Wednesday, May 29, 2013

तलाश अस्तित्व की


जो भी मिला जीवन में
चढ़ाये था एक मुखौटा
अपने चेहरे पर,
हो गया मज़बूर मैं भी
समय के साथ चलने,
चढ़ा लिए मुखौटे
अपने चेहरे पर.

तंग आ गया हूँ
बदलते हर पल
एक नया मुखौटा
हर सम्बन्ध, हर रिश्ते को.
रात्रि को जब
टांग देता सभी मुखौटे
खूंटी पर,
दिखाई देता आईने में
एक अज़नबी चेहरा
और ढूँढता अपना अस्तित्व
मुखौटों की भीड़ में.

सोचता हूँ बहा दूँ
सभी मुखौटे नदी में
और देखूं असली रूप
अपने अस्तित्व का
और प्रतिक्रिया संबंधों की.

...कैलाश शर्मा 

Monday, May 20, 2013

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (५१वीं कड़ी)



                                  मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश: 

       तेरहवां अध्याय 
(क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभाग-योग-१३.१ -११)


इस शरीर को सुनो धनञ्जय 
क्षेत्र रूप में जाना जाता.
क्षेत्रज्ञ उसे तत्वविद हैं कहते 
जो मनुष्य है इसे जानता.  (१३.१)

क्षेत्र रूपी शरीर में अर्जुन 
तुम क्षेत्रज्ञ मुझे ही जानो.
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ ज्ञान को
मेरे मत में ज्ञान ही जानो.  (१३.२)

क्या है क्षेत्र, है किस प्रकार का,
क्या हैं विकार व कहाँ से आते?
क्षेत्रज्ञ स्वरुप, उसके प्रभाव को
संक्षेप में अर्जुन हम समझाते.  (१३.३)

ऋषियों ने अनेक वेदमंत्रों में 
बहु विधि से गान किया है.
ब्रह्म सूत्र व पदों के द्वारा 
युक्तियुक्त स्पष्ट किया है.  (१३.४)

पंच महाभूत, अहंकार व बुद्धि,
अव्यक्त, मन व दसों इन्द्रियां.
इच्छा और द्वेष व सुख दुःख
और विषय आसक्त इन्द्रियां.  (१३.५)

स्थूल शरीर चेतना व स्थिरता,
ये सब शरीर के ही हैं लक्षण.
सहित विकार इन्द्रियों के मैंने
किया क्षेत्र का सूक्ष्म है वर्णन.  (१३.६)

नम्र भाव व दम्भ न करना
सहनशील, सरल भाव का होना.
गुरु सेवा, शुचिता व अहिंसा 
स्थिरता व आत्मसंयम का होना.  (१३.७)

हो वैराग्य इन्द्रिय विषयों में
अहंकार जो मन में न करता.
जन्म मृत्यु, रोग, वृद्धावस्था 
दुखादि दोष का चिंतन करता.  (१३.८)

अनासक्त, पुत्र स्त्री व घर का
मन में मोह नहीं वह रखता.
इष्ट अनिष्ट प्राप्त हो कुछ भी 
मन को एक समान है रखता.  (१३.९)

अनन्य योग से मुझमें श्रद्धा
एवम अविचल भक्ति है रखता.
एकांत स्थान में रह कर के,
जन समुदाय में न खुश रहता.  (१३.१०)

अध्यात्मज्ञान में जो स्थिर ,
ब्रह्मज्ञान का अर्थ समझता.
तत्वज्ञान ही ज्ञान हैं कहते,
अन्य सभी अज्ञान समझता.  (१३.११)


              
                  ........ क्रमशः

© कैलाश शर्मा 

Tuesday, May 14, 2013

किस पिंज़रे में फ़स गया


                                                          (चित्र गूगल से साभार)

एक बार तेरे शहर में आकर जो बस गया,     
ता-उम्र फड़फडाता, किस पिंज़रे में फ़स गया.

नज़रें नहीं मिलाता, कोई यहाँ किसी से,
एक अज़नबी हूँ भीड़ में, यह दर्द डस गया.

रिश्तों की हर गली से गुज़रा मैं शहर में,
स्वारथ का मकडजाल, मुझे और क़स गया.

साये में उनकी ज़ुल्फ़ के ढूंढा किये सुकून,
वह छोड़ हम को धूप में महलों में बस गया.

आती हैं याद मुझ को गलियां वो गाँव की,
वह ख़्वाब अश्क़ बन के आँखों में बस गया.

ऊंचे हैं ख़्वाब सब के, पैरों तले ज़मीं न,
ज़ब भी गिरा ज़मीं पर, दलदल में फ़स गया.

न मिल ही पायी मंज़िल, गुम हो गयी हैं राहें,
इस कशमकश-ए-हयात में, कैसे मैं फ़स गया.

....कैलाश शर्मा 

Thursday, May 09, 2013

अहसासों का जंगल


अहसासों के सूने जंगल में
ढूंढ रहा वे अहसास
जो हो गये गुम जीवन में
जाने किस मोड़ पर.

हर क़दम पर चुभती हैं
किरचें टूटे अहसासों की,
सहेज कर जिनको उठा लेता,
शायद कभी मिल जायें
सभी टूटे टुकड़े
और जुड़ जाये फिर से
टूटे अहसासों का आईना.

बेशक़ होंगे निशान
हरेक जोड़ पर
और न होगी वह गर्मी 
उन अहसासों में,
लेकिन कुछ तो भरेगा शून्य
अंतस के सूनेपन का.

काश जान पाता दर्द
टूटे अहसासों का,
नहीं लगाता आँगन में
पौधे कोमल अहसासों के.

...कैलाश शर्मा 

Thursday, May 02, 2013

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (५०वीं कड़ी)


                                 मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश: 

       बारहवाँ अध्याय 
(भक्ति-योग-१२.१२-२०)


श्रेष्ठ ज्ञान अभ्यास से होता 
ध्यान ज्ञान से श्रेष्ठ कहाता.
उससे श्रेष्ठ कर्म फल तजना,
जिससे परम शान्ति है पाता.  (१२.१२)

द्वेषहीन, मित्र है सब का,
अपने दूजे का भाव न रखता.
करुणाशील अहंकारहीन है
क्षमाशील, समत्व में रहता.  (१२.१३)

रहता संतुष्ट सदा जो योगी,
दृढनिश्चयी व संयमी होता.
मन बुद्धि मम अर्पित करता,
ऐसा भक्त मुझे प्रिय होता.  (१२.१४)

जग को जो उद्विग्न न करता,
न उससे उद्विग्न है होता.
ईर्ष्या, भय, उद्वेग रहित जो 
वैसा भक्त मुझे प्रिय होता.  (१२.१५)

इच्छा रहित शुद्ध निपुण है,
तटस्थ मुक्त पीड़ा से होता.
कर्तापन का भाव न रखता,
ऐसा भक्त मुझे प्रिय होता.  (१२.१६)

न हर्षित, न द्वेष है करता,
न ही शोक, आकांक्षा करता.
शुभ व अशुभ त्याग जो देता
ऐसा भक्त मुझे प्रिय लगता.  (१२.१७)

हो सम भाव शत्रु मित्रों से,
मान अपमान में ध्रुव रहता. 
सुख दुःख में समत्व बुद्धि है,
सभी मोह से मुक्त है रहता.  (१२.१८)

निंदा स्तुति में सम जन जो
मौन, सदा संतुष्ट है रहता.
मोहमुक्त, प्रिय वह मुझको 
एकाग्र बुद्धि से है जो भजता.  (१२.१९)

किन्तु धर्ममय अमृत पथ का
कथनानुसार अनुसरण करते.
श्रद्धापूर्ण समर्पित जो मुझ में,
भक्त मुझे वे अति प्रिय लगते.  (१२.२०)

**बारहवां अध्याय समाप्त**

                  ......क्रमशः

...कैलाश शर्मा