मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश:
अठारहवाँ अध्याय
(मोक्षसन्यास-योग-१८.१३-२५)
सब कर्मों की सिद्धि के हेतु
और अंत करने कर्मों को.
कहे सांख्य दर्शन में अर्जुन
पांच उपाय बताता तुमको. (१८.१३)
शरीर अधिष्ठान कर्म का
तथा कर्म का कर्ता होता.
इन्द्रिय और विविध कर्म हैं
हेतु पांचवां दैव है होता. (१८.१४)
मन वाणी या शरीर से
मनुज कर्म जो भी हैं करते.
धर्माकूल हों या न हों
ये पाँचों निमित्त है बनते. (१८.१५)
सब कर्मों में पांच ये हेतु
फिर भी आत्मा को कर्ता कहता.
वह विमूढ़ दुर्बुद्धि जन है
जो नहीं सत्य का दर्शन करता. (१८.१६)
मैं कर्ता हूँ भाव न जिसमें,
आसक्त न मन कर्मों में करता.
वध करके भी इन सब का,
नहीं मारता या बंधन में पडता. (१८.१७)
ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय ये तीनों
कर्म प्रवृति के हैं कारण होते.
साधन, कर्म और है कर्ता
कर्मसंग्रह तीन प्रकार के होते. (१८.१८)
गुणानुसार तीन प्रकार के
ज्ञान, कर्म और हैं कर्ता.
शास्त्रों में इनकी व्याख्या
मैं यथार्थ में तुमको कहता. (१८.१९)
अविनाशी अविभक्त आत्मा
एक है सब प्राणी में देखता.
सात्विक उस ज्ञान को जानो
जिससे ज्ञानी पुरुष देखता. (१८.२०)
समस्त प्राणियों के अन्दर के
भावों को अलग अलग जानता.
तुम राजस उस ज्ञान को जानो
जिससे वह ऐसा है मानता. (१८.२१)
जो ज्ञान एक कर्म तक सीमित
चाहे व्यर्थ और हेतु रहित है.
ऐसे ज्ञान को तुम तामस जानो.
तुच्छ और जो तत्व रहित है. (१८.२२)
शास्त्रविहित दैनिक कर्मों को
राग, द्वेष, मोह तज करता.
सात्विक कर्म है वह कहलाता,
जो निष्काम भाव से करता. (१८.२३)
फलप्राप्ति को कर्म है करता
परम कष्ट साध्य वो होता.
अहंकार से युक्त है करता
कर्म राजसिक है वह होता. (१८.२४)
हानि लाभ को बिना विचारे
न सामर्थ्य है अपनी जानें.
करता कर्म मोह के वश में
तामस ऐसे कर्म को जानें. (१८.२५)
.....क्रमशः
....कैलाश शर्मा
मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश:
अठारहवाँ अध्याय
(मोक्षसन्यास-योग-१८.१३-२५)
सब कर्मों की सिद्धि के हेतु
और अंत करने कर्मों को.
कहे सांख्य दर्शन में अर्जुन
पांच उपाय बताता तुमको. (१८.१३)
शरीर अधिष्ठान कर्म का
तथा कर्म का कर्ता होता.
इन्द्रिय और विविध कर्म हैं
हेतु पांचवां दैव है होता. (१८.१४)
मन वाणी या शरीर से
मनुज कर्म जो भी हैं करते.
धर्माकूल हों या न हों
ये पाँचों निमित्त है बनते. (१८.१५)
सब कर्मों में पांच ये हेतु
फिर भी आत्मा को कर्ता कहता.
वह विमूढ़ दुर्बुद्धि जन है
जो नहीं सत्य का दर्शन करता. (१८.१६)
मैं कर्ता हूँ भाव न जिसमें,
आसक्त न मन कर्मों में करता.
वध करके भी इन सब का,
नहीं मारता या बंधन में पडता. (१८.१७)
ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय ये तीनों
कर्म प्रवृति के हैं कारण होते.
साधन, कर्म और है कर्ता
कर्मसंग्रह तीन प्रकार के होते. (१८.१८)
गुणानुसार तीन प्रकार के
ज्ञान, कर्म और हैं कर्ता.
शास्त्रों में इनकी व्याख्या
मैं यथार्थ में तुमको कहता. (१८.१९)
अविनाशी अविभक्त आत्मा
एक है सब प्राणी में देखता.
सात्विक उस ज्ञान को जानो
जिससे ज्ञानी पुरुष देखता. (१८.२०)
समस्त प्राणियों के अन्दर के
भावों को अलग अलग जानता.
तुम राजस उस ज्ञान को जानो
जिससे वह ऐसा है मानता. (१८.२१)
जो ज्ञान एक कर्म तक सीमित
चाहे व्यर्थ और हेतु रहित है.
ऐसे ज्ञान को तुम तामस जानो.
तुच्छ और जो तत्व रहित है. (१८.२२)
शास्त्रविहित दैनिक कर्मों को
राग, द्वेष, मोह तज करता.
सात्विक कर्म है वह कहलाता,
जो निष्काम भाव से करता. (१८.२३)
फलप्राप्ति को कर्म है करता
परम कष्ट साध्य वो होता.
अहंकार से युक्त है करता
कर्म राजसिक है वह होता. (१८.२४)
हानि लाभ को बिना विचारे
न सामर्थ्य है अपनी जानें.
करता कर्म मोह के वश में
तामस ऐसे कर्म को जानें. (१८.२५)
.....क्रमशः
....कैलाश शर्मा
आ. बढ़िया व शुद्ध लेखनी , धन्यवाद , ॥ जय श्री हरि: ॥
ReplyDeleteनवीन प्रकाशन - ~ रसाहार के चमत्कार दिलाए १० प्रमुख रोगों के उपचार ~ { Magic Juices and Benefits }
आनन्द आ जाता है पढ़ कर ।
ReplyDeleteशाश्वत सत्य, सहज ढंग से समझाये गये।
ReplyDeleteसुंदर और सरल अनुवाद
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (04-05-2014) को "संसार अनोखा लेखन का" (चर्चा मंच-1602) पर भी होगी!
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार...
ReplyDeleteसहज प्रवाही सुंदर गीता।
ReplyDeleteसुन्दर ,सहज भावानुवाद !
ReplyDeleteNew post ऐ जिंदगी !
सहज और सरल शब्दों में सुंदर अनुवाद. आपके द्वारा किया गया यह कार्य सराहनीय है. धन्यवाद...
ReplyDeleteअविनाशी अविभक्त आत्मा
ReplyDeleteएक है सब प्राणी में देखता.
सात्विक उस ज्ञान को जानो
जिससे ज्ञानी पुरुष देखता. (१८.२०)
अद्भुत गीता ज्ञान..आभार !
सहज रूप से गूढ़ ज्ञान की प्राप्ति हो रही है सबको ...
ReplyDeleteबहुत आभार इस ज्ञान का ...
ह्रदय को स्पर्श करता हुआ ..
ReplyDeleteगीता का हर एक अध्याय अपने भीतर एक ऐसे सन्देश हो समाये हुए जो एक श्रेष्ठ मानव जीवन के लिए जरूरी है !
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति !!
मेरे ब्लॉग की नयी पोस्ट " खबरे सेहत की सीरीज 1" को मेरे ब्लॉग पर पढ़े !
बहुत सुंदर प्रस्तुति ...मन को छू गया..
ReplyDeleteजय श्री कृष्णा
ReplyDeletein simple language u say great things...bhasha bohat sundar..God bless u Kailash Sharmaji:))
ReplyDeletebahut khoobsurat sangrah karne layak rachnaa aapki
ReplyDeletebahuttt dino baadaayi...aur achnaak aapki rchnaa tak pahunchi.......
ReplyDeleteaap sabko athaah gyaan se milaa rhe hain
जो ज्ञान एक कर्म तक सीमित
चाहे व्यर्थ और हेतु रहित है.
ऐसे ज्ञान को तुम तामस जानो.
तुच्छ और जो तत्व रहित है.
bahut bahut shurkiya
शाश्वत सत्य, सहज ढंग से समझाये गय
ReplyDelete