चतुर्थ अध्याय
(ज्ञान-योग - ४.२०-३२)
आसक्ति हीन कर्म फल में
सदा निराश्रित तृप्त है रहता.
सदा कर्म करने पर भी वह,
कुछ भी कर्म नहीं है करता.
त्याग परिग्रह, काम निवृत्त हो,
चित्त, शरीर नियंत्रित रखता.
केवल शरीर से कर्म भी करके
नहीं पाप बंधन में वह बंधता.
हो संतुष्ट, मिले जो कुछ भी,
द्वंद्व, द्वेष से ऊपर रहता.
बंधन मुक्त है वह हो जाता,
हार जीत में जो सम रहता.
राग द्वेष आसक्ति रहित है,
चित्त ज्ञान में स्थित होता.
यज्ञ समझ कर कर्म करे जो,
उसका कर्म विलीन है होता.
साधन यज्ञ व हविष ब्रह्म है,
और यज्ञ अग्नि भी ब्रह्म है.
है एकाग्रता ब्रह्म में जिसकी,
होता उसका प्रातव्य ब्रह्म है.
देवों को प्रसन्न करने को
कुछ योगी जन यज्ञ हैं करते.
ब्रह्म अग्नि में अन्य हैं योगी
आत्म ब्रह्म को आहुत करते.
अन्य श्रवण आदि इन्द्रिय को
संयम अग्नि में आहुत करते.
अन्य शब्द आदि विषयों को
इन्द्रिय अग्नि में अर्पित करते.
अन्य सर्व इन्द्रिय कर्मों को
और प्राण शक्ति कर्मों को.
अर्पित करते ज्ञान प्रज्वलित
आत्म संयमी योगाग्नि को.
यज्ञ करे हैं धन से और तप से,
मन पर संयम कुछ योग मानते.
स्वाध्याय, ज्ञान यज्ञ कुछ करते,
यति लोग स्वव्रत तीक्ष्ण बनाते.
प्राण, वायु पर करें नियंत्रण,
आती जाती सांस रोकते.
पूरक, कुम्भक, रेचक द्वारा
प्राणायाम यज्ञ हैं करते.
भोज सूक्ष्म मात्र में करके
प्राणों को प्राणों में होमते.
सभी यज्ञ के ज्ञाता हैं वे,
पाप यज्ञ अग्नि में होमते.
यज्ञ शेष अन्न को खाकर
ब्रह्म सनातन जन हैं पाते.
ब्रह्म लोक है मिलेगा कैसे
बिना यज्ञ यह लोक न पाते?
बहु विधि यज्ञ विहित वेदों में,
उन्हें कर्मजनित तुम समझो.
जान लिया तुमने यदि इतना,
बंधन मुक्त स्वयं को समझो.
.........क्रमशः
कैलाश शर्मा
sundar prastuti
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा अनुवाद सर ! भाव खिल कर बाहर आ रहे हैं
ReplyDeleteसादर
भरत
बहुत सुंदर .... यह सम भाव ही तो नहीं रहता ...
ReplyDeleteबहुत लाजबाब सुन्दर अनुवाद,,,,
ReplyDeleteRECENT POST...: दोहे,,,,
समझनेवाली बात है ये...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना...
बहुत सुन्दर ग्यान वर्धक पोस्ट..आभार कैलाश जी..
ReplyDeleteगहरी बातें.
ReplyDeleteबहु विधि यज्ञ विहित वेदों में,
ReplyDeleteउन्हें कर्मजनित तुम समझो.
जान लिया तुमने यदि इतना,
बंधन मुक्त स्वयं को समझो.
वाह ...बहुत सुन्दर प्रस्तुति आपके द्वारा लगातार कि जा रही है और यह भी एक यज्ञ ही है जिसमे आप अपने ज्ञान कि आहुति देते चले आ रहे हैं तथा इस प्रक्रिया द्वारा आप इदं न मम अर्थात यह मेरा नहीं अपितु सभी के लिए है ..यही भावना प्रकट हो रही है ...
बहुत ही प्रभावी भावानुवाद..
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (08-07-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
नमन आपको ...
ReplyDeleteरहे नियंत्रित देहरी, राग द्वेष से दूर |
ReplyDeleteप्रस्तुत पोस्ट में सखे, ज्ञान भरा भरपूर ||
बेहतरीन
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत.
ReplyDeleteबहु विधि यज्ञ विहित वेदों में,
ReplyDeleteउन्हें कर्मजनित तुम समझो.
जान लिया तुमने यदि इतना,
बंधन मुक्त स्वयं को समझो.
्बस ये भाव आ जाये तो जीवनमुक्त हो जाये।
अति सुन्दर भाव..
ReplyDeleteगहन और व्हाव्पूर्ण अभिव्यक्ति
ReplyDeleteआशा
वाह. भाषा पर क्या पकड़ है आपकी ... बेहतरीन !
ReplyDeleteजीवन का उद्देश्य बताती रचना... बहुत बढ़िया
ReplyDeleteबढ़िया धारा प्रवाह भाव पूर्ण काव्य अनुवाद .
ReplyDeleteकृपया यहाँ भी पधारें -
शुक्रवार, 6 जुलाई 2012
वो जगहें जहां पैथोजंस (रोग पैदा करने वाले ज़रासिमों ,जीवाणु ,विषाणु ,का डेरा है )नै सामिग्री जोड़ी गई है इस आलेख/रिपोर्ट में .
राग द्वेष आसक्ति रहित है,
ReplyDeleteचित्त ज्ञान में स्थित होता.
यज्ञ समझ कर कर्म करे जो,
उसका कर्म विलीन है होता.
कर्म बंधन से मुक्ति का संदेश देती रचना...आभार!
बहु विधि यज्ञ विहित वेदों में,
ReplyDeleteउन्हें कर्मजनित तुम समझो.
जान लिया तुमने यदि इतना,
बंधन मुक्त स्वयं को समझो.
सुन्दर सन्देश.. क्रमशः का इंतजार है...आभार
postingan yang bagus tentang"श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (२०वीं-कड़ी)"
ReplyDeletethiss iss cooll mann..
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