Tuesday, October 26, 2010

सत्य की राह

("सतर्कता जागरूकता सप्ताह (Vigilance Awareness Week)" जिसे २५ अक्टूबर से १ नवम्बर  तक मनाया जा रहा है को समर्पित )


भोर सुनहरी करे प्रतीक्षा, सत्य  मार्ग के राही की,
भ्रष्ट न धो पायेगा अपनी लिखी इबारत स्याही की.


        कब तक छुपा सकेगी चादर
        दाग लगा  जो  दामन  में,
        बोओगे तुम यदि अफीम तो
        महके तुलसी क्यों आँगन में.


भ्रष्ट करो मत अगली पीढ़ी अपने निन्द्य  कलापों से,
वरना ताप न सह  पाओगे, अपनी  आग लगाई की.


        भ्रष्ट व्यक्ति का मूल्य नहीं है
        उसकी  केवल कीमत  होती.
        चांदी की थाली हो, या सूखी  पत्तल,
        खानी होती है सबको,केवल दो रोटी.


भरलो अपना आज खज़ाना संतुष्टि की दौलत से,
कहीं न कालाधन ले आये तुमको रात तबाही की.

Tuesday, October 19, 2010

ताज महल और एक कब्र

         झुक जाती है नज़र देख कर ताज तुम्हारे इस वैभव को,
         लेकिन तुम से श्रेष्ठ कब्र मिट्टी की यह लगती है मुझको.


कौन नहीं इच्छा करता की अपने प्रेम प्रतीक रूप में,
एक नहीं वह दस  सुन्दरतम  ताजमहल  बनवाये.
लेकिन स्वयं अभावों से है ग्रस्त आज का जनजीवन
तो फिर कैसे वह आज ताज की अनुकृति भी रच पाये.


            तेरा प्रेम ढोंग है  मुझको, केवल धन की  बर्बादी है,
            इक्षुक नहीं प्रेम इन सबका,वह तो दो उर का संगम है.
            मरने पर वह नहीं चाहता कोई यादगार इस जग में,
            अभिप्रेत  केवल उसको प्रेमी की दो आँखें पुरनम हैं.


तेरा यह अति श्वेत रूप भी मुझको श्याम नज़र आता है,
तुझ से अधिक मूल्य प्रेमी का यह मिट्टी की कब्र बताती.
देख प्रेम की असफलता को,आज स्वयं मुमताज़  यहाँ पर,
पीछे बहती यमुना के मिस, आँखों  से है अश्रु   बहाती.
           
मानव कोई छाँव न दे पाया तुमको म्रत्यु अनंतर,
पर प्रकृति ने तान दिया है वृक्ष वितान कब्र के ऊपर.
कोई गीत न गाया जग ने मरने पर तेरी स्मृति में,
पर उलूक ने अपने क्रंदन गीत  लुटाये तेरे ऊपर.


            शायद तेरा भाग्य नहीं था तू इस जग में नाम कमाता,
            लेकिन केवल एक नहीं तू ही अभाग्यशाली इस जग में.
            कितने सुन्दर फूल व्यर्थ में झड  जाते हैं अनजाने ही,
            सजने की उनकी जूडे में रह  जाती है  चाह  ह्रदय में.


महल बनाये जाने कितने, खून पसीना एक कर दिया,
लेकिन मरने पर भी पूरा कफ़न न पाया जग में तूने.
बनकर विश्वरचियता तूने इस जग का निर्माण किया था,
लेकिन  मरने पर  भी कोई  स्मारक न  पाया तूने.


            देख ताज का वैभव अनुपम, दिल में कसक अज़ब उठती है,
            झुक जाती है द्रष्टि देखकर त्रण गुल्मित यह कब्र तुम्हारी.
            शोषण पर ही आधारित जो, चमक रहा है आज शुभ्रतर,
            जो रत  रहा सदां परहित में  उसकी है  यह कब्र बिचारी  .


याद नहीं तुम सदां रहोगे इस दुनियां के जनमानस को,
नहीं  रहेगी कोई   तेरी यादगार   इस जगती तल में.
लेकिन क्या है शोक नहीं गर यादगार इस जग में तेरी,
जब कि प्यार भरा होगा कुछ उन सूनी आँखों के जल में.


(यह कविता कालेज जीवन के अंतिम वर्ष में लिखी थी. कविता बहुत लम्बी है इसलिए इसके कुछ अंश ही पोस्ट कर रहा हूँ)


Friday, October 15, 2010

हार कैसे मान लूं ....

            जानता हूँ आंधी में जलाना दीप व्यर्थ है,
            रिसती हो नाव तो सागर न पार होता है.
            हार कैसे मान लूं , संघर्ष ही किये  बिना,
            माना बिना सिक्के के व्यापार नहीं होता है.


पैर तो उठा, शूल  चुभने  दे  पाँव  में,
बिना कांटे के तो सिर्फ राजपथ होता है.
धूप में निकल, कुछ आने दे स्वेद बिंदु,
फिर भी न मिले तो नसीब वह होता है.


            चाँद दिखलाये राह, सबका  नसीब  कहाँ,
            एक तारे का भी क्या सहारा नहीं होता है.
            आंधी है तो क्या?ओट हाथ की ज़लाले दीप,
            कुछ क्षण का ही क्या उजाला नहीं होता है.



Monday, October 11, 2010

घर

मकान बनाना
कोई कठिन तो नहीं,
ज़रुरत है
सिर्फ चार दीवार
और ऊपर छत
की.

काश
घर बनाना भी इतना ही 
आसान होता. 
लेकिन
केवल ईंट, गारा, पत्थर जोड़कर
दीवार और छत बनाने से
घर नहीं बनता,
चाहिए इस के लिये
आपसी विश्वास की ईंट,
स्नेह का गारा,
सहयोग का प्लास्टर
और
बुजुर्गों के सम्मान
की छत.

स्टील, सीमेंट , कंक्रीट
से बने जंगल
जिसमें रहते हैं केवल रोबोट,
परिवार नहीं,
भरभराकर
गिर रहे हैं,
असहिष्णुता और स्वार्थ 
के भूकम्प के
एक हलके झटके से.

प्रेम, विश्वास
की मिट्टी से बनी
कच्ची झोंपड़ियाँ ,
झेल चुकी हैं
जाने कितने भूकम्प के झटके,
और आज भी खड़ी हैं
परस्पर स्नेह और सम्मान
की नींव पर.

बहुत कोशिश की
मैंने एक घर बनाने की,
लेकिन कहीं नहीं मिला
स्नेह का गारा,
विश्वास की ईंट,
और सम्मान की छत.
जो बना
वह रह गया  बनकर
केवल एक मकान,
जो इंतज़ार में है
भरभरा कर गिरने को
स्वार्थ और लालच के
एक हलके भूकम्प के
झटके से.








Wednesday, October 06, 2010

पेट की आग .....

तोडती है पत्थर , तपती हुई धूप में,

कौन आग तेज़ है,पेट की या धूप की .



मेहनत के प्रतिफल से पेट नहीं भर पाया,

जिसने तन को बेचा दुनिया ने ठुकराया,

दोनों ने श्रम बेचा, किसको हम पाप कहें,

दोनों के श्रम पीछे, मज़बूरी थी भूख की.



बचपन सूना सूना, यौवन गदराया,

यौवन के चहरे पर वृद्धापन गहराया,

नयन के झरोखे से स्वप्न झांकते रहे,

निशा भी चली गयी राह तकते नींद की.



अवगुण छुप जाते,सौने की ज़गमग में,

अनचाहा भार बना,यौवन उसको पग में,

पद्मिनी तुम्हें हर युग में ज़लना ही होगा,

चाहे दहेज़ के नाम, सजा या रूप की.