बढ़ते ही कुछ आगे सीढ़ियों पर
हो जाते विस्मृत संबंध व रिश्ते,
निकल जाते अनज़ान हो कर
बचपन के हमउम्र साथियों से
जो खेल रहे क्रिकेट
नज़दीकी मैदान में।
हो जाते विस्मृत संबंध व रिश्ते,
निकल जाते अनज़ान हो कर
बचपन के हमउम्र साथियों से
जो खेल रहे क्रिकेट
नज़दीकी मैदान में।
खो जाती
स्वाभाविक हँसी
बनावटी
मुखोटे के अन्दर,
खो जाता अन्दर का छोटा बच्चा
अहम् की भीड़ में।
विस्मृत हो जातीं पिछली सीढ़ियां
जिनके बिना नहीं अस्तित्व
किसी अगली सीढ़ी का।
खो जाता अन्दर का छोटा बच्चा
अहम् की भीड़ में।
विस्मृत हो जातीं पिछली सीढ़ियां
जिनके बिना नहीं अस्तित्व
किसी अगली सीढ़ी का।
कितना
कुछ खो देते
अपने और
अपनों को,
आगे बढ़ने की दौड़ में।
आगे बढ़ने की दौड़ में।
...कैलाश शर्मा
वाह ....सटीक चित्रण
ReplyDeleteवाह ....सटीक चित्रण
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव ...बधाई ...सादर
ReplyDeleteविस्मृत हो जातीं पिछली सीढ़ियां
जिनके बिना नहीं अस्तित्व
किसी अगली सीढ़ी का।
bahut sundar bhav ..saty hai jeevan bhi ek sidhi ke saman hai .....anhin ghumvdar path
ReplyDeleteसत्य है ! आगे सीढियाँ चढ़ते हुए पीछे कितना कुछ महत्वपूर्ण छूटता जाता है यह समय रहते कहाँ समझ पाता है इंसान ! अत्यंत गहन एवं चिंतनीय अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteसीढी चढ्ते समय लोगो से व्यवहार ये सोच कर करना चाहिये कि लौट्ते समय यही लोग रास्ते मे मिलेगे
पीछा समेटते हुए आगे बढ़ना चाल को धीरे कर देता है पर रिश्तों को मजबूत ... पर आज की रेस में कोई इसे देखना नहीं चाहता ... गहरी रचना ...
ReplyDeleteआज के आपा-धापी जीवन का जीवंत प्रस्तुतिकरण, इस सुंदर रचना पर आपको बधाई
ReplyDeleteसच ही है आगर चलते चलते बहुत कुछ छूट जाता है पीछे
ReplyDeleteसच ही है आगर चलते चलते बहुत कुछ छूट जाता है पीछे
ReplyDeleteखो जाती स्वाभाविक हँसी
ReplyDeleteबनावटी मुखोटे के अन्दर,
खो जाता अन्दर का छोटा बच्चा
अहम् की भीड़ में।
वाह यथार्थ के करीब की अभिव्यक्ति।
खो जाती स्वाभाविक हँसी
ReplyDeleteबनावटी मुखोटे के अन्दर,
खो जाता अन्दर का छोटा बच्चा
अहम् की भीड़ में।
वाह यथार्थ के करीब की अभिव्यक्ति।
कभी कभार आगे बढ़ जाने पर वापिस लौटना नामुमकिन सा लगता हैं:-(
ReplyDeleteअच्छी रचना सर!!
भावपूर्ण.
ReplyDeleteअपने निजी आस्तित्व की खोज में
अपनत्व के खम्डहरों पर चलते रहे
बहुत देर हो जाएगी और---
खंडहरों के भी रेगिस्तान हो जाएगें--
खो जाती स्वाभाविक हँसी
ReplyDeleteबनावटी मुखोटे के अन्दर,
खो जाता अन्दर का छोटा बच्चा
अहम् की भीड़ में।
बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.
सही कहा। इस आगे बढ़ने की दौड़ में न जाने क्या-क्या छूट चुका है।
ReplyDeleteसचमुच अकेलेपन का कारण अहम ही तो है
ReplyDeleteक्या खोया क्या पाया ...सुन्दर ,सटीक यथार्थ विवेचन !
ReplyDeleteयही होता है - लेकिन जान-समझ कर भी इंसान कुछ कर नहीं पाता,कैसी बेबसी1
ReplyDeleteVery nice post.. & welcome to my new blog post
ReplyDeleteसच ही तो है। हमारे ही कितने साथी हमें छोड जाते हैं, या हम से छूट जाते हैं।
ReplyDeleteखो जाती स्वाभाविक हँसी
ReplyDeleteबनावटी मुखोटे के अन्दर,
खो जाता अन्दर का छोटा बच्चा
अहम् की भीड़ में।
और ये अंतर धीरे धीरे बढ़ता ही जाता है और जितना अंतर बढ़ता है उतना ही आदमी अकेला होता जाता है ! जब तक पीछे मुड़कर देखता है पुरानी सीढ़ियां , पुराने रिश्ते अदृश्य हो चुके होते हैं ! शानदार पंक्तियाँ आदरणीय शर्मा जी
आगे बढ़ने की दोड़ का शायद यही साइड इफैक्ट है सर। आगे बढ़ेगे तो अपने छूट जाएंगे और नहीं बढ़ेगे तो अपने छोड़ जाएंगे। क्या कहते हो सर जी? आपकी कविता बहुत पसंद आई सर जी।
ReplyDeleteआगे बढ़ने की दोड़ का शायद यही साइड इफैक्ट है सर। आगे बढ़ेगे तो अपने छूट जाएंगे और नहीं बढ़ेगे तो अपने छोड़ जाएंगे। क्या कहते हो सर जी? आपकी कविता बहुत पसंद आई सर जी।
ReplyDeleteयही तो विडम्बना है. लोग साथ चलना भूल गए हैं.
Deleteकितना सही कहा आपने कि आगे बढ़ने ही होड़ में हम कितना कुछ खो देते हैं।
ReplyDeleteसुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...
आगे बढने की दौड में कितना कुछ पीछे छूट जाता है.
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति.
सटीक प्रस्तुति
ReplyDeleteवाह आज के प्रतिस्पर्धा युग की सबसे कटु देन ,सादर प्रणाम आदरणीय सर जी ।
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