Thursday, January 30, 2014

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (१६वां अध्याय)

                                  मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश: 

           सोलहवाँ अध्याय 
(दैवासुरसम्पद्विभाग-योग-१६.१३-२४

इतना आज है मैंने पाया 
अमुक मनोरथ पूर्ण करूँगा.
इतना धन है पास में मेरे
इतना ही फिर प्राप्त करूँगा.  (१६.१३)

इस शत्रु को नष्ट किया है,
अन्य शत्रु को भी मारूंगा.
मैं ईश्वर मैं सिद्ध मैं भोगी 
मैं बलवान, मैं सुखी रहूँगा.  (१६.१४)

मैं ही धनी कुलीन व दानी,
दूजा मेरे सम कैसे हो सकता.
यज्ञ करूँगा, हर्ष पाऊंगा,
भ्रमित है वह अज्ञान में रहता.  (१६.१५)

जिनका मन विभ्रांत है रहता,
मोह जाल में जकडे रहते.
भोगों में आसक्ति है जिनकी 
वे अपवित्र नरक में गिरते.  (१६.१६)

स्वयं श्रेष्ठ मानें अपने को,
धन अभिमान युक्त हैं रहते.
शील रहित, नाम पाने को 
दंभपूर्ण अविधि यज्ञ हैं करते.  (१६.१७)

अहंकार बल दर्प से पूरित 
काम क्रोध का आश्रय लेते.
प्राणी जगत शरीर में स्थित 
मुझसे ही वह द्वेष हैं करते.  (१६.१८)

क्रूर और अधम मनुजों को
जो मुझसे द्वेष है करता.
ऐसे मनुजों को मैं निरंतर
असुर योनि भेजता रहता.  (१६.१९)

प्राप्त न करके मुझे मूढ़ जन,
सतत असुर योनि में जाते.
फिर उससे भी अधम योनियां
उनमें जन्म जन्मांतर जाते.  (१६.२०)

काम क्रोध और लोभ हैं, 
तीन नरक के द्वार कहाते.
त्याग इन्हें चाहिए देना 
ये आत्मा नाशक कहलाते.  (१६.२१)

नरक द्वार रूप इन दोषों से 
मनुज मुक्त है जब हो जाता.
आत्मकल्याण कर्मको करके
प्राप्त परम गति को हो जाता.  (१६.२२)

त्याग शास्त्रोक्त विधि को 
इच्छा अनुसार आचरण करता.
वह सिद्धि या सुख न पाता
न ही परमगति प्राप्त है करता.  (१६.२३)

युक्त है करना या न करना
शास्त्रों में प्रमाण है तुमको.
शास्त्रविहित कर्म जानकर 
करने कर्म चाहिये तुमको.  (१६.२४)

**सोलहवां अध्याय समाप्त**

               .......क्रमशः

....कैलाश शर्मा 

Wednesday, January 22, 2014

क्यों अधर न जाने रूठ गये

बहुत बहाये हैं आंसू इन नयनों ने,
अब तो बाक़ी कुछ तर्पण को रहने दो.

क्यों बेमानी हो गये शब्द,
भावों के सोते सूख गये.
कहने को कितनी बातें थीं,
क्यों अधर न जाने रूठ गये.

बहुत भटकता रहा ख्वाब के ज़ंगल में,
कुछ देर हकीक़त के दामन में रहने दो.

क्यों परसा मौन है जीवन में,
क्यों स्वप्न हो गए रंग हीन.
आशा की लहर जो आयी थी,
क्यों हुई किनारे पर विलीन.

अब नहीं चाहता कोई कांधा रोने को,
अपने जीवन की लाश स्वयं ही ढ़ोने दो.

चाहत के बीज क्यों बोये थे,
क्यों फल पाने की इच्छा की.
कुछ समय दिया होता ख़ुद को
मन होता आज न एकाकी.

देख लिए हैं बहुत रूप तेरे जीवन,
अब चिरनिद्रा में मुझे शांति से सोने दो.


....कैलाश शर्मा 

Monday, January 13, 2014

मौन

मौन नहीं स्वीकृति हार की
मौन नहीं स्वीकृति गलती की,
मौन नहीं है मेरा डर 
और न ही मेरी कमजोरी,
झूठ से पर्दा मैं भी उठा सकता हूँ
और दिखा सकता हूँ आइना सच का,
लेकिन क्यों उठती उंगली 
सदैव सच पर ही,
होता है खड़ा कटघरे में
और देनी पड़ती अग्नि परीक्षा 
सदैव सच को ही।

जब मुखर होता असत्य
और दब जाती आवाज़
सत्य की 
असत्य के शोर में,
हो जाता मौन 
सत्य कुछ पल को।
सत्य हारा नहीं 
सत्य मरा नहीं 
केवल हुआ है मौन 
समय के इंतज़ार में।


..... © कैलाश शर्मा 

Wednesday, January 08, 2014

तनहाई

नहीं बैठता कागा
इस घर की मुंडेर पर,
नहीं सुनायी देती 
अब उसकी आवाज़,
गुज़र जाता मौन
छत के ऊपर से,
पता है उसको 
नहीं आता कोई 
इस सुनसान घर में,
नहीं चाहता जगाना 
झूठी आशा
तन्हा दिल में।


******
सुनी है कभी 
खामोशी की आवाज़ 
चीखती है सन्नाटे में 
मिटाने को अकेलापन 
सुनसान कोनों का.

.....कैलाश शर्मा

Saturday, January 04, 2014

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (१६वां अध्याय)

                                    मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश: 

           सोलहवाँ अध्याय 
(दैवासुरसम्पद्विभाग-योग-१६.१-१२

श्री भगवान 

अभय और चित्त की शुद्धि,
ज्ञान योग में स्थित होना.
इन्द्रियसंयम ज्ञान यज्ञ तप
सारल्य व स्वाध्यायी होना.  (१६.१)

सत्य अहिंसा त्याग शान्त
क्रोध व निंदा कभी न करना.
मृदुता दया लोक लज्जा व 
लोभ व चंचलता से बचना.  (१६.२)

तेज धैर्य क्षमा व शुचिता, 
द्रोह और अभिमान न होता.
होते गुण छब्बीस ये उसमें 
दैवीप्रकृति में जन्म जो लेता.  (१६.३)

दर्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, 
निष्ठुरता व अज्ञान हैं होते.
आसुरीप्रवृति के जो जन हैं 
उनमें ये सब दुर्गुण हैं होते.  (१६.४)

दैवी गुण मुक्ति का कारक
आसुरी प्रवृति बंधन का कारण.
शोक करो न तुम हे अर्जुन! 
दैवी गुण साथ जन्म के कारण.  (१६.५)

दैवी और आसुरी सृष्टि 
ये दो सृष्टि हुई जगत में.
दैवीप्रकृति बताई तुमको 
असुरप्रकृति कहता अब मैं.  (१६.६)

धर्म प्रवृत्ति अधर्म निवृत्ति, 
न जाने आसुरी स्वभाव जन.
होता नहीं इसलिए उनमें
शुचिता सत्य व सदाचरण.  (१६.७)

है असत्य, आधारहीन ये जग 
ईश्वर का अस्तित्व न जाने.
स्त्री पुरुष संसर्ग से जग पैदा
वर्ना काम वासना क्या माने?  (१६.८)

ऐसे विचार का आश्रय लेकर 
नष्टात्मा क्रूर कर्मों को करते.
होकर के शत्रु इस जग के 
जगत नाश का कारण बनते.  (16.9)

अतृप्त काम का आश्रय लेकर,
दम्भ मान मद युक्त हैं होते. 
दुराग्रहों के आश्रित हो कर के,
असत् कर्म में प्रवृत्त हैं होते.  (१६.१०)

रखते असीम चिंताएं अपनी 
जिनका अंत मृत्यु पर होता.
परम लक्ष्य भोगों को भोगना 
विश्वास है ऐसा उनका होता.  (१६.११)

आशाओं के बंधन में बंध के
काम क्रोध के वश में रहते.
इन भोगों की संतुष्टि को 
धन-संग्रह अन्याय से करते.  (१६.१२)           


             ............क्रमशः

....कैलाश शर्मा