इतने मत दिखलाओ सपने, आँख खुले तो आंसू आयें,
अबकी बार लगी गर ठोकर, शायद हम फिर संभल न पायें.
हर रस्ते ने था भटकाया,
हर मंज़िल बेगानी निकली.
हाथ जिसे समझे थे अपना,
मेंहदी वहाँ परायी निकली.
सूनापन अब रास आ गया, मत खींचो मुझको महफ़िल में,
टूट गया दिल अगर दुबारा, टुकड़े टुकड़े बिखर न जायें.
जिसको समझे थे हम अपना,
नज़र बचा कर चले गये वो.
जितने भी थे स्वप्न संजोये,
अश्कों में बह गये आज वो.
अंधियारे से प्यार हो गया, दीपक आँखों में चुभता है,
नहीं चांदनी का लालच दो, सपने मेरे भटक न जायें.
अब न चाह किसी मंज़िल की,
चलते रहना यही नियति है.
नहीं सताता अब सूनापन,
चलना जबतक पांवों में गति है.
ले जाओ अपनी ये यादें, दफ़न कहीं कर दो तुम इनको,
नहीं चाहता अब मन मेरा, मुझे कब्र में ये तड़पायें.
अबकी बार लगी गर ठोकर, शायद हम फिर संभल न पायें.
हर रस्ते ने था भटकाया,
हर मंज़िल बेगानी निकली.
हाथ जिसे समझे थे अपना,
मेंहदी वहाँ परायी निकली.
सूनापन अब रास आ गया, मत खींचो मुझको महफ़िल में,
टूट गया दिल अगर दुबारा, टुकड़े टुकड़े बिखर न जायें.
जिसको समझे थे हम अपना,
नज़र बचा कर चले गये वो.
जितने भी थे स्वप्न संजोये,
अश्कों में बह गये आज वो.
अंधियारे से प्यार हो गया, दीपक आँखों में चुभता है,
नहीं चांदनी का लालच दो, सपने मेरे भटक न जायें.
अब न चाह किसी मंज़िल की,
चलते रहना यही नियति है.
नहीं सताता अब सूनापन,
चलना जबतक पांवों में गति है.
ले जाओ अपनी ये यादें, दफ़न कहीं कर दो तुम इनको,
नहीं चाहता अब मन मेरा, मुझे कब्र में ये तड़पायें.
सपने तो अक्सर ही टूट जाते है.. फिर भी हम सपना देखना नही छोड़ते है... बहुत खुबसूरत पंक्तिया....
ReplyDeleteहर रस्ते ने था भटकाया,
ReplyDeleteहर मंज़िल बेगानी निकली.
हाथ जिसे समझे थे अपना,
मेंहदी वहाँ परायी निकली.
Bahut,bahut sundar!
हाथ जिसे समझे थे अपना,
ReplyDeleteमेंहदी वहाँ परायी निकली.
वाह सर... एकदम नवीन दृष्टिकोण...
एक बहुत सुन्दर गीत...
सादर....
bahut hi marmsparshi rachna .
ReplyDeleteबेहतरीन कविता।
ReplyDeleteसादर
बहुत संवेदनशील रचना
ReplyDeleteसपने मेरे भटक न जायें.
ReplyDeleteअपने सपने और अपने अपने
सबसे बड़े सहारे हैं |
बढ़ी बढ़िया प्रस्तुति ||
ले जाओ अपनी ये यादें, दफ़न कहीं कर दो तुम इनको,
ReplyDeleteनहीं चाहता अब मन मेरा, मुझे कब्र में ये तड़पायें.
sach men kashih bhari rachna hai....sir
अब न चाह किसी मंज़िल की, चलते रहना यही नियति है नहीं सताता अब सूनापन, चलना जबतक पांवों में गति है.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ..संवेदनशील रचना..आभार..
"हर रस्ते ने था भटकाया,
ReplyDeleteहर मंज़िल बेगानी निकली.
हाथ जिसे समझे थे अपना,
मेंहदी वहाँ परायी निकली."
just a single word "hats off":)
अंधियारे से प्यार हो गया, दीपक आँखों में चुभता है,
ReplyDeleteनहीं चांदनी का लालच दो, सपने मेरे भटक न जायें.
शसक्त रचना , हृदय की आवाज को सुनती व सुनाती हुयी , भावपूर्ण प्रस्तुति ...
आभार /
अंधियारे से प्यार हो गया, दीपक आँखों में चुभता है,
ReplyDeleteनहीं चांदनी का लालच दो, सपने मेरे भटक न जायें.
बहुत खूब बधाई
आदरणीय कैलाश जी
ReplyDeleteसादर सस्नेहाभिवादन !
आज का गीत मुझे भी कई बरस पीछे ले गया ...
अब न चाह किसी मंज़िल की,
चलते रहना यही नियति है
नहीं सताता अब सूनापन,
चलना जब तक पांवों में गति है
ले जाओ अपनी ये यादें, दफ़न कहीं कर दो तुम इनको,
नहीं चाहता अब मन मेरा, मुझे कब्र में ये तड़पायें
किशोर मन की भावुकताएं पूरे गीत में शब्दों के साथ चहलकदमी करती नज़र आती हैं ...
पूरी लय - ताल के साथ सुंदर सुरुचिपूर्ण शिल्प के लिए आभार !
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
ले जाओ अपनी ये यादें, दफ़न कहीं कर दो तुम इनको,
ReplyDeleteनहीं चाहता अब मन मेरा, मुझे कब्र में ये तड़पायें.
कमाल की अभिव्यक्ति की है आपने.
लगता है दिल को ही निचोड़ कर रख दिया है.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार है.
ले जाओ अपनी ये यादें, दफ़न कहीं कर दो तुम इनको,
ReplyDeleteनहीं चाहता अब मन मेरा, मुझे कब्र में ये तड़पायें.
वाह। क्या खुब कहा है।
हर रस्ते ने था भटकाया,
ReplyDeleteहर मंज़िल बेगानी निकली.
हाथ जिसे समझे थे अपना,
मेंहदी वहाँ परायी निकली.
वाह ! इसके आगे शब्द ही नहीं हैं.
bhavpoorn prastuti
ReplyDeleteबहुत सुंदर गीत! भवनाप्रद।
ReplyDeleteहर रस्ते ने था भटकाया,
ReplyDeleteहर मंज़िल बेगानी निकली.
हाथ जिसे समझे थे अपना,
मेंहदी वहाँ परायी निकली.
बहुत खूब! बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना..
अंधियारे से प्यार हो गया, दीपक आँखों में चुभता है,
ReplyDeleteनहीं चांदनी का लालच दो, सपने मेरे भटक न जायें.
बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ बेहतरीन लेखन के लिए बढ़ायी
पूरा गीत ज़बरदस्त है.आप को गीत में महारथ हासिल है.
ReplyDeleteभावमय करती शब्द रचना ...आभार ।
ReplyDeletesuperB dil se dua...achchhi rachna k liye !!!
ReplyDeleteआजकल ज़मीनों और कमीनों का ज़माना है
अब न चाह किसी मंज़िल की,
ReplyDeleteचलते रहना यही नियति है.
नहीं सताता अब सूनापन,
चलना जबतक पांवों में गति है.
वाह.....बहुत खूबसूरत
क्या गीत है शर्मा जी, वाह वाह वाह
ReplyDeleteअंधियारे से प्यार हो गया, दीपक आँखों में चुभता है,
नहीं चांदनी का लालच दो, सपने मेरे भटक न जायें.
दिल से बधाई - डिरेक्ट्ली :)))))
अब न चाह किसी मंज़िल की, चलते रहना यही नियति है नहीं सताता अब सूनापन, चलना जब तक पांवों में गति है.
ReplyDeleteआशा और निराशा का एक साथ वहन करती अद्भुत कविता !
खूबसूरत कविता... मेहँदी का पराया होना अच्छा प्रयोग है...
ReplyDeleteअपेक्षाओं को उपेक्षा मिली है।
ReplyDeleteआदरणीय अग्रज शर्मा जी बहुत ही सुंदर कविता बधाई ब्लॉग पर आकर उत्साह वर्धन करने के लिए आभार |
ReplyDeleteखूबसूरत गीत,
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
मन को छूटी भावपूर्ण रचना |अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteबधाई
आशा
ले जाओ अपनी ये यादें, दफ़न कहीं कर दो तुम इनको,
ReplyDeleteनहीं चाहता अब मन मेरा, मुझे कब्र में ये तड़पायें.
bahut bhaav-vibhor kar gayi ye panktiyan.
samvedansheel rachna.
BAHUT HI SANVEDANSHIL GEET LIKH HAI SIR....
ReplyDeleteJAI HIND JAI BHARAT........
दिल की गहराईयों को छूने वाली बेहद मार्मिक अभिव्यक्ति. आभार.
ReplyDeleteसादर
डोरोथी.
आपकी पोस्ट की चर्चा कृपया यहाँ पढे नई पुरानी हलचल मेरा प्रथम प्रयास
ReplyDeletedil ko chuti har pankti...
ReplyDeleteअंधियारे से प्यार हो गया, दीपक आँखों में चुभता है,
ReplyDeleteनहीं चांदनी का लालच दो, सपने मेरे भटक न जायें।
मन एकांत में होता है तो सपने बुनने लगता है। यही सपने मन अैर आत्मा के पोषक बनते हैं।
एक श्रेष्ठ गीत।
गहरी टीस से उपजी रचना है ... एकाकी मन की सोच ...
ReplyDeleteबेहद मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति ........
ReplyDeleteआदरणीय कैलाश जी
ReplyDeleteनमस्कार !
अब न चाह किसी मंज़िल की, चलते रहना यही नियति है नहीं सताता अब सूनापन, चलना जबतक पांवों में गति है.
बहुत सुन्दर.....संवेदनशील रचना....आभार..
हर रस्ते ने था भटकाया,
ReplyDeleteहर मंज़िल बेगानी निकली.
हाथ जिसे समझे थे अपना,
मेंहदी वहाँ परायी निकली.
भावों से भरे इस सुन्दर गीत के लिए हार्दिक शुभकामनायें...
खुद को देखा है कहीं इन पंक्तियों में मैंने..बेहतरीन रचना कैलाश सर.
ReplyDeletebhavbheenee marmik bhavo kee sunder sateek abhivykti .
ReplyDeleteसंवेदनशील ,सुन्दर रचना पढवाने के लिए धन्यवाद .
ReplyDeletevery touching...........
ReplyDeleteअब न चाह किसी मंज़िल की,
ReplyDeleteचलते रहना यही नियति है.
नहीं सताता अब सूनापन,
चलना जबतक पांवों में गति है...
भावपूर्ण पंक्तियाँ! बहुत ख़ूबसूरत, संवेदनशील एवं मर्मस्पर्शी रचना! बधाई!
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
बहुत ही श्रेष्ठ इसके पहले भी पढ़ी थी लेकिन फोण की घंटियो के चक्कर मे मजा नही आया था अब तफ़सील मे आनंद लिया
ReplyDeleteतने मत दिखलाओ सपने, आँख खुले तो आंसू आयें,
ReplyDeleteअबकी बार लगी गर ठोकर, शायद हम फिर संभल न पायें.
bahut sundar aur samvedansheel abhivyakti.badhai
हाथ जिसे समझे थे अपना,
ReplyDeleteमेंहदी वहाँ परायी निकली.
dil ka dard jab jab tazaa ho jaata hai to esi panktiyan sajti hain... bahut sunder!
मर्मस्पर्शी रचना!
ReplyDeleteहर रस्ते ने था भटकाया, हर मंज़िल बेगानी निकली. हाथ जिसे समझे थे अपना, मेंहदी वहाँ परायी निकली..........
ReplyDeletebahut sunder rachna...yu to poori kavita sunder hai per ye panktiyan dil ko chu gayi...
blog ki duniya mei nayi hoon...mere blog ko apke kadmo ka intezar rahega..
कैलाश जी , बहुत ही संवेदनशील कविता .. मन को झकझोरती हुई कविता .. शब्दों का जादू छाया है ..
ReplyDeleteआभार
विजय
कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html
very poignant.. the pain is reflecting in each line .
ReplyDeleteSimply superb writing :)
मित्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं,आपकी कलम निरंतर सार्थक सृजन में लगी रहे .
ReplyDeleteएस .एन. शुक्ल
कैलाश जी,
ReplyDeleteआप की इस कविता की चंद पंक्तियों को काव्य मंच पेज पर लिंक किया जा रह है |