उड़ती मुक्त गगन में
लिये ख़्वाब छूने का
अनंत आकाश का छोर,
पर कहाँ है स्वतंत्र
बंधी
है एक डोर
है जिसका दूसरा छोर
किसी अन्य के हाथों में
उड़ान भरने से ऊपर
पहुँचने तक,
उड़ पाती है उतना ही
ऊँचा
जितनी पाती ढील डोर.
हो कर रह गया निर्भर
अस्तित्व केवल डोर पर,
जब भी कट जाती डोर
अनुभव होती आजादी
केवल कुछ पल की,
गिरने लगती
ज़मीन की ओर
और फंस जाती
किसी पेड़ या खंबे पर,
फड़फडाती पल पल
हवा के हर झोंके से
या पहुँच जाती
किसी अज़नबी हाथों में
उड़ने फ़िर
साथ नयी डोर.
उड़ती रही सदैव
पतंग की तरह
बंधी किसी न किसी
रिश्ते की डोर से.
काश होता उसका भी
स्वतंत्र अस्तित्व,
उड़ पाती बिन डोर
कर पाती पूरा सपना
छूने का आसमान
बिना किसी सहारे.
....कैलाश शर्मा
निश्चय ही पतंग के साथ यह बड़ी विडम्बना है। बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteहिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच} पर कल पहली चर्चा में आपका सह्य दिल से स्वागत करता है। कृपया पधारें, आपके विचार मेरे लिए "अमोल" होंगें | आपके नकारत्मक व सकारत्मक विचारों का स्वागत किया जायेगा | सादर .... Lalit Chahar
Deleteखूबसूरत अभिव्यक्ति
ReplyDeleteभाई मेरे ये कहानी तो हम बहनों की लगी
सादर
हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच} पर कल पहली चर्चा में आपका सह्य दिल से स्वागत करता है। कृपया पधारें, आपके विचार मेरे लिए "अमोल" होंगें | आपके नकारत्मक व सकारत्मक विचारों का स्वागत किया जायेगा | सादर .... Lalit Chahar
Deleteज़ोर बँधीं अनजाने हाथों,
ReplyDeleteढील मिली, हम उड़े जा रहे।
uttam racha ... patang ke madhayam se apne bahut kuchh kah diya ... ise hum adhunik nariyo ke sandrbh se jod sakte ha ..or ham nirbal prani jiski dor bhagwan ke haatho me hai ..badhay ..sadar jsk
ReplyDeleteहिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच} पर कल पहली चर्चा में आपका सह्य दिल से स्वागत करता है। कृपया पधारें, आपके विचार मेरे लिए "अमोल" होंगें | आपके नकारत्मक व सकारत्मक विचारों का स्वागत किया जायेगा | सादर .... Lalit Chahar
Deleteहिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच} पर कल पहली चर्चा में आपका सह्य दिल से स्वागत करता है। कृपया पधारें, आपके विचार मेरे लिए "अमोल" होंगें | आपके नकारत्मक व सकारत्मक विचारों का स्वागत किया जायेगा | सादर .... Lalit Chahar
ReplyDeleteखूबसूरत अभिव्यक्ति ,बेजोड़ रचना
ReplyDeleteहिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच} पर कल पहली चर्चा में आपका सह्य दिल से स्वागत करता है। कृपया पधारें, आपके विचार मेरे लिए "अमोल" होंगें | आपके नकारत्मक व सकारत्मक विचारों का स्वागत किया जायेगा | सादर .... Lalit Chahar
Deleteभावुक करती अभिव्यक्ति ...
ReplyDelete~मजबूर कितनी है पतंग वो....
कटती, गिरती, होती लहूलुहान...
पर फिर नयी डोर में बँध कर...
उड़ने को मजबूर है जो.... ~
~सादर!!!
खूबसूरत अभिव्यक्ति, बेजोड़ रचना।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर। बेजोड़ रचना।
ReplyDeleteak dor kahin hai tabhi to ushi sarthakta hai sharma jee ...dil ke kashamkash ko accha roop diya hai ...
ReplyDeleteजीवन भी पतंग जैसा ही तो है...कहां से आया कहां जायेगा? कुछ पता अन्ही, बस पतंग की भांति कुछ वर्षों तक हिचकोले खाता रहता है, फ़िर कहां जायेगा? कुछ पता नही.
ReplyDeleteबहुत ही गूढ अभिव्यक्ति.
रामराम.
बढ़िया बाल कविता-
ReplyDeleteआभार -
भावपूर्ण रचना बहुत कुछ संकेत है... अच्छी प्रस्तुति !!
ReplyDeleteअस्तित्व बंध कर रह गया बस डोर से…
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावों को स्वयम में समाहित किये है आपकी यह रचना ... आपकी इस उत्कृष्ट रचना का प्रसारण कल रविवार, दिनांक 25/08/2013 को ब्लॉग प्रसारण http://blogprasaran.blogspot.in/ पर भी .. कृपया पधारें !
ReplyDeleteआभार...
Deleteनमस्कार आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (25-08-2013) के चर्चा मंच -1348 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
ReplyDeleteपतंग के अस्तित्व की सार्थकता ही तब तक है जब तक वह डोर से बंधी है ! उसे आसमान की ऊंचाइयाँ भी तब ही मिल पाती हैं जब उसकी डोर संवेदनशील हृदय रखने वाले व्यक्ति के कुशल हाथों में हो ! ऐसा भाग्य भी थोड़ी ही पतंगों का होता है बाकी सभी की उड़ाने तो असमय ही खत्म कर दी जाती हैं ! बहुत संवेदनशील रचना कैलाश जी ! बधाई स्वीकार करें !
ReplyDeleteजेने कितनी माया और मोह के लपेटोंवाली डोर संचालित करती है और आदमी उतना भर उड़ पाता है !
ReplyDeleteहम भी तो पतंग जैसे शायद..डोर किसी और के हाथ में. अति सुन्दर.
ReplyDeleteकल 26/08/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
आभार...
Deleteitna sundar itna umda likha hai ki kya kahu....laga ki hamari kahani likh di......bahut sundar
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण रचना...
ReplyDeleteये जीवन और पतंग
ReplyDeleteचलें ये दोनों किसी
और के हाथों थमी
डोर के संग .....
ये उड़ने की चाहत है न..आह..
ReplyDeleteवाह बहुत सुगमता से गहन दार्शनिक भाव को शब्दों में बाँधा है. बहुत सुन्दर..
ReplyDeleteजीवन के खूबसूरत अहसास ....
ReplyDeleteवाह,बहुत खूब
ReplyDeleteभावुक करती अभिव्यक्ति
ReplyDeleteशब्दों की मुस्कराहट पर....तभी तो हमेशा खामोश रहता है आईना !!
वाह !पतंग का मानवीकरण कर दिया। हमारी डोर भी तो कर्मों के खाते से बंधी चली आ आरही है जन्म जन्मान्तरों के कर्म परछाईं से पीछे चले आ रहे हैं। सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteइन मुक्त उड़ानों का हम भी समर्थन करते हैं
ReplyDeleteहर कोई किसी न किसी डोर से बंधे हैं ,डोर अगर सही हाथों में है ,आसमान की हर ऊंचाई पहुँच के अन्दर होता है और यदि गलत हातों में है उडान एक ख्वाब बनकर रह जाता है -बहुत अच्छी रचना ,बधाई कैलाश जी
ReplyDeletelatest post आभार !
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वाह,बहुत खूब...
ReplyDeleteखूबसूरत अहसास .....बहुत सुन्दर
ReplyDeleteवाह…बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteबंधन चुभता है ..
ReplyDeleteगहन भाव लिये ... सशक्त अभिव्यक्ति
ReplyDeleteज़िंदगी भी तो एक पतंग कि तरह ही सदा किसी न किसी रिश्ते से बंधी रहती है। गहन भाव अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteपतंग ओर नारी ....शायद दोनों की इस प्रवृति को बखूबी शब्दों में उकेरा है कैलाश जी ...
ReplyDeleteकाश ये समाज परिपक्व हो पाता ...
wowwwwwwwwwwww......................spcl hai isme bahut kuch.
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