अज़नबीपन का
उस गली में,
गुजारे थे जहाँ
जीवन के प्रारम्भ के
दो दशक.
गली के कोंने पर
दुकान वही थी,
पर चेहरा नया था
जिसमें था
एक अनजानापन.
वह मकान भी वहीं था
और वह खिड़की भी,
पर नहीं थीं वह नज़रें
जो झांकती थीं
पर्दे के पीछे से,
जब भी उधर से गुज़रता था.
नहीं उठायी नज़र
गली में खेलते
किसी बच्चे ने,
नहीं दी आवाज़
किसी खुले दरवाज़े ने.
घर का दरवाज़ा
जहां बीता था बचपन
खड़ा था उसी तरह
पर ताक रहा था मुझको
सूनी नज़रों से.
तलाश रही थी आँखें
इंतजार में सीढ़ियों पर बैठी बहन
और दरवाज़े पर खड़ी माँ को,
लेकिन वहां था
सिर्फ एक सूनापन.
पुराना कलेंडर
और कॉलेज की ग्रुप फोटो
अभी भी थे दीवार पर,
लेकिन समय की धूल ने
कर दिया था
उनको धुंधला.
छूने से
दीवारों पर चढ़ी धूल,
उतरने लगी
यादों की परत दर परत,
कितने हो गए हैं दूर
हम अपने ही अतीत से.
रसोई में
टूटे चूल्हे की ईटें देख कर
बहुत कुछ टूट गया
अन्दर से.
कहाँ है वह माँ
जो खिलाती चूल्हे पर सिकी
गर्म गर्म रोटी,
और कभी सब्जी
इतनी स्वादिष्ट होती
कि शायद ही बच पाती,
और माँ
आँखों में गहन संतुष्टि लिये
बची हुयी रोटी
अचार से खा लेती.
अपने अपने सपनों को
पूरे करने की चाह में,
भूल गये उन सपनों को
जो कभी माँ ने देखे थे,
और वे चली गयीं
दुनियां से,
उदास आँखों से
ताकते
सूने घर को.
षड़यंत्रों और लालच की आंधी ने
बिखरा दिया उस आशियाँ को
और टूट गयी वह माँ
और उसके वह सपने.
आज मैं खड़ा हूँ उस ज़मीन पर
जिस पर मेरा कोई अधिकार नहीं,
पर नहीं छीन सकता कोई
उन यादों की धूल को
जो बिखरी है
मेरे चारों ओर.
माँ की याद
और आशीर्वाद का साया
अब भी है मेरे साथ.
नहीं है कोई अर्थ
आने का फिर इस गली में
अज़नबी बनने को.
नहीं छीन सकता कोई
ReplyDeleteउन यादों की धूल को
जो बिखरी है
मेरे चारों ओर
बहुत अच्छी मर्मस्पर्शी रचना ...
माँ की याद
ReplyDeleteऔर आशीर्वाद का साया
अब भी है मेरे साथ.
भावमय करते शब्द ...बेहतरीन प्रस्तुति ।
आज नहीं उठते हैं सर किसी की चीखों पर,
ReplyDeleteहमने फुसफुसाहट पर बवाल मचते देखा है।
बेहद भावमयी रचना ……………संवेदनायें मन को छू गयीं।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति.सच है वक़्त की आंधी सब कुछ उडा ले जाती है और हम अजनबी बन ठगे से रह जाते हैं.परन्तु ,माँ का आशीर्वाद ही सच्ची सांत्वना है और आपका यह कहना ही सार्थक लगता है कि
ReplyDeleteमाँ की याद
और आशीर्वाद का साया
अब भी है मेरे साथ.
नहीं है कोई अर्थ
आने का फिर इस गली में
अज़नबी बनने को.
और कभी सब्जी
ReplyDeleteइतनी स्वादिष्ट होती
कि शायद ही बच पाती,
और माँ
आँखों में गहन संतुष्टि लिये
बची हुयी रोटी
अचार से खा लेती.
यह अभिव्यक्ति सबके बस की बात नहीं ....शुभकामनायें !!
उतरने लगी
ReplyDeleteयादों की परत दर परत,
कितने हो गए हैं दूर
हम अपने ही अतीत से
बीता वक़्त कहीं न कहीं हमें याद आता ही रहता है.लेकिन जब भी याद आता है हम उसमे कहीं खो से जाते हैं और यादों की इस दुनिया से बाहर आने का मन ही नहीं करता.
मदर्स डे पर बहुत ही अच्छी कविता.
सादर
घर का दरवाज़ा
ReplyDeleteजहां बीता था बचपन
खड़ा था उसी तरह
पर ताक रहा था मुझको
सूनी नज़रों से.
तलाश रही थी आँखें
इंतजार में सीढ़ियों पर बैठी बहन
और दरवाज़े पर खड़ी माँ को,
लेकिन वहां था
सिर्फ एक सूनापन.
aise me kahan rahta hai kuch apna , khud bhi kho jata hai insaan
नहीं छीन सकता कोई उन यादों की धूल को ..
ReplyDeleteमाँ को छीन सकते हैं , माँ की चीजों को मगर उसके प्रति हमारे प्रेम को नहीं ...
बहुत हैरान होती हूँ,किस तरह माँ बाप धन दौलत से भी बढ़कर हो जाते हैं , मगर आस -पास लगभग हर दूसरे घर में यही माहौल दिखता है, आप जैसे मुट्ठी भर लोंग इन भावनाओं को बचाए हैं , तसल्ली है !
मार्मिक प्रस्तुति !
माँ की याद
ReplyDeleteऔर आशीर्वाद का साया
अब भी है मेरे साथ.
नहीं है कोई अर्थ
आने का फिर इस गली में
अज़नबी बनने को.
यही सच्चाई है, सब कुछ अजनबी, पराया हो जाता है पर माँ की याद और आशीर्वाद हमेशा साथ होते हैं... अपनी सी लगती रचना...
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन
ReplyDeleteबीते हुए दिन वे प्यारे प्यारे पल छिन ।
बहुत खूबसूरत कविता,एहसासों का आभास सी कराती हुई ।
bachpan ki yaad taza kara dee....
ReplyDeletejai baba banaras................
मन भीग गया न जाने क्यों ...शायद आपने माँ को इतनी शिद्दत से याद किया इसलिए ..
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना
तलाश रही थी आँखें
ReplyDeleteइंतजार में सीढ़ियों पर बैठी बहन
और दरवाज़े पर खड़ी माँ को,
लेकिन वहां था
सिर्फ एक सूनापन.
बहुत मार्मिक प्रस्तुति !.शुभकामनायें !!
अपने अपने सपनों को
ReplyDeleteपूरे करने की चाह में,
भूल गये उन सपनों को
जो कभी माँ ने देखे थे,
और वे चली गयीं
दुनियां से,
उदास आँखों से
ताकते
सूने घर को.
Aankhen nam ho gayeen!
बचपन की पुरानी यादों को समेटे मन को छूनेवाली रचना !
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक और दिल को छूनेवाली रचना, बधाई।
ReplyDeleteकहाँ है वह माँ
ReplyDeleteजो खिलाती चूल्हे पर सिकी
गर्म गर्म रोटी,
और कभी सब्जी
इतनी स्वादिष्ट होती
कि शायद ही बच पाती,
और माँ
आँखों में गहन संतुष्टि लिये
बची हुयी रोटी
अचार से खा लेती.
Very nice expressions of an enlightened heart.
बहुत अच्छी मर्मस्पर्शी रचना|धन्यवाद|
ReplyDelete'माँ की याद
ReplyDeleteऔर आशीर्वाद का साया
अब भी है मेरे साथ ....'
******************
शर्मा जी ,
क्या कहूँ ? रुला दिया आपकी रचना ने |
यही है.......... कविता !
प्रणम्य है आपकी लेखनी....
एकदम से भावुक कर देने वाली रचना।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति
ReplyDeleteमदर्स डे पर बहुत ही अच्छी कविता
आज मैं खड़ा हूँ उस ज़मीन पर
ReplyDeleteजिस पर मेरा कोई अधिकार नहीं,
पर नहीं छीन सकता कोई
उन यादों की धूल को
जो बिखरी है
मेरे चारों ओर।
यादों की यही धूल एक दिन अनमोल संपत्ति बन जाती है।
भाव विह्वल कर देने वाली कविता।
वाह। बहुत ही भावपुर्ण शब्दों से आपने अपने दिल की बात कही है। अति सुन्दर ।
ReplyDeleteबहुत गहरे जख्म दिखाई दे रहे हैं ..कविता बहुत सुंदर है. बधाई
ReplyDeleteमाँ की याद
ReplyDeleteऔर आशीर्वाद का साया
अब भी है मेरे साथ.
नहीं है कोई अर्थ
आने का फिर इस गली में
अज़नबी बनने को
बहुत ही सुंदर भावपूर्ण रचना ........पुरानी यादों में ममता के कितने रंग सिमट आये....... उत्कृष्ट रचना
गजब जनाब...क्या कहें...
ReplyDeleteमाँ की याद
ReplyDeleteऔर आशीर्वाद का साया
अब भी है मेरे साथ.
नहीं है कोई अर्थ
आने का फिर इस गली में
अज़नबी बनने को
......बहुत सुन्दर कविता।
Nice poem.
ReplyDeleteलखनऊ से अनवर जमाल .
लखनऊ में आज सम्मानित किए गए सलीम ख़ान और अनवर जमाल Best Blogger
marm ko samjhane wali ma ....shayad koyi upama nahin ,usake samtuly----
ReplyDeleteअपने अपने सपनों को
पूरे करने की चाह में,
भूल गये उन सपनों को
जो कभी माँ ने देखे थे,
sifat aap ki maa ki sifat men . ati sunser .
माँ की याद
ReplyDeleteऔर आशीर्वाद का साया
अब भी है मेरे साथ.
नहीं है कोई अर्थ
आने का फिर इस गली में
बहुतसुन्दर भावों के साथ माँ की याद को सजाया है । मातृ दिवस की बधाई । धन्यवाद ।
संवेदनशील और बेहतरीन रचना! पढ़कर अतीत में खो सा गया!
ReplyDeleteबचपन की बात ही निराली है जिसे हम कभी भूल नही सकते है..बहुत बढ़िया रचना प्रस्तुत की आपने..बधाई
ReplyDeleteमाँ की याद
ReplyDeleteऔर आशीर्वाद का साया
अब भी है मेरे साथ.
नहीं है कोई अर्थ
आने का फिर इस गली में
अज़नबी बनने को.
बचपन कि यादें और माँ का सरमाया. गज़ब कि रचना रची है दिलको छू लेने वाली सुंदर कविता.
नि:शब्द करते एहसास ......बहुत-बहुत अच्छी अनुभूति.....सादर !
ReplyDeleteगुज़रा हुवा वक़्त कितना कुछ तोड़ जाता है कभी कभी ... इंसान के सपने भी तो पागल होते हैं ...
ReplyDeleteगुजरा हुआ समय लौट कर नहीं आता |बस यादे ही रह जाती हैं |बहुत अच्छी प्रस्तुति |
ReplyDeleteआशा
बहुत गहन भावार्थ लिए कविता बधाई सर
ReplyDeleteखुद भूखी रह कर भी बच्चे के पेट भर खा लेने से संतुष्ट हो पाने की शक्ति सिर्फ माँ के ही पास होती है और माँ के ही हाथो मे वो जादू होता है जो ५६ भोग भी उस पीली दाल के सामने बेस्वाद ही लगते हैं
ReplyDeleteमै क्या तारीफ करूँ उसके लिए जो सामर्थ्य चाहिए वो मुझ मे नहीं है सिर्फ यही कह सकता हूँ
मार्मिक चित्रण!
ReplyDeleteबहुत सच्ची बातें कहीं हैं
ReplyDeleteआपका आभार…
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ लाजवाब रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
ReplyDeleteमाँ की याद
ReplyDeleteऔर आशीर्वाद का साया
अब भी है मेरे साथ.
behad khubsurat aur marmik prashang liya hai aap ne , aabhar
एकदम से भावुक कर देने वाली रचना। मार्मिक चित्रण!
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