सपने हैं
जीवन,
जीवन एक
सपना,
कौन है सच
कौन है
अपना?
*****
आंधियां
और तूफ़ान
आये कई
बार आँगन में
पर नहीं
ले जा पाये
उड़ाकर
अपने साथ,
आज भी
बिखरे हैं
आँगन में
पीले पात
बीते पल
की यादों के
तुम्हारे
साथ.
*****
नफरतों के पौधे उखाड़
कर
लगाता हूँ रोज़ पौधे
प्रेम के
पर नहीं है अनुकूल
मौसम या मिट्टी,
मुरझा जाते पौधे
और फिर उग आतीं
नागफनियाँ नफरतों
की.
शायद सीख लिया है
जीना इंसान ने
नफरतों के साथ.
*****
करनी होती अपनी मंजिल
स्वयं ही निश्चित
आकलन कर अपनी क्षमता,
बताये रास्ते दूसरों के
नहीं जाते सदैव
इच्छित मंजिल को.
...कैलाश शर्मा
सुन्दर क्षणिकाएं
ReplyDeletesundar kshanikayen sharma ji
DeleteVry touchy....:-(
ReplyDeleteSbhi kshanikayen ek se bahkar ek.....
ReplyDeleteजीवन का गहन रागानुराग वास्तविक परिस्थितियों के अनुसार परिभाषित किया है।
ReplyDeleteवाह !
ReplyDeleteगहन चिंतन से उपजी सार्थक क्षणिकाएं ! बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteसभी क्षणिकाएँ गहन भाव एवं अर्थ लिए हुए है. बहुत सुन्दर, बधाई.
ReplyDeleteक्या खूब कहा है जी :) खूबसूरत :)
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी , अद्भुत शब्द - चयन ।
ReplyDeleteनफरतों के पौधे उखाड़ कर
ReplyDeleteलगाता हूँ रोज़ पौधे प्रेम के
पर नहीं है अनुकूल मौसम या मिट्टी,
मुरझा जाते पौधे
और फिर उग आतीं
नागफनियाँ नफरतों की.
शायद सीख लिया है
जीना इंसान ने
नफरतों के साथ.
सभी क्षणिकाएं बहुत ही सुन्दर एवं सार्थक लिखी हैं आपने आदरणीय श्री कैलाश शर्मा जी
बहुत सुन्दर _/\_
ReplyDeleteसभी क्षणिकाएँ पढ़ीं। रसास्वादन की दृष्टि से दो-दो बार पढ़ीं।
ReplyDeleteभाषा शुद्धता की दृष्टि से भी पढ़ी तो 'आंकलन' की बिंदी पर ध्यान गया। सोच रहा हूँ - "क्या उसे बिना बिंदी के नहीं होना चाहिए ?"
आदरणीय प्रतुल जी, आपका कहना सही है की आकलन शुद्ध शब्द है, यद्यपि दैनिक व्यवहार में आंकलन शब्द का भी प्रयोग देखा है. ध्यानाकर्षण के लिए आभार...
Deleteबहुत सुंदर भाव.
ReplyDeleteनई पोस्ट : परंपराएं आज भी जीवित हैं
सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (28-02-2015) को "फाग वेदना..." (चर्चा अंक-1903) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार...
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteमंगलकामनाएं आपको !!
जीवन से जुड़ी सुंदर क्षणिकाएँ
ReplyDeleteअनुभव से छलक रहीं मुखऱ कणिकाएँ - नाम क्षणिकाएँ !
ReplyDeleteसुंदर क्षणिकाएँ। जीवन से भरी।
ReplyDeleteBahdiya bhaw hai
ReplyDeleteFree ebook publisher india
सुंदर अभिव्यक्ति...उम्दा क्षणिकाएं
ReplyDelete‘‘लगाता हूँ रोज़ पौधे प्रेम के
ReplyDeleteपर नहीं है अनुकूल मौसम या मिट्टी,....’’
अपनत्व का यों धुआं-धुआं होकर सुलगना अंतस् को कष्ट देता ही है....।
सभी क्षणिकाएं हकीकत के बहुत करीब ... सच को कहते हुए हैं ... अपना रास्ता खुद तलाशते हुए ...
ReplyDeleteकरनी होती अपनी मंजिल
ReplyDeleteस्वयं ही निश्चित
आकलन कर अपनी क्षमता,
बहुत खूब, मंगलकामनाएं आपको !
सही कहा है...अपनी मंजिल की तलाश हरेक को खुद ही करनी होती है...
ReplyDeleteसार्थक क्षणिकाएँ … रंगोत्सव होली की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं ...
ReplyDeleteसुंदर और सार्थक क्षणिकाएं।
ReplyDeleteआज भी ताज़ातरीन । ऐसी ही रचनायें कहलाती हैं - " काल - जयी ।"
ReplyDeleteजीवन में कुछ अपने मन से, कुछ अनमन से कुछ बेमन से ....इसी का स्वीकार लगता है जीवन.
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