मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश:
सत्रहवाँ अध्याय
(श्रद्धात्रयविभाग-योग-१७.१४-२८)
देव ब्राह्मण ज्ञानी जन का
और गुरु का पूजन करते.
शुचिता अहिंसा ब्रह्मचर्य
तप संपन्न शरीर से कहते. (१७.१४)
बुरी न लगे ऐसी वाणी हो,
प्रिय हितकारी और सत्य है.
स्वाध्याय विद्या में प्रवृति
वह होता वाणी का तप है. (१७.१५)
मौन सौम्यता भाव शुचिता
प्रसन्नता व आत्मसंयम है.
ऐसे भाव है जो जन रखता
कहते उसे मानसिक तप है. (१७.१६)
फल कामना रहित व श्रद्धा से
एकाग्र चित्त होकर जो करते.
पूर्वोक्त त्रिविध श्रद्धा से करता
उस तप को सात्विक हैं कहते. (१७.१७)
सत्कार मान श्रद्धा के हेतु
दम्भ पूर्व जो तप हैं करते.
जो अनित्य क्षणिक है होता
उसे राजसिक तप हैं कहते. (१७.१८)
मूढ़ दुराग्रह के कारण से
निज शरीर को पीड़ा देते.
दूजों के विनाश के हेतु
वे तामसिक तप हैं करते. (१७.१९)
योग्य पात्र को दान हैं देता,
देश काल ध्यान में रखके.
वह ही दान सात्विक होता,
देते जिसे कर्तव्य समझके. (१७.२०)
प्रत्युपकार या फल इच्छा से
जो भी दान दिया है जाता.
दान मानसिक कष्ट से देना
वह राजसिक है माना जाता. (१७.२१)
गलत जगह और समय पर
जो अपात्र को दिया है जाता.
तिरस्कारपूर्व सत्कारहीन जो
दान तामसिक है कहलाता. (१७.२२)
ॐ तत् सत् तीनों प्रकार से
ब्रह्म प्रतीक हैं जाने जाते.
ब्राह्मण वेद यज्ञ सृष्टि में
उनसे उत्पन्न हैं जाने जाते. (१७.२३)
शास्त्र विधि तप दान क्रियायें
अतः वेद वेत्ता जब करते.
आरम्भ सदा करने से पहले
ॐ शब्द उच्चारण करते. (१७.२४)
बिना कामना फल इच्छा की
दान यज्ञ और तप जो करते.
मोक्ष प्राप्ति के इक्षुक हैं जो
पहले तत् का उच्चारण करते. (१७.२५)
सद् भाव व श्रेष्ठ भाव में
सत् शब्द प्रयोग हैं करते.
उत्तम कर्मों में भी अर्जुन
सत् शब्द प्रयोग हैं करते. (१७.२६)
यज्ञ दान और तप में भी
स्थिर रहना सत् कहलाता.
उनसे संबंधित जो कर्म है
वह भी अर्जुन सत् कहलाता. (१७.२७)
दान यज्ञ तप कर्म है अर्जुन
श्रद्धा बिना असत् कहलाता.
उसका लाभ न जग में होता
न ही है वह परलोक में पाता. (१७.२८)
**सत्रहवाँ अध्याय समाप्त**
....क्रमशः
...कैलाश शर्मा
सत्रहवाँ अध्याय
(श्रद्धात्रयविभाग-योग-१७.१४-२८)
देव ब्राह्मण ज्ञानी जन का
और गुरु का पूजन करते.
शुचिता अहिंसा ब्रह्मचर्य
तप संपन्न शरीर से कहते. (१७.१४)
बुरी न लगे ऐसी वाणी हो,
प्रिय हितकारी और सत्य है.
स्वाध्याय विद्या में प्रवृति
वह होता वाणी का तप है. (१७.१५)
मौन सौम्यता भाव शुचिता
प्रसन्नता व आत्मसंयम है.
ऐसे भाव है जो जन रखता
कहते उसे मानसिक तप है. (१७.१६)
फल कामना रहित व श्रद्धा से
एकाग्र चित्त होकर जो करते.
पूर्वोक्त त्रिविध श्रद्धा से करता
उस तप को सात्विक हैं कहते. (१७.१७)
सत्कार मान श्रद्धा के हेतु
दम्भ पूर्व जो तप हैं करते.
जो अनित्य क्षणिक है होता
उसे राजसिक तप हैं कहते. (१७.१८)
मूढ़ दुराग्रह के कारण से
निज शरीर को पीड़ा देते.
दूजों के विनाश के हेतु
वे तामसिक तप हैं करते. (१७.१९)
योग्य पात्र को दान हैं देता,
देश काल ध्यान में रखके.
वह ही दान सात्विक होता,
देते जिसे कर्तव्य समझके. (१७.२०)
प्रत्युपकार या फल इच्छा से
जो भी दान दिया है जाता.
दान मानसिक कष्ट से देना
वह राजसिक है माना जाता. (१७.२१)
गलत जगह और समय पर
जो अपात्र को दिया है जाता.
तिरस्कारपूर्व सत्कारहीन जो
दान तामसिक है कहलाता. (१७.२२)
ॐ तत् सत् तीनों प्रकार से
ब्रह्म प्रतीक हैं जाने जाते.
ब्राह्मण वेद यज्ञ सृष्टि में
उनसे उत्पन्न हैं जाने जाते. (१७.२३)
शास्त्र विधि तप दान क्रियायें
अतः वेद वेत्ता जब करते.
आरम्भ सदा करने से पहले
ॐ शब्द उच्चारण करते. (१७.२४)
बिना कामना फल इच्छा की
दान यज्ञ और तप जो करते.
मोक्ष प्राप्ति के इक्षुक हैं जो
पहले तत् का उच्चारण करते. (१७.२५)
सद् भाव व श्रेष्ठ भाव में
सत् शब्द प्रयोग हैं करते.
उत्तम कर्मों में भी अर्जुन
सत् शब्द प्रयोग हैं करते. (१७.२६)
यज्ञ दान और तप में भी
स्थिर रहना सत् कहलाता.
उनसे संबंधित जो कर्म है
वह भी अर्जुन सत् कहलाता. (१७.२७)
दान यज्ञ तप कर्म है अर्जुन
श्रद्धा बिना असत् कहलाता.
उसका लाभ न जग में होता
न ही है वह परलोक में पाता. (१७.२८)
**सत्रहवाँ अध्याय समाप्त**
....क्रमशः
...कैलाश शर्मा
धीरे धीरे सत्रह अध्याय भी खत्म हो गए ... परन्तु आपका लिखा कायम रहेगा सदियों तक ..
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर पाद्यानुवाद , आदरणीय सर धन्यवाद
ReplyDelete॥ जय श्री हरि: ॥
नवीन प्रकाशन -: बुद्धिवर्धक कहानियाँ - ( ~ अतिथि-यज्ञ ~ ) - { Inspiring stories part - 2 }
बहुत ही सुंदर
ReplyDeleteअत्यंत सुन्दर उत्कृष्ट
ReplyDeleteबेहद सरल और सुन्दर शब्दों में काव्यमय अनुवाद आप कर रहे हैं।
बहुत बहुत शुभकामनाएँ
इतना सुंदर भावानुवाद आप ही के बस का है साधुवाद ।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर भावानुवाद ...!
ReplyDeleteRECENT POST - प्यार में दर्द है.
गीता का बहता हुआ ज्ञान।
ReplyDeleteकर्म पर है अधिकार तुम्हारा कदापि नहीं है फल पर वश ।
ReplyDeleteअतः पार्थ तू कर्म किए जा अकर्मण्य तू कभी न बन ॥
मौन सौम्यता भाव शुचिता
ReplyDeleteप्रसन्नता व आत्मसंयम है.
ऐसे भाव है जो जन रखता
कहते उसे मानसिक तप है.
मानसिक तप से बढकर कोई तप नहीं..
बहुत सुंदर भावानुवाद.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावार्थ भावानुवाद मूल पाठ सा असुंदर !
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव और सुंदर अनुवाद .....
ReplyDeleteसुंदर और सरल अनुवाद ... इसके लिए आपका शुक्रिया
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अनुवाद
ReplyDeleteGREAT LINES TRANSLATED BEAUTIFULY THANKS
ReplyDeletesaral aur sunder anuwad
ReplyDeleteजब जब होता है धर्म पराजित और अधर्म होता है प्रबल ।
ReplyDeleteस्थापित करने धर्म-ध्वज को होता हूँ अवतरित धरा पर ॥
बहुत सुन्दर भावार्थ भावानुवाद .....साधुवाद ...
ReplyDeleteगीता ज्ञान सार का भाव विरेचन करती बढ़िया पोस्ट
ReplyDeleteआज गीता की जितनी आवश्यकता है उतनी शायद किसी भी ग्रन्थ की नहीं ! गीता वेदों और संसार के सभी धर्म पथों का वोध कराती है | मैंने भी घनाक्षारियों में गीता के महत्त्व को प्रस्तुत करने का यत्न किया है \ समय आने पर अन्तर्जाल में डालूँगा !
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