पीड़ा का उपहार दिया क्यों तुमने मेरे प्यासे उर को,
माना तुमसे खुशियों का प्रतिदान नहीं माँगा था मैंने।
फूल नहीं खिलते हर तरु पर,
लेकिन सभी नहीं ज़लते हैं।
नहीं चांदनी मिलती सब को,
लेकिन दीप नहीं बुझते हैं।
दिया अँधेरा ऐसा क्यों अस्तित्व अलोप होगया जिसमें,
माना दीप मालिका का वरदान नहीं माँगा था मैने.
दे सकती थीं नहीं प्रेम तुम,
लेकिन स्वप्न न तोडा होता।
बुझा न सकती थीं अंगारे,
नहीं कुरेदा उनको होता ।
इतना दग्ध किया क्यों उर को,बरस पड़े नयनों के बादल,
माना नहीं अधर पर स्मित का नर्तन माँगा था मैंने ।
बहुत कह दिया था नयनों ने,
लेकिन शब्द नहीं जुट पाये।
बाँध लिया था उर ने तुमको,
लेकिन हाथ नहीं बढ़ पाये ।
साथ नहीं था दिया प्रेम के मंदिर को सर्जन करने में,
कब्र बनादो मगर प्रेम की यह भी कब चाहा था मैंने।
स्वयं तोड़ दी जब सीमायें,
कैसे सीमा में तुम्हें बांधता।
किन्तु और की बांहों में हो,
यह भी सहन नहीं हो पाता।
कुछ क्षण बन आकाश दीप, क्यों आस जगादी तुमने तट की,
वरना कब तट का आँचल चाहा था मेरे भटके मन ने ।