महानगर की चकाचोंध
और कोलाहल में
सिमट कर रह गया अस्तित्व
कमरे की ठंडी मौन
चार दीवारों में.
आता है याद
गाँव के घर का आँगन
और गुनगुनी धूप,
न समाप्त होती बातें
खाते हुए भुनी मूंगफली.
ले तो आये थे गाँव से
अपने आप को
और इकठ्ठा कर लीं
सब सुख सुविधाएं चारों ओर,
पर भूल गये लाना
रिश्तों की गर्मी
और एक मुट्ठी धूप
आँगन की.
कैलाश शर्मा
और कोलाहल में
सिमट कर रह गया अस्तित्व
कमरे की ठंडी मौन
चार दीवारों में.
आता है याद
गाँव के घर का आँगन
और गुनगुनी धूप,
न समाप्त होती बातें
खाते हुए भुनी मूंगफली.
ले तो आये थे गाँव से
अपने आप को
और इकठ्ठा कर लीं
सब सुख सुविधाएं चारों ओर,
पर भूल गये लाना
रिश्तों की गर्मी
और एक मुट्ठी धूप
आँगन की.
कैलाश शर्मा
khoobsurat kavita...
ReplyDeleteपर भूल गये लाना
ReplyDeleteरिश्तों की गर्मी
और एक मुट्ठी धूप
आँगन की.
बहुत बढि़या।
बहुत ही प्यारी कविता सर बधाई और शुभकामनाएं
ReplyDeleteek muthhi dooop:)
ReplyDeleteek tukra aasmaan!!
sirf itna hi to armaan!!
Sach,wo guzare zamaane kitne yaad aate hain!
ReplyDeleteपर भूल गये लाना
ReplyDeleteरिश्तों की गर्मी
और एक मुट्ठी धूप
आँगन की.
बहुत खूब सर!
यही तो हम सब का सच है।
सादर
बहुत ही सुन्दर भाव हैं रिश्तो की गर्मी सच में अब नहीं रही|
ReplyDeleteपर भूल गये लाना
ReplyDeleteरिश्तों की गर्मी
और एक मुट्ठी धूप
आँगन की.
कितने कम शब्दों में कितना कुछ कह गये आप!!! बहुत ही सुंदर भावपूर्ण रचना
गुनगुनी धूप को तरसती आज की व्यस्त जीवन शैली
ReplyDeleteले तो आये थे गाँव से
ReplyDeleteअपने आप को
और इकठ्ठा कर लीं
सब सुख सुविधाएं चारों ओर,
पर भूल गये लाना
रिश्तों की गर्मी
और एक मुट्ठी धूप
आँगन की.
वाह, कमाल की पंक्तियाँ हैं !
आभार !
एक मुट्ठी धूप और इधर उधर से सूखी लकड़ियाँ जलाना ... मूंगफली की मंडली नहीं भूलती ... सारे भाई बहन , पापा अम्मा ....
ReplyDeleteअब तो धूप मुश्किल , रूम हीटर है
पर भूल गये लाना
ReplyDeleteरिश्तों की गर्मी
और एक मुट्ठी धूप
आँगन की………………इसके बाद कहने को क्या बचा? कितनी सहजता से सच कह दिया।
बहुत सुंदर,अब दोनों की कमी हैं ......
ReplyDeleteरिश्तों की गर्मी व एक मुट्ठी धूप। वास्तव में शहरों में यह नहीं है। यही कारण है कि ज्यादातर चेहरे पीले नजर आते हैं.
ReplyDeletelagta hai main bhi lana bhul gyi . kya khun..?
ReplyDelete:)
ReplyDeleteरिश्तों की गर्मी तो अब वाकयी में ठण्डी पड़ती जा रही है।
ReplyDeleteतल्ख़ रिश्तों और बिगडते पर्यावरण का सच....
ReplyDeleteबहुत सुन्दरता रचा है सर...
सादर...
ले तो आये थे गाँव से
ReplyDeleteअपने आप को
और इकठ्ठा कर लीं
सब सुख सुविधाएं चारों ओर,
पर भूल गये लाना
रिश्तों की गर्मी
और एक मुट्ठी धूप
आँगन की....
very appealing lines..
.
khoobsurat...
ReplyDeleteपर भूल गये लाना
ReplyDeleteरिश्तों की गर्मी
और एक मुट्ठी धूप
आँगन की.
..बहुत सुन्दर आज जीवन में इतना बिखराव आगया है कि एक मुट्ठी घूप और रिश्तो की गर्माहट के लिए तरस गए हैं....
अब क्या कहूं गांव से मोहल्ले तक वो
ReplyDeleteदोस्ती वो झगड़े और वो अपनापन कही नही है।
सोचता हूं मै कि काश आज से
कुछ साल पहले पैदा क्यों न हुआ
I see craving for a simple life in those words..
ReplyDeletereally sweet !!
एक मुट्ठी धूप की कमी निश्चित खलती है...!
ReplyDeleteअलमस्त जिंदगी का खूबसूरत फसाना.बेहतरीन.........
ReplyDeleteयहं तो धूप और रिश्तों की ऊष्मा दोनों की कमी है...... सुंदर लिखा
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता...भूनी मूँगफली हमें भी याद आ गई,वाह!
ReplyDeleteपर भूल गये लाना
ReplyDeleteरिश्तों की गर्मी
और एक मुट्ठी धूप
आँगन की...
Very True...
बहुत ही सुन्दर रचना ... ऐसा लगा हमारी ही बीते दिन की बात हो ...
ReplyDeletebahut si purani yaado ko yaad karwa diya aapki kavita ne........aabhar
ReplyDeleteखुले हुये आंगनों के साथ मन का खुलापन भी बीती बात हो गई !
ReplyDeleteआता है याद
ReplyDeleteगाँव के घर का आँगन
और गुनगुनी धूप,
न समाप्त होती बातें
खाते हुए भुनी मूंगफली.
सर्द ऋतू के गाँव की याद ताज़ा हो गई, काफी सालों से दक्षिण भारत में रहते रहते सर्दी का
अहसास ही भूल गया हूँ. मेरे गाँव में भी आइये . http://www.guglwa.com/
बहुत सुंदर भाव । कंक्रीट के जंगलों की सच्चाई ।
ReplyDeletebahut hi sunder…!
ReplyDeletetouching post
ReplyDeleteएक मुट्ठी धूप
आँगन की
कल 19/12/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
गाँव के माहोल बहुत अच्छा किया है वर्णन और पहुंचा दिया गाँव में बीते पुराने दिनों की यादों में |सुन्दर रचना |बधाई
ReplyDeleteआशा
रिश्तों की गर्मी और मुठ्ठी भर धूप गांवों में ही मिल सकती है।
ReplyDeleteएक उत्तम कविता।
sach kaha aapne shahri maahol me vo baat nahin jo gaav mein hoti hai...bahut achchi rachna..aabhar
ReplyDeleteरिश्तों की गमी और एक मुट्ठी धुप ... वाह ! क्या बात है !
ReplyDeleteआपने तो अपनी कविता से मेरे मन की बात व दर्द बयान कर दिया, इसके लिये आपका आभार।
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर कविता...
ReplyDeleteदिल को छू गयी.
सादर.
सुन्दर भाव समेटे दिल के दर्द को बखूबी शब्दों में पिरोया है! ख़ूबसूरत रचना!
ReplyDeleteवाह,बहुत खूब.
ReplyDeleteऔर एक मुट्ठी धूप
ReplyDeleteआँगन की......wah...bahut sachchi baat.
पर भूल गये लाना
ReplyDeleteरिश्तों की गर्मी
और एक मुट्ठी धूप
आँगन की.
बहुत खूब सर जी
दुनिया की चकाचोंध में हकीक़त के मायने बहुत पीछे छुट जाते हैं.
बहुत सुंदर रचना बढ़िया प्रस्तुति,.....
ReplyDeleteमेरी नई पोस्ट की चंद लाइनें पेश है....
आफिस में क्लर्क का, व्यापार में संपर्क का.
जीवन में वर्क का, रेखाओं में कर्क का,
कवि में बिहारी का, कथा में तिवारी का,
सभा में दरवारी का,भोजन में तरकारी का.
महत्व है,...
पूरी रचना पढ़ने के लिए काव्यान्जलि मे click करे
... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।
ReplyDeleteपर भूल गये लाना
ReplyDeleteरिश्तों की गर्मी
और एक मुट्ठी धूप
आँगन की…………ye bhool badi dukhdayee hai...
पर भूल गये लाना
ReplyDeleteरिश्तों की गर्मी
और एक मुट्ठी धूप
आँगन की.
bahut si bahav bhari line hai ye..
bilkul gaon ki yaad aa gayi kailash ji :)
waah waah ... bahut sundar.. bahut dino baad aisi kavita padhi ki aatma khush hui.. bahut sundar..
ReplyDeletewww.coffeefumes.blogspot.com