जब बैठते थे हम दोनों
दुनियां से दूर
लेकर हाथों में हाथ
इन कठोर चट्टानों पर,
पिघलने लगते थे
कठोर प्रस्तर भी
अहसासों की गर्मी से।
बहती हुई हवा
फैला देती खुश्बू चहुँ ओर
हमारे पावन प्रेम की।
थाम कर कोमल हथेलियाँ
किये थे कितने मौन वादे
एक दूसरे की नज़रों से।
न जाने कब और क्यूँ
छा गये काले बादल
अविश्वास और शक़ के
हमारे प्रेम पर,
अश्क़ों की अविरल धारा
वक़्त के हाथों में
बन गयी एक सागर
चट्टानों के बीच
और बाँट दिया
दो सुदूर किनारों में।
आज भी खडी
उसी चट्टान पर
ढूँढती हैं सूनी नज़रें
सागर का वह किनारा
जहाँ खो गए तुम
वक़्त की लहरों में।
.....कैलाश शर्मा
दुनियां से दूर
लेकर हाथों में हाथ
इन कठोर चट्टानों पर,
पिघलने लगते थे
कठोर प्रस्तर भी
अहसासों की गर्मी से।
बहती हुई हवा
फैला देती खुश्बू चहुँ ओर
हमारे पावन प्रेम की।
थाम कर कोमल हथेलियाँ
किये थे कितने मौन वादे
एक दूसरे की नज़रों से।
न जाने कब और क्यूँ
छा गये काले बादल
अविश्वास और शक़ के
हमारे प्रेम पर,
अश्क़ों की अविरल धारा
वक़्त के हाथों में
बन गयी एक सागर
चट्टानों के बीच
और बाँट दिया
दो सुदूर किनारों में।
आज भी खडी
उसी चट्टान पर
ढूँढती हैं सूनी नज़रें
सागर का वह किनारा
जहाँ खो गए तुम
वक़्त की लहरों में।
.....कैलाश शर्मा
इस कविता से साफ लगता है कि आप का मन कितना प्रेमिल है! सागर-तट, किनारे, प्रेम-युगल, प्रेमानुभव इत्यादि बातें जो आपने कविता में प्रस्तुत कीं उससे प्रेम के लिए मन में हिलोरें उठने लगीं।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - सोमवार - 30/09/2013 को
ReplyDeleteभारतीय संस्कृति और कमल - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः26 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर .... Darshan jangra
आभार...
Deleteबहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुती,धन्यबाद।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया,सुंदर सार्थक सृजन !!!
ReplyDeleteRECENT POST : मर्ज जो अच्छा नहीं होता.
काश सब पूर्ववत पावन ही होता... सदैव!
ReplyDeleteखूबसूरत अचना |
ReplyDeleteमेरी नई रचना :- जख्मों का हिसाब (दर्द भरी हास्य कविता)
बहुत सुन्दर .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ..........
ReplyDeleteपिघलने लगते थे
ReplyDeleteकठोर प्रस्तर भी
अहसासों की गर्मी से…. क्या बात !
आपने प्रेम की पराकाष्ठा तथा उसके दोनों पहलुओं की ( समर्पण और अविश्वास ) व्याख्या बहुत ही सुन्दर तरीके से की है…. बधाई
सागर लहरें समय समेटे, एक एक कर आती रहती।
ReplyDeleteविरहा में समाया सागर जैसा अद्भुत प्रेम. सुन्दर कृति.
ReplyDeleteअविश्वास के चंद पल उम्र भर का विछोह दे जाते हैं ... जला देना चाहिए इन्हें उभरने से पहले ही ...
ReplyDeleteआज भी खडी
ReplyDeleteउसी चट्टान पर
ढूँढती हैं सूनी नज़रें
सागर का वह किनारा
जहाँ खो गए तुम
वक़्त की लहरों में।
बहुत सुन्दर !
नई पोस्ट अनुभूति : नई रौशनी !
नई पोस्ट साधू या शैतान
इंतज़ार की इंतिहा को बयां करती शानदार पोस्ट |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति..
ReplyDeleteआज भी खडी
ReplyDeleteउसी चट्टान पर
ढूँढती हैं सूनी नज़रें
सागर का वह किनारा
जहाँ खो गए तुम
वक़्त की लहरों में।.उम्दा पोस्ट
आभार...
ReplyDeleteन जाने कब और क्यूँ
ReplyDeleteछा गये काले बादल
अविश्वास और शक़ के
हमारे प्रेम पर,....
और बाँट दिया
दो सुदूर किनारों में।
एक भूल और कितनी बड़ी सजा .....सोचने पर मजबूर करती रचना
दो किनारा ही सब कह रहा है..सुन्दर रचना..
ReplyDeleteदो किनारा ही सब कह रहा है..सुन्दर रचना..
ReplyDeleteवाह ! बहुत ही कोमल एवं भावपूर्ण प्रस्तुति ! अति सुन्दर !
ReplyDeletebhavnatamak avam vicharatamak prastuti
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteजिंदगी में कई रिश्ते ऐसे भी होते हैं जो नदी के दो किनारों की तरह आमने-सामने रहते हैं फिर भी कभी नहीं मिलते...
ReplyDeleteसागर का वह किनारा
ReplyDeleteजहाँ खो गए तुम
वक़्त की लहरों में।.उम्दा पोस्ट
Recent post ....क्योंकि हम भी डरते है :)
आज भी खडी
ReplyDeleteउसी चट्टान पर
ढूँढती हैं सूनी नज़रें
सागर का वह किनारा
जहाँ खो गए तुम
वक़्त की लहरों में।
आपकी यह उत्कृष्ट रचना ‘ब्लॉग प्रसारण’ http://blogprasaran.blogspot.in पर कल दिनांक 6 अक्तूबर को लिंक की जा रही है .. कृपया पधारें ...
साभार सूचनार्थ
Aabhar...
Deleteकैलाश जी बहुत ही बढ़िया रचना... पुराने दिन याद हो आये
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति-
ReplyDeleteआभार आदरणीय-
नवरात्रि की शुभकामनायें-
सुन्दर रचना ......नमस्ते भैया .
ReplyDeleteअंतर्व्यथा की सुन्दर अभिव्यक्ति, बधाई.
ReplyDeleteवक़्त यूं ही इम्तिहान लेता है ... मन की अंतरव्यथा को बखूबी लिखा है ।
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