Tuesday, August 03, 2010

कलियुग की अहिल्या


अहिल्या की तरह शिला बनी जनता
सहती रही शीत, ताप, वर्षा,
कितने शासक आये
कितने गये
किसी ने सताया
किसी ने सहलाया
लेकिन उसके मुख से निकली न आह, न वाह,
क्यों की वह तो एक शापित शिला थी,
उसे इंतज़ार था केवल एक राम का
जो उसको फिर जीवन्त कर दे.

उसकी व्यथा से द्रवित हो
कलियुग में भी आया एक राम
पर उसका स्पर्श
धड़ तक ही दे पाया स्पंदन,
पैर पाषाण ही रहे
क्योंकि वह था कलियुग का राम,
सतयुग का नहीं
जिसके स्पर्श से
शिला संपूर्ण जीवन्त अहिल्या बन गयी.

लेकिन अब अर्ध जीवन्त अहिल्या
केवल वोट दे सकती है,
पर आगे बढ़ कर अन्याय को कुचल नहीं सकती.
मंजिल नेताओं द्वारा दिखाया गया जो स्वप्न है
वहां तक वह कभी जा नहीं सकती,
क्यों की उसके पैर अब भी शिला हैं
जो उठ नहीं सकते.

वह चीखती है, चिल्लाती है
फिर चुप हो जाती है
और सूनी आँखों से देखती है रस्ता
सतयुग के उस राम का
जो शायद फिर आजाये
और पूर्णतः जीवंत कर दे आज की अहिल्या को
जिससे वह अन्याय की मूक दर्शक न रहे
और कुचल सके उसे अपने पैरों तले.



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