तुम संबल
हो, तुम आशा हो,
तुम जीवन की परिभाषा हो।
शब्दों
का कुछ अर्थ न होता,
उन से जुड़ के तुम भाषा हो।
जब भी
गहन अँधेरा छाता,
जुगनू बन देती आशा हो।
जीवन
मंजूषा की कुंजी,
करती तुम दूर निराशा हो।
नाम न हो
चाहे रिश्ते का,
मेरी जीवन अभिलाषा हो।
...©कैलाश शर्मा
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (08-07-2019) को "चिट्ठों की किताब" (चर्चा अंक- 3390) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार...
Deleteजुगनू की प्रभा भला कब तक दिशा दिखायेगी..दुनियावी प्रेम ऐसे ही होते हैं..सूरज जब तक न मिले मार्ग नहीं मिलता...
ReplyDeleteवाह!!बहुत खूब!
ReplyDeleteबहुत सुंदर एहसास पिरोए सुंदर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteदिल पे दस्तक देती....एक सुखद अहसास की भांति
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ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना 10 जुलाई 2019 के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
आभार...
Deleteबहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteजब भी गहन अँधेरा छाता,
ReplyDeleteजुगनू बन देती आशा हो।
बहुत ही लाजवाब
वाह!!!
अच्छी ग़ज़ल... शुभकामनायें
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर अभिलाषा
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