भूल कर ज़मीन पैरों तले
और सिर ऊपर आसमान,
विस्मृत कर रिश्ते और संबंध
बढ़ता गया आगे
छूने की चाह में
आकांक्षाओं का क्षितिज।
जब भी बढाया हाथ
छूने को क्षितिज
पाया उसे उतना ही दूर
जितना यात्रा के प्रारंभ में।
खड़ा हूँ आज
उसी ज़मीन पर
उसी आसमान तले
जूझता अकेलेपन से
क्षितिज से दूर।
....कैलाश शर्मा
nc / sr
ReplyDelete------------------- kal likha tha kuch -----http://sowaty.blogspot.in/2013/11/blog-post_22.html
भूत से प्रताड़ित और भविष्य की खोज में 'वर्तमान' का आनन्द नहीं ले सकनेवालों के लिए एक प्रेरणा है यह कविता।
ReplyDeleteऐसा ही तो होता है, बहुत कुछ पाने की चाह में हम अक्सर ऐसा कुछ खोते चले जाते हैं कि अंत में शेष रह जाता है, केवल अकेला पन...भावपूर्ण अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबढ़ता गया आगे
ReplyDeleteछूने की चाह में
आकांक्षाओं का क्षितिज।
.... भावमय करते शब्दों का संगम
ठीक कहा आपने .....दूर..बहुत दूर .....छूने को जीवन कम है ?
ReplyDeleteआकांक्षाओं की दौड़ में मानव रिश्तों से कट जाता है...सुन्दर रचना...
ReplyDeleteहर चीज पाने कि चाह में बहुत कुछ छूट जाता है ....
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत पंक्तियां..!!
कुछ पाने कि चाह और कुछ छूटने का गम...
ReplyDeleteभावपूर्ण अभिव्यक्ति....
:-)
बहुत अर्थपूर्ण रचना
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना सर , धन्यवाद
ReplyDeleteये अकेलापन और क्षितिज को छूने की चाह ..... जीवन इसी दोराहे में उलझा रह जाता है ....
ReplyDeleteयही कोशिश धरा के आनंद से वंचित कर देता है.जरूरी है धरती पर का आनंद ना छूट पाए. बहुत सुन्दर रचना.
ReplyDeleteअधूरी आकांक्षाओं के प्रतिफलित ना हो पाने की पीड़ा को बखूबी बयान करती बहुत सुंदर सार्थक प्रस्तुति ! बहुत उत्कृष्ट रचना !
ReplyDeleteयही तो होता है.. पर समझने में पूरा जीवन बीत जाता है ..सुन्दर रचना.
ReplyDeleteजीवन यात्रा का सार ...बहुत सुन्दर तरीके से बताया सर आपने
ReplyDeleteबहुत ही गहन अभिव्यक्ति, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
सुन्दर रचना......
ReplyDeleteकुछ पाने की चाह अक्सर भ्रम के जाल में उलझा देती है ... फिर थकान ही मिलती है ... शिखर तो वहीं रहता है ...
ReplyDeleteममर्स्पर्शी .... जीवन के कितने रंग हैं जाने
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना.
ReplyDeletebeautiful..
ReplyDeleteछूने की चाह में
आकांक्षाओं का क्षितिज.. it's limitless, keep expanding... going further n further !!
जब भी बढाया हाथ
ReplyDeleteछूने को क्षितिज
पाया उसे उतना ही दूर
जितना यात्रा के प्रारंभ में।
क्षितिज दूर है तभी तो उसमें आकर्षण है..यहाँ जो मिल जाता है वह अनचाहा हो जाता है..
बहुत खूब, लाजवाब रचना।
ReplyDeleteसुंदर रचना !
ReplyDeleteआकांक्षाओं के क्षितिज पर हद से ज़्यादा ऊँची उड़ान भरने पर अकेलापन ही हाथ आता है...अक्सर...
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति सर!
~सादर!!!
वाह बहुत ही सुन्दर |
ReplyDeleteखड़ा हूँ आज
ReplyDeleteउसी ज़मीन पर
उसी आसमान तले
जूझता अकेलेपन से
क्षितिज से दूर।
वाह !!! बहुत सुंदर और प्रभावशाली रचना
सादर
आग्रह है--
आशाओं की डिभरी ----------
खड़ा हूँ आज
ReplyDeleteउसी ज़मीन पर
उसी आसमान तले
जूझता अकेलेपन से
क्षितिज से दूर।
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteकल 28/11/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
धन्यवाद!
बहुत बढ़िया ..
ReplyDeleteक्षितिज तो हमेश दूर है मृग -मरीचिका है !-बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteनई पोस्ट तुम