मन्दिर में भी मैं ही हूँ,
मस्जिद में भी मैं ही हूँ।
क्यों लड़ते हो मेरी खातिर,
हर इन्सां में मैं ही हूँ।
क्या नाम बदलने से मेरा,
अस्तित्व बदल जाता है।
कहो राम,रहीम या जीसस,
रस्ता तो मुझी तक आता है।
मंदिर में हो या मस्जिद में,
सब का सर झुकते देखा है।
क्यों फर्क करो तुम मुझ में,
मैंने सब को सम देखा है।
आती हंसी तुम्हारी मति पर,
मेरे नाम पर लड़ते देखा।
ईश्वर, अल्लाह, राम सभी हैं,
क्या इनको भी लड़ते देखा?
जिसने स्वयं रचा है जग को,
तुम घर बना सकोगे उसका?
क्यों व्यर्थ ढूँढ़ते मंदिर में तुम,
मस्जिद में वह रहता है क्या?
जो तुम चाहो मुझे देखना,
झांको अपने अंतर्मन में।
दुखियों के बहते आंसू में,
और किसी के भूके तन में।
मैं अपना घर ढूँढ रहा हूँ,
मुझे नज़र वह कहीं न आता।
मंदिर मस्जिद दीवारें हैं,
उनसे क्या है मेरा नाता?
मस्जिद में भी मैं ही हूँ।
क्यों लड़ते हो मेरी खातिर,
हर इन्सां में मैं ही हूँ।
क्या नाम बदलने से मेरा,
अस्तित्व बदल जाता है।
कहो राम,रहीम या जीसस,
रस्ता तो मुझी तक आता है।
मंदिर में हो या मस्जिद में,
सब का सर झुकते देखा है।
क्यों फर्क करो तुम मुझ में,
मैंने सब को सम देखा है।
आती हंसी तुम्हारी मति पर,
मेरे नाम पर लड़ते देखा।
ईश्वर, अल्लाह, राम सभी हैं,
क्या इनको भी लड़ते देखा?
जिसने स्वयं रचा है जग को,
तुम घर बना सकोगे उसका?
क्यों व्यर्थ ढूँढ़ते मंदिर में तुम,
मस्जिद में वह रहता है क्या?
जो तुम चाहो मुझे देखना,
झांको अपने अंतर्मन में।
दुखियों के बहते आंसू में,
और किसी के भूके तन में।
मैं अपना घर ढूँढ रहा हूँ,
मुझे नज़र वह कहीं न आता।
मंदिर मस्जिद दीवारें हैं,
उनसे क्या है मेरा नाता?
.
ReplyDeleteजो तुम चाहो मुझे देखना,
झांको अपने अंतर्मन में।
दुखियों के बहते आंसू में,
और किसी के भूके तन में।..
Beautiful lines !
..
Thanx Dr.Divya ji..Regards.
ReplyDeleteइस कविता के द्वारा आपने जो व्यापक सरोकार वर्णित किया है वह निश्चित रूप से मूल्यवान है। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteमध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल, पढिए!
प्रतिक्रिया और प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद मनोज जी...आभार...
ReplyDeleteati sundar rachana hai
ReplyDeleteisaki bhavon ki jitani tareef ki jay vo kam hai
Thanx Vivek ji for ur encouragements...regards.
ReplyDeleteजिसने स्वयं रचा है जग को,
ReplyDeleteतुम घर बना सकोगे उसका?
क्यों व्यर्थ ढूँढ़ते मंदिर में तुम,
मस्जिद में वह रहता है क्या?
सच बात तो यही है...पर कौन इन बहरों को समझाए.
बहुत सुंदर प्रस्तुति.
bahut sunder rachana hai aapki
ReplyDeletebadhayi
Kailash, I really liked the poem. In fact, what you have written, is known to each and everybody. Unfortunately, they don't want to put it in practice. I wish to God that your poem, which undoubtedly touches the heart, teach this truth to such personas who are bent upon to divide the society in the name of GOD.
ReplyDeleteRegards
Uday Mohan
मैं अपना घर ढूँढ रहा हूँ,
ReplyDeleteमुझे नज़र वह कहीं न आता।
मंदिर मस्जिद दीवारें हैं,
उनसे क्या है मेरा नाता?
मन्दिर मस्जिद की इन दीवारों के लिये हम खुद को बन्द कर देते है अविश्वास की चारदीवारी में
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
@अनामिका जी
ReplyDelete@दीप्ति जी
@उदय
@वर्मा जी
प्रतिक्रियाओं और प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद..
मैं अपना घर ढूँढ रहा हूँ,
ReplyDeleteमुझे नज़र वह कहीं न आता।
मंदिर मस्जिद दीवारें हैं,
उनसे क्या है मेरा नाता?
....बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteकविता जी आपकी प्रतिक्रिया और ब्लॉग से जुड़ने के लिए धन्यवाद....
ReplyDeletebahot achcha likhe hain.
ReplyDeleteमैं अपना घर ढूँढ रहा हूँ,
ReplyDeleteमुझे नज़र वह कहीं न आता।
मंदिर मस्जिद दीवारें हैं,
उनसे क्या है मेरा नाता?
bahut khoobsurat kailash ji ....behtareen rachna ke liya badhai sweekarein....
Aisi dhero kavitaayein...padhne wale hazaaro magar samajhne wale?????
ReplyDelete@Mridula ji,
ReplyDelete@Kshitija ji,
@Vidushi ji
Thanks for ur encouraging comments..Regards..
शर्मा जी,
ReplyDeleteनमस्ते!
अच्छी लगी! काश लोग इसे समझ पाते!
आशीष
--
प्रायश्चित
बहुत खूबसूरती से अपने उदगार लिखे हैं ...काश लोंग समझ पायें कि हर इंसान में ही भगवान है ..
ReplyDelete@आशीष जी
ReplyDelete@संगीता जी
प्रतिक्रिया और प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद....आभार
sach palkein nam hui aapki poem padh kar :)
ReplyDeleteshukriya
http://liberalflorence.blogspot.com/
Tripat ji, thanx for ur encouraging comments..Regards..
ReplyDeleteलाजवाब...
ReplyDeleteआदरणीय कैलाश जी
ReplyDeleteनमस्कार !
इन्हीं विचारों की आवश्यकता है । आपने अपनी रचना में बहुत अच्छी तरह से समझा दिया है , सीखले यह ज़माना ।
मैं अपना घर ढूंढ रहा हूं ,
मुझे नज़र वह कहीं न आता ।
मंदिर मस्जिद दीवारें हैं,
उनसे क्या है मेरा नाता ?
वाह ! वाऽऽह !
मैं अपना एक दोहा आपको सादर समर्पित कर रहा हूं -
मस्जिद - मंदिर तो हुए , पत्थर से ता'मीर !
इंसां का दिल : राम की , अल्लाह् की जागीर !!
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
जो तुम चाहो मुझे देखना,
ReplyDeleteझांको अपने अंतर्मन में।
दुखियों के बहते आंसू में,
और किसी के भूके तन में।
बहुत ही सुन्दर एवं भावमय कर गई आपकी यह रचना, आभार
@Vijay ji,
ReplyDelete@Rajendra ji
@Sada ji
aapki pratikriya aur protsahan ke liye haardik dhanyavad....aabhar
बहुत सुन्दर !! आज इसी सोच की जरूरत है... इंसानियत और सच्चे भगवान् की जरुरत है .. भगवान् भी इंसान और सदगुणों को देखता है वो हिन्दू और मुसलमान को नहीं समझता ..
ReplyDeleteडॉ.नूतन जी आपके विचारों और प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद.....
ReplyDeletebahut hi sanvedansheel panktiyan hain.... Kash hum sam yeh samajh saken... achhi rachana ke liye aabhar
ReplyDeleteबिल्कुल सही चित्र...उम्दा रचना. बधाई.
ReplyDeleteईश्वर तो ऐसा ही होना चाहिए कि गर्दन झुकाई और दीदार कर लिया ...
ReplyDeleteअच्छी कविता ...!
@Dr.Monika ji
ReplyDelete@Udan Tashtari
@Vanee ji
Thanx for your visit to my blog and giving encouraging comments...Regards
.उम्दा रचना. बधाई.
ReplyDeleteवाह पहली बार पढ़ा आपको बहुत अच्छा लगा.
ReplyDeleteजो तुम चाहो मुझे देखना,
ReplyDeleteझांको अपने अंतर्मन में।
दुखियों के बहते आंसू में,
और किसी के भूके तन में ...
बहुत अच्छा लिखा है ... काश इस बात को हर कोई समझ सके ....
@संजय जी
ReplyDelete@दिगम्बर जी
ब्लॉग पर आने और अपनी प्रतिक्रिया दे कर प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद..आभार
sundar rachna!!!
ReplyDeleteshubhkamnayen!
जिसने स्वयं रचा है जग को,
ReplyDeleteतुम घर बना सकोगे उसका?
क्यों व्यर्थ ढूँढ़ते मंदिर में तुम,
मस्जिद में वह रहता है क्या?