चढ़ते ही कुछ ज्यादा सीढ़ी अपनों से
हो जाते विस्मृत संबंध व रिश्ते,
निकल जाते अनज़ान हो कर
बचपन के हमउम्र साथियों से
जो खेल रहे होते क्रिकेट
नज़दीकी मैदान में।
हो जाते विस्मृत संबंध व रिश्ते,
निकल जाते अनज़ान हो कर
बचपन के हमउम्र साथियों से
जो खेल रहे होते क्रिकेट
नज़दीकी मैदान में।
खो जाती स्वाभाविक हँसी
बनावटी मुखोटे के अन्दर,
खो जाता अन्दर का छोटा बच्चा
अहम् की भीड़ में।
विस्मृत हो जातीं पिछली सीढियां
जिनके बिना नहीं अस्तित्व
किसी अगली सीढ़ी का।
बनावटी मुखोटे के अन्दर,
खो जाता अन्दर का छोटा बच्चा
अहम् की भीड़ में।
विस्मृत हो जातीं पिछली सीढियां
जिनके बिना नहीं अस्तित्व
किसी अगली सीढ़ी का।
कितना कुछ खो देते
अपने और अपनों को,
आगे बढ़ने की दौड़ में।।
अपने और अपनों को,
आगे बढ़ने की दौड़ में।।
...©कैलाश शर्मा
सच में जैसे खोने का ही दौर चल रहा है।
ReplyDeleteअति सुन्दर कविता।बहुत खूब।
ReplyDeleteअति सुन्दर कविता।बहुत खूब।
ReplyDeleteसत्य के समीप एक बहुत ही सुन्दर रचना !
ReplyDeleteवाकई सबको साथ लेकर चलने की कला सीखनी पडती है..तभी तो होगा सबका विकास..
ReplyDeleteAwesome... Sir
ReplyDeleteAwesome... Sir
ReplyDeleteवाह, बहुत ही सुंदर रचना।
ReplyDeleteशर्मा जी, नमस्कार । बेहद भावपूर्ण और सटीक रचना है । बधाई ...
ReplyDeleteBahut sunder rachna....
ReplyDeleteWelcome to my blog on my new post.
अति सुंदर रचना ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना..
ReplyDeletebahut hi sunder kavita hai
ReplyDeleteपाने की चाह में हम बहुत कुछ खोते जा रहे हैं ।
ReplyDeleteअनुभव - जन्य पीडा ।