ढूँढता अपना अस्तित्व मेरा ‘मैं’
जो खो गया कहीं
देने में अस्तित्व अपनों के ‘मैं’ को.
अपनों के ‘मैं’ की भीड़
बढ़ गयी आगे
चढ़ा कर परत अहम की
अपने अस्तित्व पर,
छोड़ कर पीछे उस ‘मैं’ को
जिसने रखी थी आधार शिला
उन के ‘मैं’ की.
सफलता की चोटी से
नहीं दिखाई देते वे ‘मैं’
जो बन कर के ‘हम’
बने थे सीढ़ियां
पहुँचाने को एक ‘मैं’
चोटी पर.
भूल गए अहंकार जनित
अकेले ‘मैं’ का
नहीं होता कोई अस्तित्व
सुनसान चोटी पर.
काश, समझ पाता मैं भी
अस्तित्व अपने ‘मैं’ का
और न खोने देता भीड़ में
अपनों के ‘मैं’ की,
नहीं होता खड़ा आज
विस्मृत अपने ‘मैं’ से
अकेले सुनसान कोने में.
अचानक सुनसान कोने से
किसी ने पकड़ा मेरा हाथ
मुड़ के देखा जो पीछे
मेरा ‘मैं’ खड़ा था मेरे साथ
और समझाया अशक्त अवश्य हूँ
पर जीवित है स्वाभिमान
अब भी इस ‘मैं’ में.
स्वाभिमान अशक्त हो सकता
कुछ पल को
पर नहीं कुचल पाता इसे
अहंकार किसी ‘मैं’ का,
नहीं होता कभी अकेला ‘मैं’
स्वाभिमान साथ होने पर.
....कैलाश शर्मा
Awesome.
ReplyDeleteकैलाश जी हिट्स ऑफ इसके लिए ……. जीवन के गहन अनुभव से निकली ये पोस्ट शानदार है |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर पोस्ट
ReplyDeleteबहुत खूब,गहन भाव लिए सुंदर रचना !
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ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति है आदरणीय-
आभार आपका-
मैं को स्वाभिमान का साथ मिले, अहंकार से दूर रहे तो बात ही क्या हो!
ReplyDeleteबहुत खूब,गहन भाव लिए सुंदर रचना कैलाश जी।
ReplyDeleteकिन्हीं 'मैं' के मौलिक-अमौलिक तथा नैतिक-अनैतिक गठबन्धन से उपजी परिस्थितियों पर कवि 'मैं' की विचारणीय दृष्टि पड़ती है तो एक क्षण को तो वह उदास, हताश होता है। परन्तु शीघ्र ही अपने स्वाभिमान को पा कर आशावान, तटस्थ हो जाता है। ....................गूढ़ाभिव्यक्ति।
ReplyDeleteआभार
ReplyDeleteबहुत खूब,गहन भाव लिए सुंदर रचना !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर,गहन भाव....
ReplyDeleteआत्मा मंथन का निचोड़ ...अभिव्यक्ति बेजोड़. बहुत सुन्दर रचना.
ReplyDeleteनहीं होता कभी अकेला ‘मैं’
ReplyDeleteस्वाभिमान साथ होने पर.
एक सम्पूर्ण जीवन दर्शन के साथ बहुत ही सारगर्भित एवं सार्थक रचना ! बहुत सुंदर !
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत उत्तम सही कहा -स्वाभिमान के संग मैं बन जाता है आत्माभिमान होकर निरभिमान।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर पोस्ट
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sundar bhav....man ki baat keh di apne
ReplyDeleteबहुत सुंदर ...मेरे भी ब्लॉग पर आये
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (23.09.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें .
ReplyDeleteआभार...
Deleteआभार...
ReplyDeleteअपने 'मैं' की तलाश ..अति सुन्दर कृति..
ReplyDeleteबहुत सुंदर कृति..
ReplyDeleteprathamprayaas.blogspot.in-
पर नहीं कुचल पाता इसे
ReplyDeleteअहंकार किसी ‘मैं’ का,
नहीं होता कभी अकेला ‘मैं’
स्वाभिमान साथ होने पर.-----
बहुत सुंदर और सार्थक सच की अभिव्यक्ति
सादर
बहुत सुन्दर 'मैं' की विवेचना ,गहन भाव!
ReplyDeleteLatest post हे निराकार!
latest post कानून और दंड
जीवन में निरंतर सफलता पूर्वक आगे बढ़ते रहने के लिए इस "मैं" का होना उतना ही आवश्यक है जितना शरीर के लिए प्राणों का होना। सार्थक एवं गहन भावभिव्यक्ति।
ReplyDeleteपर नहीं कुचल पाता इसे
ReplyDeleteअहंकार किसी ‘मैं’ का,
नहीं होता कभी अकेला ‘मैं’
स्वाभिमान साथ होने पर.............बहुत सुन्दर
जब 'मैं 'था तब हरि नही ,अब हरि हैं 'मैं 'नाहि ...। कुछ जटिल लेकिन 'मैं' का अच्छा विश्लेषण ।
ReplyDeleteजब 'मैं 'था तब हरि नही ,अब हरि हैं 'मैं 'नाहि ...। कुछ जटिल लेकिन 'मैं' का अच्छा विश्लेषण ।
ReplyDeleteनहीं होता कभी अकेला ‘मैं’
ReplyDeleteस्वाभिमान साथ होने पर.
.......... बहुत ही सारगर्भित एवं सार्थक रचना !
नहीं होता कभी अकेला ‘मैं’
ReplyDeleteस्वाभिमान साथ होने पर................
aur hmare pas hai hi kya... ????????
कल 26/09/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
आभार..
Deleteअहम का भाव शक्ति देता रहता है।
ReplyDeleteआदरणीय कैलाश जी,
ReplyDeleteइस रचना में काफी गहराई छिपी है दो बार पुरी पढ़ने पर इसका अंदाज कर पाया, आपको इस रचना की अनेक बधाई।
बहुत सुंदर भाव
ReplyDeleteनही होता अकेला मै स्वाभिमान के साथ होने पर। सुंदर सच्ची अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteस्वाभिमान भुलाया नहीं जा सकता ...
ReplyDelete''मैं'' में मैं को तलाशने की शुरुआत
ReplyDeleteसम्मान का स्वाभिमान का "मैं" ,
ReplyDeleteतलाश लो स्वयं "मैं" .....
निराकरण " हम " का सागर बन कर मिलता है | साधो... आ.कैलाश जी ..|