मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश:
अठारहवाँ अध्याय
(मोक्षसन्यास-योग-१८.२६-३५)
आसक्तिरहित धीर उत्साही
अहंकार न वाणी में होता.
निर्विकार जो हार जीत में
कर्ता वह सात्विक है होता. (१८.२६)
आसक्त, कर्मफल की इच्छा,
लोभी हिंसक अपवित्र है होता.
हर्ष और शोक युक्त जो रहता
वह राजसिक प्रवृति का होता. (१८.२७)
अस्थिर बुद्धि विवेकशून्य है,
जिद्दी, धूर्त और अपमानी.
वह है तामस प्रवृति का होता
करता शोक आलसी कामी. (१८.२८)
तीन भेद बुद्धि और धृति के
गुणानुसार सुनो हे अर्जुन!
अलग अलग से मैं करता हूँ
तुमको उनका विस्तृत वर्णन. (१८.२९)
कार्य अकार्य, धर्म अधर्म का
भय अभय का भेद जानती.
बंधन और मोक्ष का अंतर
जो है सात्विकी बुद्धि जानती. (१८.३०)
धर्म, अधर्म, कार्य, अकार्य को
जो यथार्थ में नहीं जानती.
ऐसी बुद्धि जगत में अर्जुन
राजस गुण वाली कहलाती. (१८.३१)
अंधकार से आच्छादित जो
बुद्धि अधर्म को धर्म मानती.
वह तामसी बुद्धि है अर्जुन
सर्व अर्थ विपरीत मानती. (१८.३२)
अचल धैर्य व चित से अर्जुन
मन एकाग्र योग से करता.
मन इन्द्रिय व प्राण संयमित
सदा सात्विकी जन है करता. (१८.३३)
कर्मफलों का आकांक्षी धृति से,
धारण अर्थ, भोग, धर्म को करता.
उनमें अत्यंत आसक्ति उसकी
वह जन है धृति राजसी रखता. (१८.३४)
जिस धृति के कारण दुर्बुद्धि
स्वप्न शोक भय को अपनाता.
युक्त विषाद और मद से वह
धृति तामसी वाला कहलाता. (१८.३५)
....क्रमशः
....कैलाश शर्मा
मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश:
अठारहवाँ अध्याय
(मोक्षसन्यास-योग-१८.२६-३५)
आसक्तिरहित धीर उत्साही
अहंकार न वाणी में होता.
निर्विकार जो हार जीत में
कर्ता वह सात्विक है होता. (१८.२६)
आसक्त, कर्मफल की इच्छा,
लोभी हिंसक अपवित्र है होता.
हर्ष और शोक युक्त जो रहता
वह राजसिक प्रवृति का होता. (१८.२७)
अस्थिर बुद्धि विवेकशून्य है,
जिद्दी, धूर्त और अपमानी.
वह है तामस प्रवृति का होता
करता शोक आलसी कामी. (१८.२८)
तीन भेद बुद्धि और धृति के
गुणानुसार सुनो हे अर्जुन!
अलग अलग से मैं करता हूँ
तुमको उनका विस्तृत वर्णन. (१८.२९)
कार्य अकार्य, धर्म अधर्म का
भय अभय का भेद जानती.
बंधन और मोक्ष का अंतर
जो है सात्विकी बुद्धि जानती. (१८.३०)
धर्म, अधर्म, कार्य, अकार्य को
जो यथार्थ में नहीं जानती.
ऐसी बुद्धि जगत में अर्जुन
राजस गुण वाली कहलाती. (१८.३१)
अंधकार से आच्छादित जो
बुद्धि अधर्म को धर्म मानती.
वह तामसी बुद्धि है अर्जुन
सर्व अर्थ विपरीत मानती. (१८.३२)
अचल धैर्य व चित से अर्जुन
मन एकाग्र योग से करता.
मन इन्द्रिय व प्राण संयमित
सदा सात्विकी जन है करता. (१८.३३)
कर्मफलों का आकांक्षी धृति से,
धारण अर्थ, भोग, धर्म को करता.
उनमें अत्यंत आसक्ति उसकी
वह जन है धृति राजसी रखता. (१८.३४)
जिस धृति के कारण दुर्बुद्धि
स्वप्न शोक भय को अपनाता.
युक्त विषाद और मद से वह
धृति तामसी वाला कहलाता. (१८.३५)
....क्रमशः
....कैलाश शर्मा