मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश:
पंद्रहवां अध्याय
(पुरुषोत्तम-योग-१५.११-२०) सतत साधना युक्त ही योगी
स्व स्थित आत्म देख हैं पाते.
मूढ़ विकारी जन आत्मा को
करके प्रयत्न भी देख न पाते. (१५.११)
सर्व जगत प्रकाशित करता
सूरज का वह तेज है मेरा.
चन्द्र और अग्नि का तेज है
उसे तेज समझो तुम मेरा. (१५.१२)
पृथ्वी में स्थित ओज से अपने
सर्व चराचर जग धारण करता.
मैं ही रसमय सोम है बन कर,
सब औषधियों का पोषण करता. (१५.१३)
मैं जठराग्नि के स्वरुप में
समस्त देह में स्थित रहता.
प्राण और अपान शक्ति से
चार अन्न का पाचन करता. (१५.१४)
समस्त जनों के ह्रदय में स्थित
स्मृति, ज्ञान व विस्मृति करता.
ज्ञान कराते हैं सब वेद ही मेरा
मैं कर्ता वेदान्त व वेदों का ज्ञाता. (१५.१५)
केवल दो ही पुरुष लोक में,
उनको क्षर व अक्षर कहते.
सब प्राणी की संज्ञा क्षर है
जीवात्मा अक्षर हैं कहते. (१५.१६)
उत्तम पुरुष भिन्न दोनों से
उसको है परमात्मा कहते.
निर्विकार रह कर भी ईश्वर
तीनों लोकों का पोषण करते. (१५.१७)
क्योंकि मैं क्षर से ऊपर हूँ
व अक्षर से भी उत्तम.
अतः लोक और वेदों में
जाना जाता मैं पुरुषोत्तम. (१५.१८)
बुद्धिमान जन हे भारत!
मुझको पुरुषोत्तम रूप जानता.
वह समग्र सर्वज्ञ भाव से
केवल मेरा ही है अर्चन करता. (१५.१९)
मैंने गुह्य सम्पूर्ण शास्त्र है
तुमको बता दिया है अर्जुन.
हो जाता कृतकृत्य जान कर
जिसको बुद्धिमान ज्ञानी जन. (१५.२०)
**पंद्रहवां अध्याय समाप्त**
.....क्रमशः
....कैलाश शर्मा
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ReplyDeleteआदरणीय सर , शुद्ध व सरल , सुंदर भाव , बहुत बढ़िया
ReplyDeleteनया प्रकाशन -: प्रतिभागी - श्री राजेश कुमार मिश्रा ( आयुर्वेदाचार्य )
॥ जै श्री हरि: ॥
साधना का मार्ग दर्शाती …… क्षर और अक्षर का भेद बताती उत्तम रचना …
ReplyDeleteकृतकृत्य हुए पढ़कर।
bahut badhiya anuvad
ReplyDeleteबहुत सुंदर उत्कृष्ट अनुवाद ....!
ReplyDelete==================
नई पोस्ट-: चुनाव आया...
संध्याकालीन अभिवादन !
ReplyDeleteवासव में गीता अध्यात्म का सही मार्ग है और धर्म के सही ज्ञान का माध्यम भी !! आप का प्रयास है !!
मुझ पर कर दो जीवन आश्रित,
ReplyDeleteपंथ करो ऐसे परिभाषित।
OM NAMAH SHIWAY
ReplyDeleteutkrisht anuwad
ReplyDeleteसुन्दर अनुवाद
ReplyDeleteसच में सतत साधना से युक्त मनुष्य ही अपनी आत्मा का दर्शन कर पाते हैं ..... बहुत खूबसूरत रचना ...
ReplyDeleteआलोकिक आनंद ... बहुत बहुत शुभकामनायें ...
ReplyDeleteज्ञान की नई सीढ़ी......।
ReplyDeleteअदभुद !
ReplyDeleteसमस्त जनों के ह्रदय में स्थित
ReplyDeleteस्मृति, ज्ञान व विस्मृति करता.
ज्ञान कराते हैं सब वेद ही मेरा
मैं कर्ता वेदान्त व वेदों का ज्ञाता. (१५.१५)
केवल दो ही पुरुष लोक में,
उनको क्षर व अक्षर कहते.
सब प्राणी की संज्ञा क्षर है
जीवात्मा अक्षर हैं कहते. (१५.१६)
बहुत सुन्दर अनुवाद,, गीता तो सब धर्मों का सार है,इससे बड़ा कोई ग्रन्थ नहीं.
अभिव्यक्ति का शिखर छू रही है ये रचना।भाव सार गीता का , शुक्रिया शुक्रिया शुक्रिया !
ReplyDeleteइस उत्कृष्ट अनुवाद के लिए बहुत बहुत आभार
ReplyDeleteवाह ..
ReplyDeleteनमन आपको !!
खूबसूरत रचना ..
ReplyDeleteउत्कृष्ट अनुवाद...
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