उपवन में न खिलती कलियाँ.
वृंदा सूख गयी अब वन में,
खड़ी उदास डगर पर सखियाँ.
जब से कृष्ण गये तुम बृज से,
अब मन बृज में लागत नाहीं.
माखन लटक रहा छींके पर,
नहीं कोई अब उसे चुराता.
खड़ीं उदास गाय खूंटे पर,
बंसी स्वर अब नहीं बुलाता.
तरस गयीं दधि की ये मटकी,
कान्हा अब कंकड़ मारत नाहीं.
क्यों भूल गये बचपन की क्रीडा,
क्यों भूल गये बृज की माटी तुम?
एक बार तुम मिल कर जाते,
यूँ होती नहीं गोपियाँ गुमसुम.
अंसुअन से स्नान करत अब,
यमुना तट पर जावत नाहीं.
bahut sunder abhivyakti.
ReplyDeletesach ab brij ki galiyan sooni hain har gopi krishn ki yaad me krishna hai.
क्या बात है ?..बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...
ReplyDeletebrij ke nandlala bagair brij kahan ... marm ukerti rachna...
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर भाव ..............
ReplyDeleteकान्हा बिन अब सूना गोकुल।
ReplyDeleteकृष्णमय कर गयी यह सुन्दर रचना!
ReplyDeleteजब से कृष्ण गये तुम बृज से,
ReplyDeleteअब मन बृज में लागत नाहीं.
भावमयी प्रस्तुति....
बहुत सुन्दर .. दुःख में डूबी गोपियों का दर्द .. राधा की पीड़ा इस कविता में समाई है..
ReplyDeleteबेहतरीन अभिवयक्ति....
ReplyDeleteअब मन ब्रिज में ......../ अविस्मरनीय श्रधा ,समर्पण का मन जब विहवल हो परिकल्पप्नाओं को स्वर देता है तो मन उद्वेलित होता है ,ढूढता है ,अपना पाथेय ......../ बहुत सुन्दर सृजन /
ReplyDeleteक्यों भूल गये बचपन की क्रीडा,
ReplyDeleteक्यों भूल गये बृज की माटी तुम?
एक बार तुम मिल कर जाते,
यूँ होती नहीं गोपियाँ गुमसुम.
सूरदास दवारा रचित एक पद्य याद आ गया
बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजें
श्रद्धा भाव से ओतप्रोत रचना ..!
Ateev sundar rachana!
ReplyDeleteमनमोहक रचना .....
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावों से सजी मनमोहक रचना .... समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर अपप्का स्वागत है ...
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावों से...बहुत ही खुबसूरत अभिवयक्ति.....
ReplyDeleteआंसू से स्नान करत अब सब,
ReplyDeleteयमुना तट पर जावत नाहीं.
कैलाश जी गोपी विरह के भावो को आपने जीवन्त कर दिया…………बृज का कण कण पुकार रहा है आ जाओ सांवरिया तुम बिन सूनी सारी नगरिया………अद्भुत गंगा बहा दी। इससे बाहर आने को मन नही कर रहा।
कमाल का लिखा है आपने। एक दम से सूरदास याद आ गए।
ReplyDeleteसुंदर रचना....
ReplyDeleteगहरे भाव....
गोपियों के विरह का यथार्थ चित्रण .. सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteसुंदर अभिवयक्ति..!
ReplyDeleteमेरी नई कविता अनदेखे ख्वाब
आंसू से स्नान करत अब सब,
ReplyDeleteयमुना तट पर जावत नाहीं.
गोपियों के विरह का चित्रण .. सुन्दर प्रस्तुति
अपने चर्चा मंच पर, कुछ लिंकों की धूम।
ReplyDeleteअपने चिट्ठे के लिए, उपवन में लो घूम।।
वाह शर्मा जी आप ने तो ब्रज की सैर करा दी
ReplyDeleteजय श्री कृष्ण
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत खूब सर!
ReplyDeleteसादर
कान्हा बिन बृज की तड़पन को सटीक शब्द दिए हैं आपने.. धन्यवाद !!
ReplyDeleteनए शब्दों से परिचय हुआ ....
ReplyDeleteसुंदर रचना रची है आपने...
बहुत बढ़िया ||
ReplyDeleteवाह ...बहुत खूब लिखा है आपने ।
ReplyDeleteभावमयी रचना |
ReplyDeleteकृष्णमय...भाव पूर्ण भाव
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना! मनमोहक प्रस्तुती!
ReplyDeleteमनोहर... सुन्दर गीत सर...
ReplyDeleteसादर बधाईयां...
वाह !!! कैलाश जी,
ReplyDeleteअद्भुत उपमा ,
आंसू से स्नान करत अब सब,
यमुना तट पर जावत नाहीं.
ब्रज के सूनेपन का मार्मिक वर्णन.
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल आज 01-12 - 2011 को यहाँ भी है
ReplyDelete...नयी पुरानी हलचल में आज .उड़ मेरे संग कल्पनाओं के दायरे में
very nice sir.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.....उत्तम.
ReplyDeleteजय श्री क्रष्ण.
क्यों भूल गये बचपन की क्रीडा,
ReplyDeleteक्यों भूल गये बृज की माटी तुम?
एक बार तुम मिल कर जाते,
यूँ होती नहीं गोपियाँ गुमसुम।
सचमुच बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति ।
बहुत सुन्दर............
ReplyDelete
ReplyDelete♥
आदरणीय कैलाश जी भाईसाहब
सादर प्रणाम !
भक्ति रस में भीगी इस रचना के लिए आभार !
क्यों भूल गये बचपन की क्रीडा
क्यों भूल गये बृज की माटी तुम
एक बार तुम मिल कर जाते
यूं होती नहीं गोपियां गुमसुम
अंसुअन से स्नान करत अब
यमुना तट पर जावत नाहीं
बहुत सुंदर ! मधुर ! मनहर !
बधाई और मंगलकामनाएं …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
सुन्दर भाव, हृदयस्पर्शी रचना!
ReplyDeleteकैलाश जी,..
ReplyDeleteबहुत अच्छी भावपूर्ण सुंदर रचना,..
पोस्ट में आने के लिए आभार ,.
कैलाश जी
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना ... सच में अब बृज रुपी इस संसार में मन नहीं लगता है .. आपने भावो को इतने अच्छे शब्द दिए है कि क्या कहू.... आपको और आपकी लेखनी को नमन है ...
बधाई !!
आभार
विजय
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कृपया मेरी नयी कविता " कल,आज और कल " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/11/blog-post_30.html
पढ़कर मन प्रसन्न हो गया.
ReplyDeletebahut hi sundar prastuti hai..
ReplyDeleteमाखन लटक रहा छींके पर,
ReplyDeleteनहीं कोई अब उसे चुराता.
खड़ीं उदास गाय खूंटे पर,
बंसी स्वर अब नहीं बुलाता.
कृष्ण के चले जाने से गोपियों का मन-आंगन सूना हो गया।
बहुत सुंदर रचना।
जब से कृष्ण गये तुम बृज से,
ReplyDeleteअब मन बृज में लागत नाहीं....
गोपियों के दर्द को शब्द दे दिए आपने ... कृष्ण का मोह ही ऐसा है ... बहुत खूब .....
कान्हा बिन सब सून..मन की अटरिया और वृन्दावन की डगरिया ......
ReplyDeleteकान्हा बिन सब सून..मन की अटरिया और वृन्दावन की डगरिया ......
ReplyDeleteक्यों भूल गये बचपन की क्रीडा
ReplyDeleteक्यों भूल गये बृज की माटी तुम
एक बार तुम मिल कर जाते
यूं होती नहीं गोपियां गुमसुम.
कैलाश जी अपने तो प्रेम रस में सरावोर कर दिया. बहुत प्रेम पगी रचना.
मन प्रसन्न
ReplyDeleteits always a great pleasure to read about lord krishna...
ReplyDeleten above lines were just WOW !!
namaskar kailash ji .......
ReplyDeletebahut hi anupam prastuti . aapne to hamen braj ki yaad dila di .krishn aur braj ....dono hi chal-chitra ki tarah annkho ke samne ..........aa gaye . bahut -bahut badhai .
http://sapne-shashi.blogsopt.com
बहुत अच्छी भावपूर्ण सुंदर रचना,..
ReplyDeleteजब से कृष्ण गये तुम बृज से,
ReplyDeleteअब मन बृज में लागत नाहीं.bahut sundar.
बहुत उम्दा!
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