मैं जला बैठी हूँ दीपक शाम ही से.
ज़िंदगी मेरी तो एक अंधी गली है,
दीप फिर आकृष्ट किस को कर सकेगा.
ज़िंदगी आकंठ आपूरित है विष से,
एक कण अमृत का कैसे छल सकेगा.
आज हर आहट पर यूँ मैं सिमट जाती,
नववधू जैसे कि प्रिय के नाम ही से.
आज अपनी श्वास भी अनजान सी है,
गुनगुनाते हैं अधर ये आज फिर क्यों.
होगया अभ्यस्त मन चिर मौन व्रत का,
चाहता है मुखर होना आज फिर क्यों.
आज धड़कन भी मेरी अनजान लगती,
नयन में सपने जगे हैं शाम ही से.
गर हुआ जो भंग सपना आज फिर से,
तो मैं शायद नींद से भी बिछुड़ जाऊं.
गर हुए अहसास फिर से आज झूठे,
ज़िंदगी फिर साथ शायद दे न पाऊँ.
आज आकर कान में फिर गुनगुना दो,
गीत वह सुनने को व्याकुल शाम ही से.
आज आकर कान में फिर गुनगुना दो,
ReplyDeleteगीत वह सुनने को व्याकुल शाम ही से.
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने ।
आज अपनी श्वास भी अनजान सी है,
ReplyDeleteगुनगुनाते हैं अधर ये आज फिर क्यों.
होगया अभ्यस्त मन चिर मौन व्रत का,
चाहता है मुखर होना आज फिर क्यों.
bahut hi mukhar bhaw hain
गीत वह सुनने को व्याकुल शाम ही से ||
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ||
मतलब की बात अंत में ही अच्छी ||
बधाई--
सशक्त प्रस्तुति की ||
आज आकर कान में फिर गुनगुना दो,
ReplyDeleteगीत वह सुनने को व्याकुल शाम ही से.
बेहतरीन पंक्तियाँ हैं सर!
सादर
Aas jagati hui khubsurat rachana ke liye aabhar.
ReplyDeleteआज अपनी श्वास भी अनजान सी है,
ReplyDeleteगुनगुनाते हैं अधर ये आज फिर क्यों.
होगया अभ्यस्त मन चिर मौन व्रत का,
चाहता है मुखर होना आज फिर क्यों.
भावभीनी इस मधुर कविता के लिये बहुत बहुत बधाई !
behatareeen panktiyaan hai sir jeee
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावो से परिपूर्ण रचना|
ReplyDeleteआज हर आहट पर यूँ मैं सिमट जाती,
ReplyDeleteनववधू जैसे कि प्रिय के नाम ही से.
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति मन के भावों को दर्शाती हुई रचना
कल शनिवार (०९-०७-११)को आपकी किसी पोस्ट की चर्चा होगी नयी-पुराणी हलचल पर |कृपया आयें और अपने शुभ विचार दें ..!!
ReplyDeleteआपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (09.07.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at
ReplyDeleteचर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
आज अपनी श्वास भी अनजान सी है,
ReplyDeleteगुनगुनाते हैं अधर ये आज फिर क्यों.
होगया अभ्यस्त मन चिर मौन व्रत का,
चाहता है मुखर होना आज फिर क्यों.
Behad sundar!
अच्छा भाव-प्रणव गीत लिखा है आपने!
ReplyDeleteBeautiful lines !!!
ReplyDeleteShowing that no matter how much accustomed we become of something, therez always lies a wish to do something new or witty.
Loved it.
aashaao aur ummeedon se bhari komal rachna....ummeede banaye rakhiye....jindgi tabhi aasan ho payegi.
ReplyDeleteकुछ निराशा के क्षणों में आशा की किरण दिखाई दे रही है .. अच्छी भावाभिव्यक्ति
ReplyDeleteमुझे अपनी भावनाएं आप की कलम से उद्धत की हुई प्रतीत हो रही है..
ReplyDeleteआनंददायक अनुभूति
यही व्याकुलता आनन्द का उत्कर्ष बनती है।
ReplyDeleteबेहद रूमानी कविता... अच्छा लगा... कविता में लय बढ़िया बन गया है...
ReplyDeleteवाह, रूमानी है ये रचना,
ReplyDeleteआभार- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
मुखर होते जज़्बातों की सशक्त रचना ......
ReplyDeleteमधुर गीत ... सुन्दर कल्पनाप्न से सजा ....
ReplyDeleteHamesha ki tarah shandar rachna.
ReplyDeleteशब्दों के कुशल कारीगर और अभिव्यक्ति के निराले चितेरे हैं आप| बधाई|
ReplyDeleteबेहतर है मुक़ाबला करना
क्या कहने, बहुत सुंदर
ReplyDeleteआज अपनी श्वास भी अनजान सी है,
गुनगुनाते हैं अधर ये आज फिर क्यों.
होगया अभ्यस्त मन चिर मौन व्रत का,
चाहता है मुखर होना आज फिर क्यों.
आज अपनी श्वास भी अनजान सी है,
ReplyDeleteगुनगुनाते हैं अधर ये आज फिर क्यों.
बेहद भीतर से निकले जज्बातों से गुथी रचना के लिए कोटिश बधाई
अत्यंत भाव प्रवण गीत जो शब्द, कथ्य और तथ्य तीनों का संगम बन कर मन की पवित्रता प्रकीर्णित कर रहा है.. आभार ऐसी उच्छ कोटि की कोमल प्रस्तुति के लिए.
ReplyDeleteहर शब्द सुन्दर! क्या कहने!
ReplyDeleteबढ़िया रचना !
ReplyDeleteदीप जलता रहेगा.
उम्दा रचना ..बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति .. टचिंग
ReplyDeleteदिल है छोटा सा छोटी सी आशा ! खूबसूरत रचना !
ReplyDeletesunder bhav............
ReplyDeleteआज फिर जाने ये क्यों आशा जगी है,
ReplyDeleteमैं जला बैठी हूँ दीपक शाम ही से.
mugdh karti hui pangtiyan.....
गर हुआ जो भंग सपना आज फिर से,
ReplyDeleteतो मैं शायद नींद से भी बिछुड़ जाऊं.
गर हुए अहसास फिर से आज झूठे,
ज़िंदगी फिर साथ शायद दे न पाऊँ.
भावपूर्ण खूबसूरत रचना |
गर हुआ जो भंग सपना आज फिर से,
ReplyDeleteतो मैं शायद नींद से भी बिछुड़ जाऊं.
गर हुए अहसास फिर से आज झूठे,
ज़िंदगी फिर साथ शायद दे न पाऊँ.
आज आकर कान में फिर गुनगुना दो,
गीत वह सुनने को व्याकुल शाम ही से.
bahut sunder geet
bhavon ka kya kahna shbon ko moti sa rakha ahi
saader
rachana
बहुत सुन्दर भावो से परिपूर्ण रचना| धन्यवाद|
ReplyDeleteगर हुआ जो भंग सपना आज फिर से,
ReplyDeleteतो मैं शायद नींद से भी बिछुड़ जाऊं।
गर हुए अहसास फिर से आज झूठे,
ज़िंदगी फिर साथ शायद दे न पाऊँ।
आपकी कविताओं में ज़िंदगी के विविध आयामों की सुंदर व्याख्या समाहित रहती है।
कविता बहुत अच्छी लगी।
शाम से ही सपना जगाना ..उम्दा लिखा है.बहुत अच्छी लगी..
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लिखा है..... उम्दा प्रस्तुती!
ReplyDelete"आज आकर कान में फिर गुनगुना दो,
ReplyDeleteगीत वह सुनने को व्याकुल शाम ही से"
पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ और एक उत्कृष्ट रचना पढ़कर कृतज्ञ हुआ - आभार
गर हुआ जो भंग सपना आज फिर से,
ReplyDeleteतो मैं शायद नींद से भी बिछुड़ जाऊं.
वाह ...बहुत सुदर अनुभूति..
सुव्यवस्था सूत्रधार मंच-सामाजिक धार्मिक एवं भारतीयता के विचारों का साझा मंच..
आज अपनी श्वास भी अनजान सी है,
ReplyDeleteगुनगुनाते हैं अधर ये आज फिर क्यों.
होगया अभ्यस्त मन चिर मौन व्रत का,
चाहता है मुखर होना आज फिर क्यों.
Bahut Sunder Bhav...
आशा की किरण दिखाई दे रही है सुंदर व्याख्या .. अच्छी भावाभिव्यक्ति
ReplyDeleteसुन्दर शेली सुन्दर भावनाए क्या कहे शब्द नही है तारीफ के लिए ..
अस्वस्थता के कारण करीब 20 दिनों से ब्लॉगजगत से दूर था
ReplyDeleteआप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ,
आज फिर जाने ये क्यों आशा जगी है,
ReplyDeleteमैं जला बैठी हूँ दीपक शाम ही से....nice..