पैरों पर
चलना सीखते ही
बढ़ गये पैर,
माँगने को भीख
या बेचने को
गुलाब के फूल
और गज़रा
प्रेमियों को
चौराहे पर,
बरतन साफ़ करने
और चाय देने
बस्ती के ढाबे पर,
गलत पाना देने पर
उस्ताद जी से
थप्पड़ खाने को
ऑटो मैकेनिक की
दुकान पर.
हसरत भरी नज़रों से
देखते हैं,
स्कूल जाते,
पार्क में खेलते
हंसते हुए बच्चों को,
और झटक कर सर
फिर लग जाते हैं
अपने धन्धे पर.
गोदी से उतरते ही,
भूल कर
बीच के अंतराल को,
फँस जाते हैं
रोटी कपड़े के जाल में,
शायद झुग्गियों में
बचपन नहीं होता.
गोदी से उतरते ही,
ReplyDeleteभूल कर
बीच के अंतराल को,
फँस जाते हैं
रोटी कपड़े के जाल में,
शायद झुग्गियों में
बचपन नहीं होता.
बिलकुल सच कह रही है आपकी रचना... मार्मिक अभिव्यक्ति.....
शायद झुग्गियों में
ReplyDeleteबचपन नहीं होता.
एक सच को बयां करती यह पंक्तियां ...।
गोदी से उतरते ही,
ReplyDeleteभूल कर
बीच के अंतराल को,
फँस जाते हैं
रोटी कपड़े के जाल में,
शायद झुग्गियों में
बचपन नहीं होता.
marmik abhivyakti
बचपन तो ममता के आश्रय में मिलता है, अस्तित्व के युद्धों में बचपन परिपक्व हो जाता है।
ReplyDeleteयही सत्य है हमारा, जहां हम सिर्फ खुद के लिए जीते हैं. सत्यपरक रचना के लिए आपका आभार.
ReplyDeleteसच कह रही है रचना... आपका आभार.
ReplyDeleteshandaar prastuti....
ReplyDeleteabhaar.
एक सच को बयां करती पंक्तियां ...।
ReplyDeleteमार्मिक भावपूर्ण दिल को छूती रचना
ReplyDeletebeshak ek marmik kavita hai yah. badhai sarthak lekhan ke liye.
ReplyDeleteशायद झुग्गियों में
ReplyDeleteबचपन नहीं होता.
मार्मिक भावपूर्ण दिल को छूती रचना निशब्द कर गयी....
हसरत भरी नज़रों से
ReplyDeleteदेखते हैं,
स्कूल जाते,
पार्क में खेलते
हंसते हुए बच्चों को,
और झटक कर सर
फिर लग जाते हैं
अपने धन्धे पर.
Kaisi dard bharee sachhayee aapne bayaan kar daalee!Aise seedhe magar tez shabd,jaise deewaar me keel thonk dee ho!
यही सत्य है हमारे विकसित भारत देश का।
ReplyDeleteखाने को दो शाम की रोटी नही
और हम दुनिया फतह करने निकले है।
Dil se likhi gayi kavita aur seedhi dil mein hi utarti jaati hai...bahut badia...shubhkaamnaayein..
ReplyDeleteगोदी से उतरते ही,
ReplyDeleteभूल कर
बीच के अंतराल को,
फँस जाते हैं
रोटी कपड़े के जाल में,
शायद झुग्गियों में
बचपन नहीं होता. ...
यथार्थ का सुन्दर वैचारिक प्रतुतिकरण...
भावपूर्ण रचना.
ReplyDeleteगोदी से उतरते ही,
ReplyDeleteभूल कर
बीच के अंतराल को,
फँस जाते हैं
रोटी कपड़े के जाल में,
शायद झुग्गियों में
बचपन नहीं होता.
In gareeb bacchon ki dasha ka sateek aur marmik chitran kiya hai aapne.....
सच है ये विडम्बना . बचपन झुग्गियों में पाया ही नहीं जाता .
ReplyDeletebahut sundar....
ReplyDeletekhoobsurat rachna kailash bhaiya!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया यथार्थ चित्रण.
ReplyDeleteकाश हम अपने बच्चों के अलावा किसी अन्य बच्चे का जीवन संवार सकें.
मुश्किल नहीं है.
आपको वैचारोतेजक कविता के लिए बधाई.
"शायद झुग्गियों में
ReplyDeleteबचपन नहीं होता. "
एक कडवे सच को बड़ी सहजता से उभार दिया कैलाश सर.. इस यथार्थवादी चित्रण के लिए धन्यवाद..
Kadwa Sach.
ReplyDeleteहोली के पर्व की अशेष मंगल कामनाएं।
धर्म की क्रान्तिकारी व्यागख्याै।
समाज के विकास के लिए स्त्रियों में जागरूकता जरूरी।
जीवन की एक कड़वी हकीकत को बयां करती सार्थक रचना ! न जाने कितने बचपन गरीबी की भेंट चढ़ जाते हैं, इसका कोई हिसाब नहीं...
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना.
ReplyDeleteशायद झुग्गियों में
ReplyDeleteबचपन नहीं होता
sirf mazboori aur ummeed hoti hai.
गोदी से उतरते ही,
ReplyDeleteभूल कर
बीच के अंतराल को,
फँस जाते हैं
रोटी कपड़े के जाल में,
शायद झुग्गियों में
बचपन नहीं होता.
bchpan ki yahi durdasha man ko takleef deti hai sundar bahut likha hai aur sach bhi ,marmik rachna .
गोदी से उतरते ही,
ReplyDeleteभूल कर
बीच के अंतराल को,
फँस जाते हैं
रोटी कपड़े के जाल में,
शायद झुग्गियों में
बचपन नहीं होता.
सार्थक और अर्थपूर्ण भाव....
१४ वर्ष के नीचे के बच्चों से काम नहीं लेना चाहिए । वो तो गरीब हैं , मजदूर हैं और मजबूर भी । लेकिन काम लेने वाले तो थोड़ी सी संवेदनशीलता दिखा सकते हैं ।
ReplyDeleteSir,
ReplyDeleteWe think alike . This picture of society is very cruel n one can realize only when one put his/her feet in their shoes. We need to be empathetic towards unprivilaged children. Ur poetry touched my soul sir n I believe revolution is the need of hour n pen is our weapon.
Regards
aadarniy sir
ReplyDeletebahut hi sateek aur man ko bythit karne wali samvedan sheel prastuti.
vilamb se tippni derahi hun xhma kijiyaga.
sadar dhanyvaad
poonam
बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना ... आपने सही लिखा है ... इधर हम ओलिम्पिक खेल अपने देश में रखने की बातें करते हैं और दूसरी तरफ हमारे देश में गरीबी में जीने वालों की ये हालत है ...
ReplyDeletebahut sahi.....
ReplyDeletesunder rachna hai ....
yery touching..........
ReplyDeleteशायद झुग्गियों में
ReplyDeleteबचपन नहीं होता.
सोचने पर मजबूर करती कविता.
एक सत्य परक रचना |बहुत सुंदर विस्तार और शब्द चयन |
ReplyDeleteबधाई
आशा
बालश्रम एक अभिशाप है हमारे लिए...शर्मनाक ! शुभकामनायें भाई जी !
ReplyDeleteमार्मिक भावपूर्ण दिल को छूती रचना| धन्यवाद|
ReplyDeleteसर बहुत ही उम्दा कविता आपको बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं |
ReplyDeleteAah! bada hi marmik chitran.... dukhad baat yah ki ham chahkar v bachapan de nahi pate . sundar rachana.
ReplyDeleteजब भी ऐसे किसी बच्चे को देखूंगी तो आपकी यही पंक्तियाँ याद आएंगीं...
ReplyDeleteकितनी सटीक और कडवी सच्चाई है... भावुक कर देने वाली पंक्तियाँ...
बालश्रम की त्रासदी पर आपकी रचना वाकई काबिलेतारीफ है।
ReplyDeleteशुभकामनाएं आपको।
झुग्गियों में केवल पेट होता है या होती है शराब की बोतल।
ReplyDeleteगोदी से उतरते ही,
ReplyDeleteभूल कर
बीच के अंतराल को,
फँस जाते हैं
रोटी कपड़े के जाल में,
शायद झुग्गियों में
बचपन नहीं होता।
मार्मिक अभिव्यक्ति।
शायद झुग्गियों में बचपन नहीं होता- इन शब्दों ने द्रवित कर दिया।
samvedansheel rachna -
ReplyDeleteबहुत मार्मिक चित्रण.
ReplyDeleteहम तो बेकार मजबूरी का रोना रोते हैं.
कोई इनकी मजबूरी देखे
आज के युग की तल्ख़ सच्चाई को बेहद ख़ूबसूरती से उतारा है आपने अपने शब्दों में....बधाई
ReplyDeleteनीरज
ये मार्मिक कविता दिल में उतर गयी ।
ReplyDeleteआपका आभार । कैलाश जी ।
गोदी से उतरते ही,
ReplyDeleteभूल कर
बीच के अंतराल को,
फँस जाते हैं
रोटी कपड़े के जाल में,
शायद झुग्गियों में
बचपन नहीं होता.
nishchit roope se isme yatharth jhalakta hai lekin samadhaan?????
maarmik rachna par badhaai....
bhagwaan kisi ko jawaani achhi na de par bachpan jarur de............
गहरी अनुभूतियों की भावपूर्ण , यथार्थ की ज़मीन से जुड़ी रचना ..
ReplyDelete'शायद झुग्गियों में
बचपन नहीं होता '
..........................सार्थक-सच्ची अभिव्यक्ति
बहुत खूब ... कितना कड़ुवा सच है .... सच में वहाँ बचपन आने से पहले ही मर जाता है ....
ReplyDeleteमेरी लड़ाई Corruption के खिलाफ है आपके साथ के बिना अधूरी है आप सभी मेरे ब्लॉग को follow करके और follow कराके मेरी मिम्मत बढ़ाये, और मेरा साथ दे ..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ..बहुत तीव्र गहन अनुभूति के साथ पिरोई यह कविता ..झोपडी के बच्चों का दर्द है... बहुत सुन्दर ..
ReplyDeleteकल आपकी यह पोस्ट चर्चामंच पर होगी... आप वह आ कर अपने विचारों से अनुग्रहित करियेगा ... सादर
चर्चामंच
मेरे ब्लॉग में भी आपका स्वागत है - अमृतरस ब्लॉग
एक कटु सत्य बेहद प्रभावी अंदाज़ में लिखा है ,नि:शब्द हूं .....
ReplyDeleteशायद झुग्गियों में
ReplyDeleteबचपन नहीं होता.
मर्मस्पर्शी रचना
education and population control are the only solutions...
ReplyDeleteआदरणीय कैलाश सी शर्माजी,
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा आपने और बेहतरीन रचना
नवसंवत्सर की हार्दिक शुभकामनाएँ| धन्यवाद|
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