Friday, July 08, 2011

आज फिर जाने ये क्यों आशा जगी है

आज फिर जाने ये क्यों आशा जगी है,
  मैं जला बैठी हूँ दीपक शाम ही से.

   ज़िंदगी मेरी तो एक अंधी गली है,
दीप फिर आकृष्ट किस को कर सकेगा.
  ज़िंदगी आकंठ आपूरित है विष से,
एक कण अमृत का  कैसे छल सकेगा.

आज हर आहट पर यूँ मैं सिमट जाती,
  नववधू जैसे कि प्रिय के नाम ही से.

आज  अपनी श्वास  भी  अनजान सी है,
गुनगुनाते हैं अधर ये आज फिर क्यों.
होगया अभ्यस्त मन चिर मौन व्रत का,
चाहता है मुखर होना आज फिर क्यों.

आज धड़कन भी मेरी अनजान लगती,
   नयन में सपने जगे हैं शाम ही से.

गर हुआ जो भंग सपना आज फिर से,
तो मैं शायद  नींद से भी बिछुड़ जाऊं.
गर  हुए अहसास  फिर से आज  झूठे,
ज़िंदगी  फिर साथ शायद  दे न पाऊँ.

आज आकर कान में फिर गुनगुना दो,
गीत वह सुनने को व्याकुल शाम ही से.

45 comments:

  1. आज आकर कान में फिर गुनगुना दो,
    गीत वह सुनने को व्याकुल शाम ही से.

    बहुत ही अच्‍छा लिखा है आपने ।

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  2. आज अपनी श्वास भी अनजान सी है,
    गुनगुनाते हैं अधर ये आज फिर क्यों.
    होगया अभ्यस्त मन चिर मौन व्रत का,
    चाहता है मुखर होना आज फिर क्यों.
    bahut hi mukhar bhaw hain

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  3. गीत वह सुनने को व्याकुल शाम ही से ||

    बहुत सुन्दर ||
    मतलब की बात अंत में ही अच्छी ||
    बधाई--
    सशक्त प्रस्तुति की ||

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  4. आज आकर कान में फिर गुनगुना दो,
    गीत वह सुनने को व्याकुल शाम ही से.

    बेहतरीन पंक्तियाँ हैं सर!

    सादर

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  5. Aas jagati hui khubsurat rachana ke liye aabhar.

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  6. आज अपनी श्वास भी अनजान सी है,
    गुनगुनाते हैं अधर ये आज फिर क्यों.
    होगया अभ्यस्त मन चिर मौन व्रत का,
    चाहता है मुखर होना आज फिर क्यों.

    भावभीनी इस मधुर कविता के लिये बहुत बहुत बधाई !

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  7. बहुत सुन्दर भावो से परिपूर्ण रचना|

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  8. आज हर आहट पर यूँ मैं सिमट जाती,
    नववधू जैसे कि प्रिय के नाम ही से.
    बहुत सुंदर अभिव्यक्ति मन के भावों को दर्शाती हुई रचना

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  9. कल शनिवार (०९-०७-११)को आपकी किसी पोस्ट की चर्चा होगी नयी-पुराणी हलचल पर |कृपया आयें और अपने शुभ विचार दें ..!!

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  10. आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (09.07.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at
    चर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)

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  11. आज अपनी श्वास भी अनजान सी है,
    गुनगुनाते हैं अधर ये आज फिर क्यों.
    होगया अभ्यस्त मन चिर मौन व्रत का,
    चाहता है मुखर होना आज फिर क्यों.
    Behad sundar!

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  12. अच्छा भाव-प्रणव गीत लिखा है आपने!

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  13. Beautiful lines !!!
    Showing that no matter how much accustomed we become of something, therez always lies a wish to do something new or witty.

    Loved it.

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  14. aashaao aur ummeedon se bhari komal rachna....ummeede banaye rakhiye....jindgi tabhi aasan ho payegi.

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  15. कुछ निराशा के क्षणों में आशा की किरण दिखाई दे रही है .. अच्छी भावाभिव्यक्ति

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  16. मुझे अपनी भावनाएं आप की कलम से उद्धत की हुई प्रतीत हो रही है..
    आनंददायक अनुभूति

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  17. यही व्याकुलता आनन्द का उत्कर्ष बनती है।

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  18. बेहद रूमानी कविता... अच्छा लगा... कविता में लय बढ़िया बन गया है...

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  19. वाह, रूमानी है ये रचना,
    आभार- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

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  20. मुखर होते जज़्बातों की सशक्त रचना ......

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  21. मधुर गीत ... सुन्दर कल्पनाप्न से सजा ....

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  22. शब्दों के कुशल कारीगर और अभिव्यक्ति के निराले चितेरे हैं आप| बधाई|

    बेहतर है मुक़ाबला करना

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  23. क्या कहने, बहुत सुंदर

    आज अपनी श्वास भी अनजान सी है,
    गुनगुनाते हैं अधर ये आज फिर क्यों.
    होगया अभ्यस्त मन चिर मौन व्रत का,
    चाहता है मुखर होना आज फिर क्यों.

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  24. आज अपनी श्वास भी अनजान सी है,
    गुनगुनाते हैं अधर ये आज फिर क्यों.

    बेहद भीतर से निकले जज्बातों से गुथी रचना के लिए कोटिश बधाई

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  25. अत्यंत भाव प्रवण गीत जो शब्द, कथ्य और तथ्य तीनों का संगम बन कर मन की पवित्रता प्रकीर्णित कर रहा है.. आभार ऐसी उच्छ कोटि की कोमल प्रस्तुति के लिए.

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  26. हर शब्द सुन्दर! क्या कहने!

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  27. बढ़िया रचना !
    दीप जलता रहेगा.

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  28. उम्दा रचना ..बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति .. टचिंग

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  29. दिल है छोटा सा छोटी सी आशा ! खूबसूरत रचना !

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  30. आज फिर जाने ये क्यों आशा जगी है,
    मैं जला बैठी हूँ दीपक शाम ही से.
    mugdh karti hui pangtiyan.....

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  31. गर हुआ जो भंग सपना आज फिर से,
    तो मैं शायद नींद से भी बिछुड़ जाऊं.
    गर हुए अहसास फिर से आज झूठे,
    ज़िंदगी फिर साथ शायद दे न पाऊँ.

    भावपूर्ण खूबसूरत रचना |

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  32. गर हुआ जो भंग सपना आज फिर से,
    तो मैं शायद नींद से भी बिछुड़ जाऊं.
    गर हुए अहसास फिर से आज झूठे,
    ज़िंदगी फिर साथ शायद दे न पाऊँ.

    आज आकर कान में फिर गुनगुना दो,
    गीत वह सुनने को व्याकुल शाम ही से.
    bahut sunder geet
    bhavon ka kya kahna shbon ko moti sa rakha ahi
    saader
    rachana

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  33. बहुत सुन्दर भावो से परिपूर्ण रचना| धन्यवाद|

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  34. गर हुआ जो भंग सपना आज फिर से,
    तो मैं शायद नींद से भी बिछुड़ जाऊं।
    गर हुए अहसास फिर से आज झूठे,
    ज़िंदगी फिर साथ शायद दे न पाऊँ।

    आपकी कविताओं में ज़िंदगी के विविध आयामों की सुंदर व्याख्या समाहित रहती है।
    कविता बहुत अच्छी लगी।

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  35. शाम से ही सपना जगाना ..उम्दा लिखा है.बहुत अच्छी लगी..

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  36. बहुत ही अच्छा लिखा है..... उम्दा प्रस्तुती!

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  37. "आज आकर कान में फिर गुनगुना दो,
    गीत वह सुनने को व्याकुल शाम ही से"

    पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ और एक उत्कृष्ट रचना पढ़कर कृतज्ञ हुआ - आभार

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  38. गर हुआ जो भंग सपना आज फिर से,
    तो मैं शायद नींद से भी बिछुड़ जाऊं.
    वाह ...बहुत सुदर अनुभूति..

    सुव्यवस्था सूत्रधार मंच-सामाजिक धार्मिक एवं भारतीयता के विचारों का साझा मंच..

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  39. आज अपनी श्वास भी अनजान सी है,
    गुनगुनाते हैं अधर ये आज फिर क्यों.
    होगया अभ्यस्त मन चिर मौन व्रत का,
    चाहता है मुखर होना आज फिर क्यों.

    Bahut Sunder Bhav...

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  40. आशा की किरण दिखाई दे रही है सुंदर व्याख्या .. अच्छी भावाभिव्यक्ति
    सुन्दर शेली सुन्दर भावनाए क्या कहे शब्द नही है तारीफ के लिए ..

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  41.  अस्वस्थता के कारण करीब 20 दिनों से ब्लॉगजगत से दूर था
    आप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ,

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  42. आज फिर जाने ये क्यों आशा जगी है,
    मैं जला बैठी हूँ दीपक शाम ही से....nice..

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