बचपन भीख मांगता है जब चौराहे पर,
यौवन की उम्मीद है बिकती जब कोठे पर.
और बुढ़ापे की सूनी आँखें भी मौत ढूँढती,
कैसे दीप जलाऊं मैं, बतलाओ दर पर.
कहीं रोशनी इतनी आँखें चुंधियाँ जाती,
कहीं अँधेरा इतना, रजनी ठोकर खाती.
हैं दोनों इंसान, मगर यह अंतर क्यों है ?
बेच रहे क्यों झूठ कि यह किस्मत की थाती.
भूखे पेट, नग्न तन बच्चे, ढूंढ रहे कूड़े में खाना,
साड़ी फटी झांकते तन पर,गिद्ध द्रष्टि का लगा निशाना.
बनें योजना कागज़ पर ही,रोटी कपड़ा और मकान की,
भ्रष्ट दानवी हाथों से लेकिन मुश्किल है कुछ बचपाना.
जब तक हर भूखे को रोटी, निर्वस्त्रों को वस्त्र न होंगे,
जब तक नारी की आँखों में लाचारी के अश्रु जो होंगे.
जब तक किलकारी न होगी हर आँगन में बचपन की,
याद रखो भगवन मेरे घर, पकवानों के थाल न होंगे.
जब तक नारी की आँखों में लाचारी के अश्रु न होंगे
ReplyDeleteआपने लय मिलाने की कोशिश की और जो भाव लिखना चाहते हैं वो भी समझ आता है लेकिन इस लाइन को इस तरह से लिखने से तो भाव बदल रहा है... अगर बुरा ना लगे तो इस लाइन को अगर यूँ लिखा जाये तो कैसा रहेगा...?
जब तक नारी की आँखों में खुशियों के अश्रु न होंगे
हैं दोनों इंसान, मगर यह अंतर क्यों है ?
ReplyDeleteबेच रहे क्यों झूठ कि यह किस्मत की थाती....
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आज की सच्चाई को बयान करती उत्कृष्ट रचना। आज अमीरी गरीबी के बीच फासला बहुत बढ़ गया है। इस बढती खाई को पाटा जा सकता है , और हर आँगन में किलकारी गूंज सकती है। लेकिन जब तक असंवेदनशील सरकार होगी तब तक सिर्फ कागजों पर की महल बनेंगें और रोटियां सिकेंगी।
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अनामिका जी आपके सुझाव के लिए धन्यवाद. आवश्यक संशोधन कर दिया गया है. आभार..
ReplyDeleteकविता के भाव बहुत सुन्दर है ....वर्तमान परिस्थिति को लेकर बड़ी कसक महसूस हुई इस रचना में !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव ...अच्छी रचना ..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव है कविता के
ReplyDeleteआदरणीय कैलाश जी .... एक कठोर सत्य दर्शाती रचना ... बहुत सुंदर ...
ReplyDeleteYathartha ke dharatal se upji gahri samvedansheelta ko pradarshit karti bhavpurn rachna ke liye dhanyavaad
ReplyDeleteबेहद संवेदनशील रचना।
ReplyDeleteसुन्दर भाव .
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ReplyDeleteaaj bahut dino ke bad blog khola...
ReplyDeleteapani koi rachana post karane ka aaj bhi man nahi ho raha tha to soncha ki kuch padha hi jai..
saubhagya se jo pahali rachana aaj padi wo aapki hai aur vo nischit hi ek behatareen sundar rachana hai.
aabhar aapka
अपने परिवेश में मौजूद अंतर्विरोधों के झंझावातों से जूझते संवेदनशील मन की अंतर्व्यथा दर्शाती एक खूबसूरत और भाव प्रवण रचना. आभार.
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.
बहुत शशक्त रचना है...एक एक शब्द कलेजा छलनी कर रहा है...कड़वी तीखी मगर सच्ची बातें कहीं हैं आपने...इस अनुपम रचना के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें...
ReplyDeleteनीरज
आदरणीय कैलाश जी
ReplyDeleteनमस्कार !
आपकी रचना मनन को प्रेरित करती है ।
अच्छी श्रेष्ठ कविता के लिए आभार !
आपको और परिवारजनों को
दीवाली की हार्दिक शुभकामनाएं !
सरस्वती आशीष दें , गणपति दें वरदान !
लक्ष्मी बरसाएं कृपा , बढ़े आपका मान !!
- राजेन्द्र स्वर्णकार
chiantan ko jagrit karta aapki kavita atyant bhavpoorna aur sundar hai
ReplyDeleteइस ज्योति पर्व का उजास
ReplyDeleteजगमगाता रहे आप में जीवन भर
दीपमालिका की अनगिन पांती
आलोकित करे पथ आपका पल पल
मंगलमय कल्याणकारी हो आगामी वर्ष
सुख समृद्धि शांति उल्लास की
आशीष वृष्टि करे आप पर, आपके प्रियजनों पर
आपको सपरिवार दीपावली की बहुत बहुत शुभकामनाएं.
सादर
डोरोथी.
कहीं रोशनी इतनी आँखें चुंधियाँ जाती,
ReplyDeleteकहीं अँधेरा इतना, रजनी ठोकर खाती.
हैं दोनों इंसान, मगर यह अंतर क्यों है ?
बेच रहे क्यों झूठ कि यह किस्मत की थाती.
यथार्थ को साधारण शब्दों मैं अभिव्यक्त किया है आपने ....सुंदर सम्प्रेषण ...सार्थक भाव
दिवाली की हार्दिक शुभकामनायें
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए शुक्रिया आपने मुझे जिन्दगी में कुछ करने के लिए उत्साहित किया है , आशीर्वाद के रूप में अनुसरण करके , मैं आपके ख्यालों पर खरा उतर पाऊं ,ऐसी शुभकामना भी करना
ReplyDeleteek kadwa sach.
ReplyDeletebhaut hi samvedansheel avam ek kduve sach ka aaina dikhaati aapki yah kavita haqikat ko bayaan karti hai.
ReplyDeletebahut -bahut achhi prastuti.
shubh-kamnao ke saath---
poonam
बहुत महसूस किया आपने दुनिया जहां के दर्द को... और आपकी संवेदनाएं कविता में बह रही है .. बहुत सुन्दर... शुभकामनायें
ReplyDeleteBahut hi sundar bhaon se piroya gaya hai.Prastuti achhi lagi.kripaya mere blog par bhi aane ki kripa karen.
ReplyDeletesamvedansheel rachna.
ReplyDeleteबाऊ जी,
ReplyDeleteनमस्ते!
चोट करती हुई सशक्त रचना....
आशीष
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पहला ख़ुमार और फिर उतरा बुखार!!!
बहुत सुन्दर है
ReplyDeleteशर्मा जी!
ReplyDeleteये निराशावादी सवार क्यों? आपसे सहमत हूँ विसंगतियां, और कुसंस्कार अब युवा बन कर मुह चिढाने लगे हैं. परन्तु क्या हम उनसे हार कर -थककर बैठ जायेगे? एक दिया नहीं जलाएंगे? सोचिये दिया न जलाने से हम पर्कारान्तार से उनकी मददगार बन जायेंगे . जब चेतना जागृत होगी तो अपना ही विवेक प्रश्न करेगा, औचित्य का प्रश्न उठाएगा.... और अपनी ही नज़रों में गिरा देगा जागिये और हाथ में दीपक और दियासलाये सारे बुराइयूओन को जाल्ला डालिए, हम लोग भी साथ आते हैं आप को अकेले नहीं छोड़ेगे इस मुहिम में.
भूखे पेट, नग्न तन बच्चे, ढूंढ रहे कूड़े में खाना,
ReplyDeleteसाड़ी फटी झांकते तन पर,गिद्ध द्रष्टि का लगा निशाना.
देश की नारी की कहानी चोट करती हुई विहल वेदना
हर राइटर एक फाइटर होता है और यह आवश्यक है । रचनाकार का विद्रोही होना बहुत स्वाभाविक है । यह वस्तुतः देश - धर्म है । आग उगलने वाली यह रचना मुझे अच्छी लगी । आभार ।
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