Saturday, October 08, 2011

सूना आकाश

जून की तपती धूप में
गर्मी से बचने की कोशिश में
एक कबूतर का जोड़ा
बैठा था वरांडे की खिड़की पर.

उदास, अकेले
नहीं कर रहे थे गुटरगूं,
शायद बचा नहीं था कुछ 
करने को एक दूसरे से गुफ़्तगू.

कितनी बार उन्हें
तिनका तिनका सहेजकर
घोंसला बनाते,
अंड़ों से निकले बच्चों को,
अपनी भूख को भुलाकर,
दूर से दाना लाते
और अपनी चोंच से खिलाते 
देखा था.

बच्चों के पर आने पर
उनको उड़ना सिखाते,
गिरने पर उठाते
और  फिर उड़ना सिखाते.


कुछ दिन बाद 
बच्चे उड़ने लगते,
माँ बाप भी उनके साथ उड़ते
और गुटरगूं करते,
उनकी स्वप्निल आँखों में 
कितने सपने जगते.

एक दिन देखा 
उड़कर गए बच्चे
वापिस नहीं आये,
और कबूतर का जोड़ा
बैठा था उदास 
आकाश की ओर आँखें टिकाये.

मुझे याद नहीं 
यह इतिहास
कितनी बार दोहराया,
कितनी बार घोंसला बनाया,
बच्चे बड़े हुए
और उड़ गए.

लेकिन आज वे थक गये हैं,
सूनी आँखों के सपने
धूमिल हो गये हैं, 
ऊपर उठी नज़र
लौट आती है
आकाश को देखकर,
कोई नज़र नहीं आता.
जिनके लिए घोंसला बनाया था,
जिनको उड़ना सिखाया था.
सूनी आँखों से 
एक दूसरे को देख रहे हैं
लगता है शायद 
गुटरगूं करना भी भूल गये हैं.

उनकी उदासी देखकर
चारों ओर देखता हूँ 
और सोचता हूँ
कि इंसान की ज़िंदगी भी
इनसे कुछ अलग तो नहीं.

50 comments:

  1. बहुत सुन्दर लिखा है.

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  2. यह सृजन यथार्थ के धरातल का आईना है ,भाव -प्रवाह की स्वीकार्यता सर्वोच्च व आधार विश्लेषित है,सुन्दर हमराह सृजन आकर्षण का कारन है ,बहुत -२ बधाईयाँ /

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  3. मुझे याद नहीं
    यह इतिहास
    कितनी बार दोहराया,
    कितनी बार घोंसला बनाया,
    बच्चे बड़े हुए
    और उड़ गए.

    सच तो यही है, दुर्भाग्य से आज के जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना भी यही है।
    भावपूर्ण व अति मार्मिक प्रस्तुति के लिये आभार।

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  4. हम सब के साथ वही होता है। दुर्भाग्य है।

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  5. एक दिन देखा
    उड़कर गए बच्चे
    वापिस नहीं आये,
    और कबूतर का जोड़ा
    बैठा था उदास
    आकाश की ओर आँखें टिकाये.

    सशक्त संकेत... मर्मस्पर्शी रचना...
    सादर...

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  6. कैलाश जी बहुत मर्मस्‍पर्शी कविता है। लेकिन इंसान की जिन्‍दगी बहुत अलग है इन पक्षियों से। पक्षी प्रकृति के साथ रहते हैं और हम समाज रूपी विकृति और संस्‍कृति के साथ रहते हैं। हमें परिवार की आवश्‍यकता कदम कदम पर पड़ती है जब कि वे स्‍वतंत्र प्राणी हैं उनकी आवश्‍यकता अपने जोड़े से ही पूर्ण हो जाती है। टूटते परिवार मनुष्‍य के लिए घातक बनते जा रहे हैं। लेकिन बच्‍चों ने उड़ना सीख लिया है, वे इस दर्द को नहीं समझेंगे, शायद तभी समझेंगे जब उनके बच्‍चे भी उड़ने योग्‍य हो जाएंगे।

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  7. फुर्सत के कुछ लम्हे--
    रविवार चर्चा-मंच पर |
    अपनी उत्कृष्ट प्रस्तुति के साथ,
    आइये करिए यह सफ़र ||
    चर्चा मंच - 662
    http://charchamanch.blogspot.com/

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  8. मार्मिक रचना .. भावपूर्ण

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  9. inshaan bhi kuch esa hi hai...
    bahut khub..
    jai hind jai bharat

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  10. बहुत ही बेहतरीन..

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  11. सुन्दर मार्मिक विचारोत्तेजक प्रस्तुति है.

    बहुत बहुत आभार.

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  12. उफ़ …………इंसानी जीवन को ही तो चित्रित किया है आपने कबूतरो के माध्यम से………………दिल मे बहुत गहरे तक उतर गयी एक टीस के साथ्……………बेहद मार्मिक मगर सटीक चित्रण है।

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  13. खूबसूरत कविता . अलग सी प्रस्तुति

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  14. aaj kal bujorgon ke sath ye hi to ho raha h .Sach ka aaina dikhati ye post bhut achhi lagi.

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  15. इंसान जितना मजबूत घोंसला बनाता है उतना ही सुना आकाश हो जाता है..

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  16. बहुत अच्छे बिम्ब के माध्यम से आपने आज की हक़ीक़त प्रस्तुत की है। इसे दुर्भाग्य ही न कहें तो और क्या कहें?

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  17. उनकी उदासी देखकर
    चारों ओर देखता हूँ
    और सोचता हूँ
    कि इंसान की ज़िंदगी भी
    इनसे कुछ अलग तो नहीं.

    Sach me Insani Zindagi isse bilkul alag nahin....Behtreen Rachna

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  18. बहुत मार्मिक भावपूर्ण रचना......

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  19. मर्मस्‍पर्शी कविता।

    इंसान भी तो ऐसे ही हैं।

    जिन मां बाप ने पाल पोसकर बडा‍ किया... उन्‍हें छोडकर चले जाते हैं....
    आभार.....................

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  20. मुझे याद नहीं
    यह इतिहास
    कितनी बार दोहराया,
    कितनी बार घोंसला बनाया,
    बच्चे बड़े हुए
    और उड़ गए.
    .... पर जब भी बनाया , कुछ एहसास के दाने हथेलियों में रख गए

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  21. आपकी पोस्ट की हलचल आज (09/10/2011को) यहाँ भी है

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  22. कोई नज़र नहीं आता.
    जिनके लिए घोंसला बनाया था,
    जिनको उड़ना सिखाया था.

    मर्मस्पर्शी भावभिव्यक्ति. सच्चाई तो यही है.

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  23. हां, इंसान की जिंदगी भी इनसे कुछ अलग नहीं।
    यह केवल कविता नहीं, अनुभव सागर का मोती है।

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  24. यह इतिहास
    कितनी बार दोहराया,
    कितनी बार घोंसला बनाया,
    बच्चे बड़े हुए
    और उड़ गए.

    मार्मिक सत्य

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  25. Bhavpurn kavya lekhan. jisse koochh sikha ja sakta hai. aapne kabootar ke madhyam se manwiy jeevan par achha prakash dala hai.

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  26. इंसान की जिंदगी इनसे अलग कहाँ ...
    सच ही!

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  27. सच कहा आपने ....मर्मस्पर्शी रचना ।

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  28. बहुत ही सटीक और सच्ची रचना.....

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  29. भाई साहब,
    पक्षी जगत और मानव जगत में समानताएं हैं तो विषमताये भी कम नहीं. जरा तुलना करें-


    सायंकाल की रक्तिम लालिमा,
    धरती की छिट-फुट हरीतिमा
    के मध्य नीले आकाश में,
    एकलय में पंक्तिबद्ध उड़ते हुए
    पंछी जब मचाते हैं धमाल,
    कोलाहल और करते हैं -
    सामूहिक कलरव:....तो
    यह मात्र कलोल नहीं होता.


    होती है उसमे सम्मिलित वह ख़ुशी
    जो अपना पेट भर जाने के बाद
    लाते हैं चोंच भरकर बच्चों के लिए..
    अपना पवित्र दायित्व समझकर,
    ममता के पवित्र बंधन में बंधकर.
    कहीं रुकते नहीं, किसी दूसरे गाव में,
    अजनवी बाग़ में, अजनवी घोसले में.

    परन्तु,
    इंसान का जब भी भरा होता है
    पेट और भरी होती है - दोनों जेब;
    वह जा घुसता है नामी होटलों में.
    किसी अजनवी आशियाने में....
    अजनवी लोगों के बीच पाने को ख़ुशी.
    आखिर वह ख़ुशी क्यों नहीं मिल पाती
    उसे अपने ही भरे - पूरे परिवार में...?


    क्यों बहक जाते हैं उसके कदम?
    क्या है यह, आधुनिकता या मजबूरी?
    क्यों है वहाँ प्यार और स्नेह का अभाव?
    क्यों है वहाँ कडवाहट दाम्पत्य जीवन में?
    क्यों है वह असंतुष्ट अपनी ही संतानों से?
    कब रुकेंगे उसके पाँव बहकने से...?


    कब बांटेगा वह अपनी प्रसन्नता,
    अपना सुख - दुःख अपनों के बीच?
    कब पंछियों जैसे.गीत गाते, चहचहाते,
    गुनगुनाते वह लौटेगा अपने नीड़ में?
    आखिर कब..? आखिर..आखिर कब...?

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  30. यदि अपनी खुशी देने में ही पा ली जाये,अपने भीतर ही पा ली जाये किसी से भी कोई अपेक्षा न रखी जाये तो जीवन की अंतिम श्वास तक पूर्ण आनंद से जिया जा सकता है...कबूतर पूर्ण तृप्ति का अनुभव कर मौन में थे एक यह भी तो दृष्टि हो सकती है....

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  31. कबूतरों के जोड़े के मार्फ़त आज की व्यथा का मार्मिक चित्र प्रगट हुआ है कविता में जो विचार से आगे निकलके वेदना में ढल गई है .एक गम उदासी यही ज़िन्दगी का हासिल है .बच्चे भी अपना नीड़ अपनी एक ऐसी ही बेगानी दुनिया बना लेते हैं और यह सिलसिला चलता रहता है अनवरत .

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  32. लाज़वाब! एक एक पंक्ति सटीक तीर सी दिल में उतर जाती है..आज आपकी रचना ने निशब्द कर दिया.बहुत उत्कृष्ट रचना..बधाई!

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  33. खूबसूरत प्रस्तुति |

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  34. bahut achhi aur bhaawpoorna rachna

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  35. ये हालत तो तब है जब बेटा न तो आजकल "आई एस आई "मार्का होता है न "ब्यूरो ऑफ़ इन्डियन स्टेंडर्ड "सा .मानकीकरण तो तब हो जब भारतीय मर्द अपने दिमाग से सोचता हो -इन्डियन मेल्स आर द्रिविन बाई देयर फीमेल्स .

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  36. बेहतरीन अंतर्मन की प्रस्तुति के साथ जीवन का निचोड़ रखती कविता कही अन्दर तक उद्देलित करने में सक्षम बधाई

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  37. दिल भारी हो गया आपकी यह रचना पढ़ कर .....
    आज हम सब इसी व्यथा को लेकर जीने के लिए मजबूर हैं ...बच्चे उनके लिए समय नहीं दे पा रहे हैं जिन्होंने कभी बच्चों की उड़ान देखने के लिए, सपने देखे थे ! वे कुछ अधिक लम्बी उड़ान पर, अधिक जोश के साथ निकल गए और हम अपने कमजोर पंखों के साथ, सिर्फ ऊपर देख पा रहे हैं !
    शुभकामनायें आपको कैलाश भाई !

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  38. मुझे याद नहीं
    यह इतिहास
    कितनी बार दोहराया,
    कितनी बार घोंसला बनाया,
    बच्चे बड़े हुए
    और उड़ गए.

    नियति के इस अकाट्य सत्य को कोई झुठलाए भी तो आखिर कैसे। मन द्रवित करती शानदार प्रस्तुति।

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  39. सुन्दर मार्मिक प्रस्तुति .........

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  40. aadarniy sir
    bahut hi marmik drishy aankhon ke samne ubhar aaya.bahut hi sateek chintan hai aapka akxxhrshah ek ek shabd aaj ke samaj ki haqikat ko charitarth kar rahen hain-----

    उनकी उदासी देखकर
    चारों ओर देखता हूँ
    और सोचता हूँ
    कि इंसान की ज़िंदगी भी
    इनसे कुछ अलग तो नहीं.
    sahi mulyankan
    bahut hi bhav vibhor kar gai aapki ye anupam prastuti=====
    poonam

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  41. समानता तो है ही...
    यह इतिहास दुहराता है स्वयं को इंसानी जिंदगी में भी!

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  42. बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने! कबूतर की तस्वीर बहुत प्यारी है!

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  43. उनकी उदासी देखकर
    चारों ओर देखता हूँ
    और सोचता हूँ
    कि इंसान की ज़िंदगी भी
    इनसे कुछ अलग तो नहीं.
    deep n dard bhari abhivyakti.
    thanks.

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  44. जिंदगी की नाव पर
    उम्र के पड़ाव पर
    थक के सोचना पड़ा
    नेह के दूराव पर.

    अद्वितीय.

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  45. how beautifully u related the human lives with pigeon...
    hard aspects of both r well depicted !!

    Lovely read !!

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  46. जानते हुवे भी की ये जीवन की रीत है उदासी घिर ही आती है ...

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