यों तो नयनों ने सब कह दी, लेकिन तुम कुछ समझ न पायी.
उर कि हर अभिव्यक्ति को
क्यों बंधन में बांधो भाषा के,
होजाती जो व्यक्त अजाने
व्यर्थ यत्न फिर परिभाषा के.
संगम निशा दिवस का प्रतिदिन, है प्रतीक मेरे परिणय का,
दोष किसे दूं, अगर प्रणय की भाषा यह तुम समझ न पायी.
कलकल बहते निर्झर का स्वर
क्या कभी समझ पाया तट है.
सदियों से अविचल खड़ा हुआ
अनपेक्षित यह जीवन वट है.
छू कर जो गया पवन तुमको, उसमें भी था स्पर्श मेरा,
मिलकर झुक गयी द्रष्टि, लेकिन अंतर स्पर्श न कर पायी.
गिरि की उन्नत बाहें फैलीं
आलिंगन में लेने नभ को.
निष्ठुर क्या कभी समझ पाया
इस मूक प्रणय अभिनन्दन को.
बढ़ गया स्वयं अनजाने में, गिरि की आँखों से बहे अश्रु,
वह अश्रु नदी बन वाष्प मिली,फिर भी अभिव्यक्त न कर पायी.
रहते छप्पर के एक तले
फिर भी क्यों हम अनजान रहें.
अद्रश्य शक्ति से शापित से
मिल कर भी क्यों वनवास सहें.
तुम इस भौतिक जग की श्रष्टि, शब्दों में नापो अभिव्यक्ति,
स्वप्निल वाणी लेकिन मेरी, इसको स्पष्ट न कर पायी.
उर कि हर अभिव्यक्ति को
ReplyDeleteक्यों बंधन में बांधो भाषा के,
होजाती जो व्यक्त अजाने
व्यर्थ यत्न फिर परिभाषा के.
यही अभिव्यक्ति तो हमें भावनाओं का एहसास करवाती है ...हमारे मन के भीतरी द्वन्द को प्रकट करती है ...जिसे शायद हम भाषा में अभिव्यक्त नहीं कर पाते...बहुत सुंदर ...कविता ..शुक्रिया
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ReplyDeleteगिरि की उन्नत बाहें फैलीं
आलिंगन में लेने नभ को.
निष्ठुर क्या कभी समझ पाया
इस मूक प्रणय अभिनन्दन को.
हिंदी साहित्य को समृद्ध करती एक बेहतरीन रचना !
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बहुत सुन्दर शब्दों से सजी अच्छी रचना ..
ReplyDeletepyara geet ...
ReplyDeletehar band sunder..
man prasann ho gaya shrmaji!
बहुत सुंदर बड़े भाई // दिल की अर्थात ह्रदय की भाषा ...शायद मौन होती है और मौन बड़ा HI मुखर होता है /.......सुंदर काव्य .मर्मस्पशी
ReplyDeletebadi khoobsoorti se jazbaaton ka izhaar karti prembhari rachna...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गीत बन पड़ा है.बधाई आपको
ReplyDeleteBahut hi sundar bahw pradhan geet, parantu ek jigyasa bhi hai -
ReplyDeleteयों तो नयनों ने सब कह दी, लेकिन तुम कुछ समझ न पायी.
yah baat kuchh samajh me nahin aayee.....Pyaar me to sanket aur prateek hi baat karet hain. Wahan shabdon ki kahan chal paati hai? Fir bhi bahut hi laajbaab pranay geet. Yah shikhar ko sparsh karta hai -
गिरि की उन्नत बाहें फैलीं
आलिंगन में लेने नभ को.
निष्ठुर क्या कभी समझ पाया
इस मूक प्रणय अभिनन्दन को.
Aabhaar
sarthak rachna ke liye badhai.
ReplyDeleteकलकल बहते निर्झर का स्वर
ReplyDeleteक्या कभी समझ पाया तट है
सदियों से अविचल खड़ा हुआ
अनपेक्षित यह जीवन वट है।
वाह, शर्मा जी ...बहुत ही भावप्रवण गीत की रचना की है आपने...बधाई।
bohot hi sundra kavita hai sir... :)
ReplyDeleteसुन्दर शब्दों से रची बहुत ही प्यारी रचना...
ReplyDeleteस्पष्ट अभिव्यक्ति में आप सफल रहे हैं ! शुभकामनायें आपको !
ReplyDeleteकमाल है!!!! इतने प्यार से समझाया जाय और कोई न समझे... हो ही नहीं सकता... लाजवाब लेखन.
ReplyDeleteरहते छप्पर के एक तले
ReplyDeleteफिर भी क्यों हम अनजान रहें.
अद्रश्य शक्ति से शापित से
मिल कर भी क्यों वनवास सहें.
क्या बात है कैलाश जी ये अनजानी- अनजानी सी बनवास की बातें क्यों हो रही हैं ....?
संगम निशा दिवस का प्रतिदिन, है प्रतीक मेरे परिणय का,
दोष किसे दूं, अगर प्रणय की भाषा यह तुम समझ न पायी.
या कोई समझा नहीं पाया क्या पता ....?
शब्द चयन और भावाभिव्यक्ति दोनों ही उत्कृष्ट ...
दो अलग -अलग छंदों का खूब प्रयोग किया आपने ....बधाई ...!!
गीत की तरह गुनगुनाने को दिल करता है इस रचना को. सुंदर भावों से भरी रचना.
ReplyDeleteआदरणीय बड़े भाईसाहब
ReplyDeleteप्रणाम !
आपकी यह मधुर और पद्मश्री नीरज जी का शब्द काम में लूं तो 'मदिर' रचना, लगते ही पढ़ने आ गया था मैं ।
बाद में भी दो-तीन बार पढ़ चुका हूं …
प्रशंसा के लिए उपयुक्त शब्द नहीं मिल पाने के कारण हर बार बिना प्रतिक्रिया के ही लौटता रहा …
लौट आज भी जाता , बस उपस्थिति दर्ज़ करवा रहा हूं ।
हीर जी ने बहुत सुंदर तरीके से जैसे मेरी ही बात कह दी है ।
अनामिका जी की तरह मेरा मन भी ख़ूबसूरत रचनाओं को गुनगुनाने को करता रहता है …
आभार और बधाई !
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
दो-तीन बार पढ़ा, हिंदी में मेरी शब्दावली इतनी मजबूत नहीं है. आपके शब्दों का चयन बहुत प्रभावशाली है.
ReplyDeleteआदरणीय
ReplyDeleteगीत बहुत सुन्दर निर्मल है ...प्रवाह ऐसा है कि पता नहीं चलता है कि रचना पाठक को बहा रही है या बस खुद बही रही है..
सादर
bahut sundar abhivyakti!
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