Wednesday, January 08, 2014

तनहाई

नहीं बैठता कागा
इस घर की मुंडेर पर,
नहीं सुनायी देती 
अब उसकी आवाज़,
गुज़र जाता मौन
छत के ऊपर से,
पता है उसको 
नहीं आता कोई 
इस सुनसान घर में,
नहीं चाहता जगाना 
झूठी आशा
तन्हा दिल में।


******
सुनी है कभी 
खामोशी की आवाज़ 
चीखती है सन्नाटे में 
मिटाने को अकेलापन 
सुनसान कोनों का.

.....कैलाश शर्मा

40 comments:

  1. ऐसे वीराने में एक दिन घुट के...................

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  2. आपकी प्रस्तुति गुरुवार को चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है |
    आभार

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  3. भावो का सुन्दर समायोजन......

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  4. Extremely well written and well presented .. kudos to u

    plz visit :
    http://swapnilsaundaryaezine.blogspot.in/2014/01/vol-01-issue-04-jan-feb-2014.html

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  5. This comment has been removed by the author.

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  6. सुन्दर भाव संयोजन

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  7. वाह बहुत खूब ! मर्म को छूती बहुत ही कोमल रचना ! अति सुंदर !

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  8. प्रणाम सरजी... ! बेहतरीन उदास रचना.. ! शून्य का कर्कश कालापन.. !

    वाह !

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  9. मर्मस्पर्शी रचना
    सुनी है कभी
    खामोशी की आवाज़
    चीखती है सन्नाटे में
    मिटाने को अकेलापन
    सुनसान कोनों का.

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  10. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.

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  11. खामोशी की आवाज़
    चीखती है सन्नाटे में .... WAKAI.. BOHAT KHOOB

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  12. खामोशियाँ ...भावपूर्ण अभिव्यक्ति...

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  13. सुन्दर प्रस्तुति-
    आभार आपका-

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  14. बहुर सुन्दर भाव से सजी रचना !
    नई पोस्ट सर्दी का मौसम!
    नई पोस्ट लघु कथा

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  15. कल 10/01/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!

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  16. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन कहीं ठंड आप से घुटना न टिकवा दे - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  17. बहुत सुंदर रचना...

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  18. तनहाई होती ही है जानलेवा। बहुत भावपूर्ण रचना।

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  19. भावपूर्ण अभिव्यक्ति

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  20. ख़ामोशी ,सुनसान और आवाज की जुगलबंदी कमाल है !

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  21. बेहतरीन मर्मस्पर्शी रचना कैलाशा जी

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  22. भावमय करते शब्‍दों का संगम

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  23. यही तो अच्छी तरह सुनाई देती है। सुंदर रचना

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  24. सन्नाटे की चीख और खामोशी की आवाज़ .... वाह !

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  25. बहुत शोर करती है कभी-कभी ये ख़ामोशी भी … मर्मस्पर्शी भाव

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  26. बहुत सुन्दर

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  27. इस मौन में भी कोई बोलता है...सर पर हाथ कोई अदृश्य डोलता है...आभार !

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  28. कई बार चुभती तो है आवाज़ कागा की ... पर फिर लगता है जरूरी है ये तन्हाई के आलम से बाहर आने को ...
    काश की कागा हर मुंडेर पे बोले ...

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