पंचम अध्याय
(कर्मसन्यास-योग - ५.११-२०)
तन, मन, बुद्धि और इन्द्रिय से
सब फल की आसक्ति त्याग कर.
करता कर्म है योगी केवल
आत्म शुद्धि को ध्येय मान कर. (११)
कर्म फलों की आसक्ति तज
योगी परम शान्ति है पाता.
फल आसक्ति, कामना जिसमें,
निश्चय बंधन में बंध जाता. (१२)
मन से त्याग सभी कर्मों को
परम सुखों को प्राप्त है करता.
नौ द्वारों के शहर में रह कर
कर्म न करवाता, न करता. (१३)
कर्तापन, कर्म, कर्मफल का
ईश्वर सृजन नहीं है करता.
यह प्रकृति है इन सब की
जिनसे वह यह कर्म है करता. (१४)
ईश्वर किसी का पाप न लेता
और ग्रहण न पुण्य ही करता.
ज्ञान ढका अज्ञान से जिसका
वह किंकर्तव्य विमूढ़ है रहता. (१५)
ब्रह्म ज्ञान से लेकिन जिनका
है अज्ञान नष्ट हो जाता.
ज्ञान, सूर्य सम उन जन को,
परम तत्व प्रकाश दिखलाता. (१६)
बुद्धि है स्थिर परम ब्रह्म में
मन निष्ठा से वहाँ लगाता.
समस्त पाप ज्ञान में धुलते
परम मोक्ष को है वह पाता. (१७)
विद्या विनय युक्त ब्राह्मण,
गौ, हाथी या हो कुत्ता.
चाहे हो चांडाल सामने,
पंडित उनमें समदर्शी रहता. (१८)
जिनका मन समत्व में स्थित,
जीतें पुनर्जन्म इसी जन्म में.
क्योंकि ब्रह्म है सम, निर्दोषी,
वे समदर्शी स्थित हैं ब्रह्म में. (१९)
न प्रसन्न प्रिय वस्तु प्राप्त कर,
अप्रिय पा उद्विग्न न होता.
स्थिर बुद्धि, मोहमुक्त वह ज्ञानी,
परम ब्रह्म में स्थित होता. (२०)
...........क्रमशः
कैलाश शर्मा
न प्रसन्न प्रिय वस्तु प्राप्त कर,
ReplyDeleteअप्रिय पा उद्विग्न न होता.
स्थिर बुद्धि, मोहमुक्त वह ज्ञानी,
परम ब्रह्म में स्थित होता.
बेहद सशक्त भाव लिए बहुत ही अच्छी प्रस्तुति .. आभार
बहुत सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteन प्रसन्न प्रिय वस्तु प्राप्त कर,
ReplyDeleteअप्रिय पा उद्विग्न न होता.
स्थिर बुद्धि, मोहमुक्त वह ज्ञानी,
परम ब्रह्म में स्थित होता.
यदि सुख को नहीं त्यागा तो दुःख से भी मुक्त नहीं हो सकते क्योंकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं..आभार इस सुंदर ज्ञान के लिये !
बहुत सुन्दर...मनभावन प्रस्तुति..
ReplyDeleteसादर
अनु
न प्रसन्न प्रिय वस्तु प्राप्त कर,
ReplyDeleteअप्रिय पा उद्विग्न न होता.
स्थिर बुद्धि, मोहमुक्त वह ज्ञानी,
परम ब्रह्म में स्थित होता. (२०)
बहुत खूबसूरत विश्लेषण
बुद्धि है स्थिर परम ब्रह्म में
ReplyDeleteमन निष्ठा से वहाँ लगाता.
समस्त पाप ज्ञान में धुलते
परम मोक्ष को है वह पाता.,,,,,,
बहुत सुंदर सशक्त प्रस्तुति,,,,,,
RECENT POST,,,इन्तजार,,,
सहज सरल उत्कृष्ट प्रस्तुति .बेहतरीन भावानुवाद .
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति ...!!
ReplyDeleteutkrisht prastuti
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति....
ReplyDeleteसुंदर और बहुत महत्त्वपूर्ण शृंखला सर...
ReplyDeleteसादर।
KHOOB ! BAHUT KHOOB !! PADH KAR TRIPT HO GAYAA HUN .
ReplyDeleteKHOOB ! BAHUT KHOOB !! PADH KAR TRIPT HO GAYAA HUN .
ReplyDeleteअकथ द्वन्द्व में पड़े हुये हम।
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत ही आनन्द दायक लेखन !
ReplyDeleteइस भावानुवाद से गीता के गूढ़ रहस्य उद्घाटित हो रहे हैं।
ReplyDeleteबहुत सुंदर लेखन. बधाई इस अभियान के लिये.
ReplyDeleteगीता का ये ज्ञान अगर मनुष्य को हो पाता तो निःसंदेह दुनिया में अज्ञानता न रहती न अंधविश्वास. सुन्दर सार्थक पंक्तियाँ...
ReplyDeleteईश्वर किसी का पाप न लेता
और ग्रहण न पुण्य ही करता.
ज्ञान ढका अज्ञान से जिसका
वह किंकर्तव्य विमूढ़ है रहता.
शुभकामनाएँ.