पैरों में चुभते काँटों से
बेख़बर ज़िंदगी,
तपती धूप में
कार के शीशे ठकठकाती
एक रुपया मांगती
बच्ची के फटे कपड़ों में
काले चश्मे के पीछे से
ज़वानी ढूंढती नज़रों का
बेख़बर ज़िंदगी,
तपती धूप में
कार के शीशे ठकठकाती
एक रुपया मांगती
बच्ची के फटे कपड़ों में
काले चश्मे के पीछे से
ज़वानी ढूंढती नज़रों का
दंश झेलती ज़िंदगी,
लम्बी वातानुकूलित कार में
मालकिन की गोद में
बैठे कुत्ते की ज़िंदगी,
एक टुकड़ा रोटी का
कूड़े में ढूँढती
भूखी मासूम ज़िन्दगी,
पौष की कड़कड़ाती ठंड में
भूखे पेट की आग से
तन को तापती ज़िंदगी,
अपने मुंह का निवाला
बच्चे को खिलाती माँ
आज वृद्धाश्रम में अकेली
जीवन के दूसरे छोर पर
अँधेरे में ढूँढती ज़िंदगी।
लम्बी वातानुकूलित कार में
मालकिन की गोद में
बैठे कुत्ते की ज़िंदगी,
एक टुकड़ा रोटी का
कूड़े में ढूँढती
भूखी मासूम ज़िन्दगी,
पौष की कड़कड़ाती ठंड में
भूखे पेट की आग से
तन को तापती ज़िंदगी,
अपने मुंह का निवाला
बच्चे को खिलाती माँ
आज वृद्धाश्रम में अकेली
जीवन के दूसरे छोर पर
अँधेरे में ढूँढती ज़िंदगी।
दिखाती नये रूप
बदलती रोज़ रंग,
लगती कभी प्रिय
कभी हो जाती बेमानी,
बदलती रोज़ रंग,
लगती कभी प्रिय
कभी हो जाती बेमानी,
कागज़ पर
बिखरे
बेतरतीब
शब्दों सी
लगती कभी
ज़िंदगी,
फ़िर भी न जाने क्यूँ
लगती हर हालात में
अपनी सी ज़िंदगी।
लगती हर हालात में
अपनी सी ज़िंदगी।
...©कैलाश शर्मा
समाज में व्याप्त विसंगतियों एवं विषमताओं को बड़ी संवेदनशीलता के साथ उकेरा है अपनी रचना में ! हम सबकी भी यही विवशता है कि हर हाल में यही है हमारी अपनी ज़िंदगी ! बहुत सुंदर रचना !
ReplyDeleteगहन सम्वेदना।
ReplyDeleteजब तक है जिंदगी हर हाल में इसे बेहतर तरीके से ही जीना चाहिए ...
ReplyDeleteदिल को छूती हुयी रचना ...
फ़िर भी न जाने क्यूँ
ReplyDeleteलगती हर हालात में
अपनी सी ज़िंदगी।
..जिंदगी है जिदंगी है भले ही कैसे भी हो जीना पड़ता है कभी कभी अपने से ज्यादा अपनों के लिए ..
बहुत बढ़िया प्रस्तुति
हाँ ज़िंदगी तो अपनी ही हर हाल हर किसी को जीनी ही होगी कर्म का लेखा जो है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा आज गुरूवार (10-07-2014) को 'उम्मीदें और असलियत { चर्चा - 1670 } पर भी है !
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बहुत बढ़िया सर!
ReplyDeleteसादर
कहीं धूप तो कहीं छाँव , हाय! कैसा है ये संसार..
ReplyDeleteऐसी क्यूँ है ज़िंदगी ......लेकिन जैसी भी है, है तो अपनी ही ज़िंदगी।
ReplyDeleteबढ़िया सुंदर प्रस्तुति व रचना , आ. धन्यवाद !
ReplyDeleteI.A.S.I.H - ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )
जिंदगी के कई रंग रे...
ReplyDeleteसबकी अपनी-अपनी ज़िन्दगी... बेहद प्रभावशाली रचना, बधाई.
ReplyDeleteसुंदर भावाभिव्यक्ति. कहीं है सुख, कहीं है दुःख.ज़िन्दगी तो ऐसी ही हैं.... कुछ खट्टी,कुछ मीठी,कुछ तीखी.
ReplyDeleteआभार...
ReplyDeleteआभार...
ReplyDeleteफ़िर भी न जाने क्यूँ
ReplyDeleteलगती हर हालात में
अपनी सी ज़िंदगी।
जिंदगी हर बार बस ऐसे ही कुछ सवाल खड़े करती है
बेहतरीन भावाभिव्यक्ति
सादर
वास्तव में बहुत ही मार्मिक चित्र खींचा है !
ReplyDeleteकिसी ने क्या खूब कहा है ज़िंदगी के बारे में...आपकी कविता पढ़ी तो अचानक से ये शेर याद आया
ReplyDeleteज़िंदगी क्या है
फकत मौत का टलते रहना...
जिंदगी के पहलुओ पर बेहद मार्मिक शब्दों के साथ आपने कितने ही सवाल खड़े कर दिए है। जो सोचने पर मजबूर कर दे। बहुत ही खूबसूरत और सार्थक रचना
ReplyDeleteजिंदगी के विविध रंग.
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शनिवार 12 जुलाई 2014 को लिंक की जाएगी...............
ReplyDeletehttp://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
सारगर्भित रचना ....
ReplyDeleteवाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह
ReplyDeleteलाजबाब प्रस्तुति
बधाई
फ़िर भी न जाने क्यूँ
ReplyDeleteलगती हर हालात में
अपनी सी ज़िंदगी।
जिंदगी हर बार बस ऐसे ही कुछ सवाल खड़े करती है
बेहतरीन भावाभिव्यक्ति
गहन सम्वेदना लिए बहुत मार्मिक प्रस्तुति-
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना !
ReplyDeleteगहन सम्वेदना.....
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeletesab karm v bhagya ka fer hai .nice expression .thanks
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteसारगर्भित लेखन बधाई
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर और मार्मिक रचना
ReplyDeleteजीवन है.... कितने रंग दिखाती है. सुन्दर रचना.
ReplyDeleteबेहतरीन,,,
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