भटकता तलाश में शून्य की
घिर जाता और भी
अहम् के चक्रव्यूह में,
अपनी हर सोच
अपनी हर उपलब्धि
कर देती जटिल और भी
चक्रव्यूह के हर घेरे को।
घिर जाता और भी
अहम् के चक्रव्यूह में,
अपनी हर सोच
अपनी हर उपलब्धि
कर देती जटिल और भी
चक्रव्यूह के हर घेरे को।
अहम् खींच देता रेखा
बीच में अहम् और 'मैं' के,
अहम् की ऊँची दीवारों में
विस्मृत हो जाता 'मैं'
अंतस के किसी कोने में,
अहम् का चक्रव्यूह कर देता दूर
स्वयं अपने से और अपनों से
और डूबने लगता मन
असीम गह्वर में अतृप्त शून्य के।
बीच में अहम् और 'मैं' के,
अहम् की ऊँची दीवारों में
विस्मृत हो जाता 'मैं'
अंतस के किसी कोने में,
अहम् का चक्रव्यूह कर देता दूर
स्वयं अपने से और अपनों से
और डूबने लगता मन
असीम गह्वर में अतृप्त शून्य के।
तलाश शून्य की
जब होती प्रारंभ और अंत 'मैं' पर
होने लगती पहचान
स्वयं अपने से और अपनों से
और अनुभव एक अद्भुत शून्य का
जहाँ खो देता अस्तित्व अहम्
गहन शून्य 'मैं' के आह्लाद में।
होने लगती पहचान
स्वयं अपने से और अपनों से
और अनुभव एक अद्भुत शून्य का
जहाँ खो देता अस्तित्व अहम्
गहन शून्य 'मैं' के आह्लाद में।
...©कैलाश शर्मा
अत्यंत गहन एवं सारपूर्ण अभिव्यक्ति ! शून्य की यह तलाश भला किसकी पूरी हुई है !
ReplyDeleteऔर अनुभव एक अद्भुत शून्य का
ReplyDeleteजहाँ खो देता अस्तित्व अहम्
गहन शून्य 'मैं' के आह्लाद में।
...मैं की ख़ुशी क्षणिक है यह हमें गहरे अनुभव से ही पता चलता है...
बहुत सुन्दर अध्यात्मपरक प्रस्तुति
अद्भूत चिंतन, आपके इस उद्गार के लिये आपको कोटिश बधाई
ReplyDeleteगहन अभिव्यक्ति , बहुत उम्दा कविता
ReplyDeleteगहन विचारों की खूबसूरत काव्यात्मक अभिव्यक्ति ।बहुत खूब।
ReplyDeleteवाकई शून्य में खोजाना अपने आप को पा लेने जैसा होता है । गहन भाव अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव.
ReplyDeleteअहम् खींच देता रेखा
ReplyDeleteबीच में अहम् और 'मैं' के,
अहम् की ऊँची दीवारों में
विस्मृत हो जाता 'मैं'
अंतस के किसी कोने में,
अहम् का चक्रव्यूह कर देता दूर
स्वयं अपने से और अपनों से
और डूबने लगता मन
असीम गह्वर में अतृप्त शून्य के।
गहन अभिव्यक्ति , बहुत शानदार कविता
शुभ लाभ । Seetamni. blogspot. in
ReplyDeleteगहन अभिव्यक्ति, बहुत सुंदर भाव.
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (25-10-2015) को "तलाश शून्य की" (चर्चा अंक-2140) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार..
Deleteबहुत सुंदर !
ReplyDeleteआपकी कवितायेँ बहुत अच्छी लगती हैं...इतनी गूढ़ बातें आप सरल शब्दों में कह जाते हैं..
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteAti sunder shoony ki pehchan.
ReplyDeleteअहम का मैं में प्रवेश समाप्त कर देता है अस्तित्व.
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना.
‘मैं’ को पहचान लेने से शून्य की खोज पूर्ण हो जाती है।
ReplyDeleteशून्यता का अहसास कराती बहुत अच्छी कविता ।
गहन भाव, उम्दा रचना
ReplyDeleteचल पनघट
ReplyDeleteतूं चल पनघट में तेरे पीछे पीछे आता हूँ
देखूं भीगा तन तेरा ख्वाब यह सजाता हूँ
मटक मटक चले लेकर तू जलभरी गगरी
नाचे मेरे मन मौर हरपल आस लगाता हूँ
जब जब भीगे चोली तेरी भीगे चुनरिया
बरसों पतझड़ रहा मन हरजाई ललचाता हूँ
लचक लचक कमरिया तेरी नागिनरूपी बाल
आह: हसरत ना रह जाये दिल थाम जाता हूँ
चल पनघट
ReplyDeleteतूं चल पनघट में तेरे पीछे पीछे आता हूँ
देखूं भीगा तन तेरा ख्वाब यह सजाता हूँ
मटक मटक चले लेकर तू जलभरी गगरी
नाचे मेरे मन मौर हरपल आस लगाता हूँ
जब जब भीगे चोली तेरी भीगे चुनरिया
बरसों पतझड़ रहा मन हरजाई ललचाता हूँ
लचक लचक कमरिया तेरी नागिनरूपी बाल
आह: हसरत ना रह जाये दिल थाम जाता हूँ
गहन चिंतन
ReplyDeleteविचारों की खूबसूरत काव्यात्मक अभिव्यक्ति ।बहुत खूब।
ReplyDeleteबहुत ही अच्छे से आपने एहम और मै को रचना में पिरो कर समझा दिया है । बहुत सुंदर ।
ReplyDeleteवक़्त
ReplyDeleteना जाने कब कैसे वक़्त बे साख्ता उड़ा
जैसे पंख फैलाये आसमां में फाख्ता उड़ा
मिट गयी ना जाने कैसी कैसी हस्तियां
जब जब जिससे भी इसका वास्ता पड़ा
बदलने चले थे कई सिकंदर और कलंदर
ख़ाक हुए जिसकी राह मैं यह रास्ता पड़ा
मत कर गुरूर अपनी हस्ती पर ऐ RAAJ
कुछ पल उसे देदे सामने जो फ़कीर खड़ा
सटीकता के साथ लेखन संग मनोभावों का चित्रण |
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