भूल गयी
गौरैया आँगन,
मूक हुए हैं कोयल के स्वर,
ठूठ हुआ आँगन का बरगद,
नहीं बनाता अब कोई घर।
मूक हुए हैं कोयल के स्वर,
ठूठ हुआ आँगन का बरगद,
नहीं बनाता अब कोई घर।
लगती
नहीं न अब चौपालें,
शोर नहीं बच्चों का होता।
झूलों को अब डाल तरसतीं,
सावन भी अब सूना होता।
शोर नहीं बच्चों का होता।
झूलों को अब डाल तरसतीं,
सावन भी अब सूना होता।
पगडंडी
सुनसान पडी है,
नहीं शहर से कोई आता।
कैसी यह मनहूस डगर है,
नहीं लौटता जो भी जाता।
नहीं शहर से कोई आता।
कैसी यह मनहूस डगर है,
नहीं लौटता जो भी जाता।
कंकरीट
के इस जंगल में,
अपनेपन की छाँव न पायी।
आँखों से कुछ अश्रु ढल गये,
आयी याद थी जब अमराई।
अपनेपन की छाँव न पायी।
आँखों से कुछ अश्रु ढल गये,
आयी याद थी जब अमराई।
पंख कटे
पक्षी के जैसे,
सूने नयन गगन को तकते।
ऐसे फसे जाल में सब हैं,
मुक्ति की है आस न करते।
ऐसे फसे जाल में सब हैं,
मुक्ति की है आस न करते।
...©कैलाश शर्मा
दिनांक 28/02/2017 को...
ReplyDeleteआप की रचना का लिंक होगा...
पांच लिंकों का आनंदhttps://www.halchalwith5links.blogspot.com पर...
आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...
आप की प्रतीक्षा रहेगी...
आभार...
Deleteखुबसूरत द्वन्द मनोभावों को प्रस्तुत करती कविता।
ReplyDeleteशहर और गाँव के जीवन के अंतर को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया है, विकास के नाम पर आज गाँव सिकुड़ते जा रहे हैं, बड़े-बड़े निर्माण कार्य हो रहे हैं, शायद नई पीढ़ी के बच्चों को अमराई और पनघट जैसे शब्दों के अर्थ शब्दकोश में ही ढूँढने पड़ेंगे. सच यही है कि समय का पहिया आगे ही आगे बढ़ता है
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना।
ReplyDeleteman ke bhaav likh diye aapne ... koi lout ke nahi ata ...
ReplyDeleteवाह खूब
ReplyDeleteबहुत सुंदर ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर ।
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "मैं सजदा करता हूँ उस जगह जहाँ कोई ' शहीद ' हुआ हो ... “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteआभार ...
DeleteBahut khoobsurati ke sath manobhavon ka chitran kiya hai aapne .
ReplyDeleteपगडंडी सुनसान पडी है,
ReplyDeleteनहीं शहर से कोई आता।
कैसी यह मनहूस डगर है,
नहीं लौटता जो भी जाता।
इस दर्द को मेरे सहित बहुतों ने झेला होगा लेकिन ..........कुछ तो मजबूरियां रही होंगी , कोई यूँ ही बेवफा नही होता
समय सब-कुछ उलट-पलट कर देता है ।
ReplyDeleteमन पर अमिट छाप छोड़ती रचना ।
गाँव सूने सूने से हो रहे हैं।लोग शहरी हो गये है
ReplyDeleteकितना सटीक सुन्दर शब्दचित्र।
वाह !!
बहुत ही उम्दा
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा
ReplyDeleteभूल गई गौरैया आंगन यह बात एक बार फिर आपने याद दिला दी। मुझे गौरैया की कमी बहुत सालती है। बहुत ही अच्छी रचना प्रस्तुत की है आपने। इसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (05-03-2017) को
ReplyDelete"खिलते हैं फूल रेगिस्तान में" (चर्चा अंक-2602)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
आभार...
Deleteसच कहूं तो यह कविता पढ़ते समय मैं एक अलग ही दुनिया में खो गया था .... शायद वो बचपन था जिसमे ये सब घटनाएं हुआ करती थीं but अब नहीं ... kitne achchhe din the wo. :)
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया article है ..... ऐसे ही लिखते रहिये और मार्गदर्शन करते रहिये ..... शेयर करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। :) :)
बहुत सुन्दर रचना प्रस्तुति
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है http://rakeshkirachanay.blogspot.in/2017/03/9.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteकंकरीट के इस जंगल में,
ReplyDeleteअपनेपन की छाँव न पायी।
आँखों से कुछ अश्रु ढल गये,
आयी याद थी जब अमराई।
आज की दुनिया का सबसे भयावह और कडवा सत्य छुपा है इन पंक्तियों में | सचमुच कंक्रीट के इन घरौंदों में सर पर छत पाने का सुख तो है पर अपनी जड़ों और प्रकृति से कटने का असहनीय दर्द भी कम नहीं -- जिसे आपने बहुत ही सरल और मर्म स्पर्शी शब्दों में उकेरा है -------- -
Ati उत्तम racha
ReplyDeleteValentine Gifts Online
ReplyDelete