करते जब खिलवाड़
अस्तित्व से प्रकृति
की
विकृत करते उसका रूप
विकास के नाम पर,
अंतस का आक्रोश
और आँखों के आंसू
बन जाते कभी सैलाब
कभी भूकंप
और बहा ले जाते
जो भी आता राह में.
समझो घुटन को
प्रकृति की चीत्कार को
दबी कंक्रीट के ढेर के नीचे
तरसती एक ताज़ा सांस को,
प्रकृति नहीं तुम्हारी दुश्मन
फटने लगती छाती दर्द से
देख कर दर्द अपनी संतान का.
संभलो,
यदि संभल सको,
अब भी.
....कैलाश शर्मा
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 30 - 04 - 2015 को चर्चा मंच चर्चा - 1961 { मौसम ने करवट बदली } में पर दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
आभार..
Deleteभावपूर्ण प्रस्तुति ...संभलो, यदि संभल सको, अब भी.....
ReplyDeleteप्रकृति का प्रकोप या कुदरत का कहर चाहे जिस नाम से पुकारें आखिर इसका कारण तो हम ही हैं, हमें ही उसकी वेदना को समझना होगा... सार्थक सन्देश
ReplyDeleteसंभलना है पर किसको?
ReplyDeleteसार्थक लेखन
ReplyDeleteसार्थक सन्देश !
ReplyDeletesarthakta liye sashakt prastuti ....
ReplyDeleteसार्थक प्रस्तुति कैलाश जी |
ReplyDeleteबोध - गम्य - प्रस्तुति । सम्यक - सटीक , अन्तर्मन को छूती हुई - झकझोरती हुई , जीवन्त - रचना ।
ReplyDeleteप्रकृति वाकई पुकार रही है
ReplyDeleteयाचक आँखों से निहार रही है
बार बार संकेत दे रही है
क्या कोई है क्या कोई है
___________________
प्रकृति का संकेत आपने सब तक भेजा आभार । एक और सुन्दर सार्थक रचना
कुदरत के क़हर पर सुंदर, सटीक और सार्थक रचना...प्रकृतिक आपदाएँ हमें किसी न किसी रूप में सचेत करती हैं कि हम संभलें और उसका दोहन बंद करें...
ReplyDeleteये खिलवाड़ पता नहीं कितने सालों से कर रहा है इंसान और इतका कोई अंत भी दिखाई नहीं देता ...
ReplyDeleteप्राकृति समय समय पर चेताती है पर कोई देखता नहीं इसके संकेत ... इश्वर रहम करे ...
सही कहा है आपने..प्रकृति कभी नहीं चाहती उसके पुत्रों का ऐसा विनाश..मानव को ही चेतना होगा..
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना.
ReplyDeleteनई पोस्ट : तेरे रूप अनेक
सत्य को उजागर करती सुन्दर रचना
ReplyDeleteसंभलना ही होगा मनुष्य को ।
ReplyDeleteसमय की पुकार है यह।
समझो घुटन को
ReplyDeleteप्रकृति की चीत्कार को
दबी कंक्रीट के ढेर के नीचे
तरसती एक ताज़ा सांस को,
प्रकृति नहीं तुम्हारी दुश्मन
फटने लगती छाती दर्द से
देख कर दर्द अपनी संतान का.
संभलो,
यदि संभल सको,
अब भी.
संभल जाएँ तो ही बेहतर ! लेकिन धीरे धीरे सब पुराने ढर्रे पर आ जाते हैं ! भूल जाते हैं बीती हुई विनाशलीला को !
काश मानव इतना समझदार हो होता ....
ReplyDeleteHello I'am Chris !
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जो नियंत्रित कर सकते है उस ओर अवश्य प्रयास करने चाहिए . सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeleteसुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
ReplyDeleteशुभकामनाएँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
प्रकृति के साथ इन्सान को हमेशा मँहगी पड़ी है।
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक प्रस्तुति।
प्रकृति के साथ छेड़छाड़ इंसान को बहुत मँहगी पड़ी है।
ReplyDeleteबहुत ही सटीक प्रस्तुति शर्मा जी।
प्रकृति के साथ छेड़छाड़ इंसान को बहुत मँहगी पड़ी है।
ReplyDeleteबहुत ही सटीक प्रस्तुति शर्मा जी।
सुन्दर और सामयिक प्रस्तुति
ReplyDeleteHello!
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nice poetry
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