Saturday, April 19, 2014

परछाइयां

भागते रहते जीवन भर   
पीछे परछाइयों के
कभी आकांक्षाओं की  
कभी रिश्तों की.

नहीं चलती परछाई
कभी साथ साथ,
भागती कभी आगे
रह जाती कभी पीछे,
ज़िंदगी की तपिश
जब होती सर पर
ढूंढ लेती आश्रय
तुम्हारे अस्तित्व में.

जीवन संध्या में
हो जाती गुम
अन्धकार के आवरण में
छोड़ सहने को
दर्द अकेलेपन का.

काश समझ पाते
नहीं होता कोई संबल
किसी परछाई का,
देती है साथ
केवल उजाले में
तुम्हारे अस्तित्व का.


....कैलाश शर्मा 

41 comments:

  1. परछाई की क्रीड़ा निराली है। जब इसकी जरूरत होती यह छोड़ कर चली जाती है।

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  2. जीवन संध्या में
    हो जाती गुम
    अन्धकार के आवरण में
    छोड़ सहने को
    दर्द अकेलेपन का.......सत्य जीवन का.....

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  3. sahi baat ki ...parchhaiyan kab apni huyee hai

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  4. परछाई अपनी
    किसके समझ
    में कभी आई
    हरजाई ।

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  5. बहुत सुंदर व्याख्या की है परछाई की

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  6. काश समझ पाते
    नहीं होता कोई संबल
    किसी परछाई का,
    देती है साथ
    केवल उजाले में
    तुम्हारे अस्तित्व का.

    बिलकुल सच कहा आपने ! गहन सोच लिये एक बहुत ही सुंदर रचना !

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  7. जीवन संध्या में
    हो जाती गुम
    अन्धकार के आवरण में
    छोड़ सहने को
    दर्द अकेलेपन का.
    vastvikta se ot-prot sundar bhavtamak abhivaykti .badhai

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  8. कैसी मृगतृष्णा - जो उबरने भी नहीं देती !

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  9. नहीं होता कोई संबल
    किसी परछाई का,
    देती है साथ
    केवल उजाले में
    तुम्हारे अस्तित्व का.

    सच कहा आपने

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  10. अजब सी छटपटाहट घुटन कसकन है असह पीडा
    समझ लो साधना की अवधि पूरी है ।
    अरे घबरा न मन चुपचाप सहता जा
    सृजन में दर्द का होना ज़रूरी है ।
    अशोक चक्रधर [ इन्हें 2014 में पद्म श्री सम्मान मिला है ।]

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  11. -सुंदर रचना...
    आपने लिखा....
    मैंने भी पढ़ा...
    हमारा प्रयास हैं कि इसे सभी पढ़ें...
    इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना...
    दिनांक 21/04/ 2014 की
    नयी पुरानी हलचल [हिंदी ब्लौग का एकमंच] पर कुछ पंखतियों के साथ लिंक की जा रही है...
    आप भी आना...औरों को बतलाना...हलचल में और भी बहुत कुछ है...
    हलचल में सभी का स्वागत है...

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  12. zindagi ka bahut hi katy satya hai ye

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  13. सच है परछाई भी रौशनी हो जीवन में तो साथ देती है ... अन्धेरा अकेले ही पार करना होता है ... इश्वर के सहारे ...

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  14. अंधेरे में परछाई भी डरती है शायद,,तभी उजाला खोती है.....बहुत सुंदर

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  15. बहुत ही सुन्दर बेहतरीन प्रस्तुति,आभार आपका।

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  16. काश समझ पाते
    नहीं होता कोई संबल
    किसी परछाई का,
    देती है साथ
    केवल उजाले में
    तुम्हारे अस्तित्व का....
    jst wow......

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  17. सुंदर और अर्थपूर्ण ...

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  18. गहरी बात .... बहुत सुन्दर

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  19. बहुत ही सुन्दर बेहतरीन प्रस्तुति,आभार आपका।

    Recent Post शब्दों की मुस्कराहट पर ….अब आंगन में फुदकती गौरैया नजर नहीं आती

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  20. नहीं चलती परछाई
    कभी साथ साथ,
    भागती कभी आगे
    रह जाती कभी पीछे,
    ज़िंदगी की तपिश
    जब होती सर पर
    ढूंढ लेती आश्रय
    तुम्हारे अस्तित्व में.


    अर्थपूर्ण अभिव्यंजना सशक्त भाव प्रवाह लिए है यह रचना।

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  21. यही जीवन का सत्य... अँधेरे में परछाई भी साथ नहीं देती. भावपूर्ण रचना के लिए बधाई.

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  22. पर हम सत्य समझ नहीं पाते हैं..सुन्दर रचना.

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  23. मरीचिका की तरह है परछाईं की तलाश...अनजाने ही आकाँक्षाओं और रिश्तों में छाये खोजता फिरता है आदमी...

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  24. बहुत सुंदर , भाई जी !! मंगलकामनाएं आपको !

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  25. नहीं चलती परछाई
    कभी साथ साथ,
    भागती कभी आगे
    रह जाती कभी पीछे,

    यथार्थपरक सशक्त रचना ....

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  26. जीवन के एक यथार्थ सत्य को परछाई का बिम्ब लेकर कितनी सुगमता से समझाया है रचना में ,उजाले में सब साथ देते हैं अपने हिस्से का अन्धकार खुद ही भुगतना होता है ...बहुत खूब हार्दिक बधाई आपको आ० कैलाश जी .

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  27. सत्य वचन, परछाई हमारी है लेकिन साथ सिर्फ़ उजाले मे देती है

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  28. सुन्दर रचना

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  29. जीवन के भावो को व्यकत करती एक सुन्दर रचना !!

    मेरे ब्लॉग की नयी पोस्ट "मै मख्खन बेचता हूँ " पढ़ने के लिए मेरे ब्लॉग manojbijnori12.blogspot.com पर आये

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  30. जीवन संध्या में
    हो जाती गुम
    अन्धकार के आवरण में
    छोड़ सहने को
    दर्द अकेलेपन का-------
    परछाई को क्या खूब विश्लेषित किया है
    वाह बहुत सुन्दर----

    आग्रह है----
    और एक दिन

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  31. जीवन संध्या में
    हो जाती गुम
    अन्धकार के आवरण में
    छोड़ सहने को
    दर्द अकेलेपन का.
    ​एकदम सत्य और सार्थक शब्द

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  32. बिल्कुल सही कहा है,परछाई जब तक साथ है जब तक हमारा वजूद,अस्तित्व साथ है।

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