Friday, May 27, 2011

आज तेरी याद फिर क्यों आ गयी

          आज तेरी याद फिर क्यों आ गयी,
          शाम से ही फ़िर  उदासी  छा गयी.

मूँद करके नयन, विस्मृत कर दिये थे मिलन क्षण, 
नयन  रीते  हो  गये, सब  बह  गये   थे   अश्रु  कण.
उंगलियां तुम पर उठें न, कर दिया खुद को अजाना,
दर्द  खुद  ही  सहलिये, करने  को चुकता  प्रेम ऋण.

          हो गया  अभ्यस्त  तपती  धूप  का,
          आज फ़िर काली घटा क्यों छा गयी.

एक सलवट से  भी  बिस्तर था  अजाना ही रहा,
स्वप्न  उठते  थे  नयन में, तन  कुंवारा  ही रहा.
तोड़ने को मौन सागर की लहर सिर पटकती थीं,
कर्णवेधी  शोर  से पर  मन  अविचलित ही  रहा.

          कर दिया था दफ़्न खुद को कब्र में,
          क्यों  सताने  तेरी  आहट आ गयी.

झूठ था शायद, तुम्हारा नाम विस्मृत कर दिया,
मेज़ से फोटो  हटाने से क्या  रिश्ता  मिट गया?
बन न पाया था मैं पत्थर, लाख कोशिश मैंने की,
आज बस क्षण एक में, यह भरम भी  मिट गया.

          अब  सतायेगा  अकेलापन  बहुत,
          याद बन चिंगारी  ज़लाने आगयी.

Tuesday, May 24, 2011

कासे कहूँ ?

कहाँ गयी 
रिश्तों की गरिमा
और पवित्रता?

कैसे रहूँगी सुरक्षित
घर से बाहर,
जब उठने लगती हैं
घर में ही 
कलुषित नज़रें उनकी,
जिनकी गोद में
करती हूँ आशा 
प्रेम और सुरक्षा की.
सोचती हूँ 
अपनों से ही
इज्ज़त लुट जाने से
बेहतर होती
उसकी हत्या
ज़न्म लेने से पहले ही.

बेटी द्वारा 
बलात्कार करने वाले 
पिता की हत्या,
बनकर रह जाती है
सिर्फ़ हैड लाइन 
एक समाचार की,
जिस पर एक नज़र डाल कर,
चाय की चुस्की के साथ,
बढ़ जाते हैं
अगले समाचार पर.

शायद शिकार हो गयी है
सामाजिक संवेदनशीलता भी
इन वहशियों के
बलात्कार की.
शर्म आती है 
अब तो अपने आपको 
इंसान कहने में.

कासे कहूँ
अपनी व्यथा,
तुम्ही बताओ 
अब जाऊँ तो 
कहाँ जाऊँ?

अब नहीं आएगा 
कोई कृष्ण 
द्रोपदी को बचाने
निर्वस्त्र होने से,
उठाना होगा गांडीव
मुझे खुद ही
अपनों के विरुद्ध
अपनी रक्षा में.

Friday, May 20, 2011

इतना दर्द मिला अपनों से

इतना दर्द मिला अपनों से,
दुश्मन से ही प्यार हो गया.
मुस्कानों ने छला है इतना,
आँसू  से  इक़रार  हो  गया.

दुनियां की इस भीड़ भाड़ में,
कितना आज अकेला पाता.
रात  बिताता  इंतज़ार  में,
सूरज  मगर  अँधेरा लाता.

घिरा हुआ  हूँ  कोलाहल से,
एक शब्द को कान तरसते,
नज़र उठाता जिस चहरे पर,
वह   चहरे अनजाने  लगते.

कब तक बात करूँ मैं खुद से,
मेरा स्वर तुम  साथ ले गयी.
जिंदा  हूँ मैं सिर्फ़  इस लिये,
चित्रगुप्त   की बही  खो गयी.

Saturday, May 14, 2011

नहीं चाहिए मन्दिर मस्ज़िद

नहीं चाहिये मंदिर मस्ज़िद,
न  गिरिजाघर , गुरुद्वारा.
मेरा  ईश्वर  मेरे  अन्दर,
क्यों मैं फिरूं मारा मारा ?

धर्म यहाँ व्यापार हो गया,
भुना रहे हैं नाम राम का.
सीता कैदमुक्त न अब तक,
जोह रही है बाट राम का.

पका  रहे  सब  अपनी  रोटी,
मज़हब की दीवार खडी कर. 
ईश्वर अल्लाह नहीं अलग हैं,
थोड़ी  अपनी सोच बड़ी कर.

भूखे  पेट  सो  रहे  बच्चे,
पूछो उनसे मज़हब उनका.
शायद कल रोटी मिलजाये,
इतना ही है मज़हब उनका.

गर प्यारा  है जो ऱब तुमको,
चल दुखियों को गले लगालो.
जो अनाथ लाचार हैं जग में,
उनको उँगली पकड़ उठा लो. 

Saturday, May 07, 2011

अज़नबी गली

हुआ था एक अजीब अहसास 
अज़नबीपन का
उस गली में,
गुजारे थे जहाँ 
जीवन के प्रारम्भ के
दो दशक.

गली के कोंने पर
दुकान वही थी,
पर चेहरा नया था
जिसमें था 
एक अनजानापन.

वह मकान भी वहीं था
और वह खिड़की भी,
पर नहीं थीं वह नज़रें
जो झांकती थीं
पर्दे के पीछे से,
जब भी उधर से गुज़रता था.

नहीं  उठायी नज़र
गली में खेलते 
किसी बच्चे ने,
नहीं दी आवाज़ 
किसी खुले दरवाज़े ने.

घर का दरवाज़ा 
जहां बीता था बचपन
खड़ा था उसी तरह
पर ताक रहा था मुझको
सूनी नज़रों से.
तलाश रही थी आँखें
इंतजार में सीढ़ियों पर बैठी बहन
और दरवाज़े पर खड़ी माँ को,
लेकिन वहां था 
सिर्फ एक सूनापन.

पुराना कलेंडर 
और कॉलेज की ग्रुप फोटो
अभी भी थे दीवार पर,
लेकिन समय की धूल ने
कर दिया था 
उनको धुंधला.
छूने से 
दीवारों पर चढ़ी धूल,
उतरने लगी 
यादों की परत दर परत,
कितने हो गए हैं दूर 
हम अपने ही अतीत से.

रसोई में
टूटे चूल्हे की ईटें देख कर
बहुत कुछ टूट गया
अन्दर से.
कहाँ है वह माँ
जो खिलाती चूल्हे पर सिकी
गर्म गर्म रोटी,
और कभी सब्जी 
इतनी स्वादिष्ट होती
कि शायद ही बच पाती,
और माँ 
आँखों में गहन संतुष्टि लिये
बची हुयी रोटी
अचार से खा लेती.

अपने अपने सपनों को 
पूरे करने की चाह में,
भूल गये उन सपनों को
जो कभी माँ ने देखे थे,
और वे चली गयीं
दुनियां से,
उदास आँखों से 
ताकते
सूने घर को.

षड़यंत्रों और लालच की आंधी ने 
बिखरा दिया उस आशियाँ को
और टूट गयी वह माँ
और उसके वह सपने.
आज मैं खड़ा हूँ उस ज़मीन पर
जिस पर मेरा कोई अधिकार नहीं,
पर नहीं छीन सकता कोई
उन यादों की धूल को
जो बिखरी है 
मेरे चारों ओर.

माँ की याद 
और आशीर्वाद का साया
अब भी है मेरे साथ.
नहीं है कोई अर्थ
आने का फिर इस गली में
अज़नबी बनने को.