बहुत कमज़ोर
दीवारें इस घर की,
दबा लेता अन्दर
दर्द की सिसकियाँ,
कहीं आवाज़ से
भरभरा कर
गिर न जायें.
*********
गुज़ार दी उम्र
कोशिश में
बनाने की एक घर,
पर बन पाया
सिर्फ़ एक मकान,
जिसके आँगन में
पसरा है मौन
और चिर इंतज़ार
चिड़ियों के चहचहाने का.
नहीं पता था
आज के समय
नहीं है चलन
घर बनाने का,
बनते हैं सिर्फ़ मकान.
कैलाश शर्मा
सच कहा है आपने
ReplyDeleteआजकल घर कहाँ बनते हैं,
बनते हैं सिर्फ़ मकान.... गहन भाव... आभार ... नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें
नहीं पता था
ReplyDeleteआज के समय
नहीं है चलन
घर बनाने का,
बनते हैं सिर्फ़ मकान.
गहन भाव .... !!
आभार !!
जी हाँ कैलाश जी... घर नहीं केवल मकान ही दिखाई देते है ज्यादातर.. भावपूर्ण प्रस्तुति!
ReplyDelete...न घर रहे न घराती !
ReplyDeleteगुज़ार दी उम्र
ReplyDeleteकोशिश में
बनाने की एक घर,
पर बन पाया
सिर्फ़ एक मकान,
जिसके आँगन में
पसरा है मौन
और चिर इंतज़ार
चिड़ियों के चहचहाने का.
बहुत सही !
नहीं पता था
ReplyDeleteआज के समय
नहीं है चलन
घर बनाने का,
बनते हैं सिर्फ़ मकान.
बहुत ही सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति,,,,कैलाश जी,,,
recent post : नववर्ष की बधाई
आजकल सब आलीशान मकान में रहना चाहते है (दिखावे के )
ReplyDeleteप्यार के छोटे से घर में किसी की गुज़र नही .....
गहरे एहसास !
आज हर जगह घर टूट रहे है और केवल मकान बन रहे हैं.-सुन्दर भाव
ReplyDeleteघर के भीतर, घर पर क्या बीती होगी?
ReplyDeleteज़िन्दगी की हकीकत से प्रेरित तंज भरी उदास रचना , नव वर्ष मुबारक .बढ़िया प्रासंगिक लेखन .बधाई .
ReplyDeleteनहीं पता था
आज के समय
नहीं है चलन
घर बनाने का,
बनते हैं सिर्फ़ मकान.
नहीं होती है वहां गौरैया ....
Virendra Sharma @Veerubhai1947
ram ram bhai मुखपृष्ठ http://veerubhai1947.blogspot.in/ शुक्रवार, 28 दिसम्बर 2012 अतिथि कविता :हम जीते वो हारें हैं
नव वर्ष में सब शुभ हो आपके गिर्द .
जीते वह हारे हैं , कैसे अजब नज़ारे हैं .... अधिक »
अतिथि कविता :हम जीते वो हारें हैं
ram ram bhaiपरVirendra Kumar Sharma - 6 मिनट पहले
अतिथि कविता :हम जीते वो हारें हैं -डॉ .वागीश मेहता हम जीते वह हारे हैं ................................... दिशा न बदली दशा न बदली , हारे छल बल सारे हैं , वोटर ने मारे फिर जूते , कैसे अजब नज़ारे हैं . (1) पिछली बार पचास पड़े थे , अबकी बार पड़े उनचास , जूते वाले हाथ थके हैं , हाईकमान को है विश्वास , बंदनवार सजाये हमने , हम जीते वह हारे हैं , कैसे अजब नज़ारे हैं .... अधिक »
जाने कैसे गुजारी होगी जो घर नहीं मकान बना लिया ,शायद वो मकान घर बन जाये ,इसी शुभकामना के साथ ,आभार सहित ।
ReplyDeleteगहन भाव और गहरा अभाव !
ReplyDeleteनहीं पता था
ReplyDeleteआज के समय
नहीं है चलन
घर बनाने का,
बनते हैं सिर्फ़ मकान.
आज वाकई ऐसा ही देखा जाता है ....बड़े बड़े मकान होते हैं पर अपने ही लोगों के लिए जगह नहीं
बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर भाव मन को छूती रचना बधाई स्वीकारें सर
ReplyDeleteहमें तो घर ही चाहिए..पर मिलते हैं मकान .
ReplyDeleteगहन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteनहीं पता था
ReplyDeleteआज के समय
नहीं है चलन
घर बनाने का,
बनते हैं सिर्फ़ मकान.
अन्तर स्पष्ट है. सुंदर प्रस्तुति.
सक्स्च है घर आसानी से नहीं बनते ...
ReplyDeleteभावपूर्ण प्रस्तुति ...
गुज़ार दी उम्र
ReplyDeleteकोशिश में
बनाने की एक घर,
पर बन पाया
सिर्फ़ एक मकान,
जिसके आँगन में
पसरा है मौन
और चिर इंतज़ार
चिड़ियों के चहचहाने का.
बहुत सुंदर..भावपूर्ण।।।
नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।।।