वों में तुम मुझे ही जानो.
सभी हाथियों में हूँ ऐरावत,
व मनुजों में तुम राजा जानो.  (१०.२७)

शस्त्रों में हूँ वज्र भी मैं ही,
गायों में मैं कामधेनु हूँ.
सर्पों में वासुकी भी मैं ही,
प्रजनन में मैं कामदेव हूँ.  (१०.२८)

         .......क्रमशः

कैलाश शर्मा 

Monday, December 10, 2012

माता-पिता (तांका)

    (१)
माँ का जीवन
समर्पित बच्चों को 
पर बुढापा
गुज़रता अकेला 
अनजान कोने में.

    (२)
जीवनदात्री 
गोदी थी सुरक्षित 
आज वही माँ
ढूँढती एक कांधा
पल भर रोने को.

    (३)
जलती सदां 
परिवार चिंता में,
मगर रोटी 
कभी नहीं जलती 
बनी माँ के हाथों की.

    (४)
न शिकायत 
न शिकन माथे पे 
वह माँ ही है 
भगवान का रूप
उत्कृष्ट वरदान.

    (५)
माँ की ममता 
नहीं कोई तुलना,
गर दो रोटी 
कह देती बेटे से 
मैंने खाना खा लिया.

    (६)
धुंधली आँखें
लड़खड़ाते पैर 
कांपते हाथ
थे सहारा सबका 
ढूँढ़ते एक कांधा.

    (७)
कंधे पे बैठे 
झूले झूला बांहों में,
आज वो पिता 
ढूँढता वो उंगली 
छूट गयी हाथ से.

    (८)
पिता का दर्द 
समझा है किसने 
टूटा है दिल
आँखों में नहीं आंसू 
दिल हुआ प्रस्तर. 

© कैलाश शर्मा