चौराहे पर खड़ा हूँ कब से,
भ्रमित चुनूँ मैं राह कौन सी।
कौन राह मंज़िल को जाए,
अंध गली ले जाय कौन सी।
भ्रमित चुनूँ मैं राह कौन सी।
कौन राह मंज़िल को जाए,
अंध गली ले जाय कौन सी।
जितने पार किये चौराहे,
नया दर्द हर राह दे गयी।
बोझ बढ़ गया है कंधों पे,
दृष्टि धूमिल आज हो गयी।
नया दर्द हर राह दे गयी।
बोझ बढ़ गया है कंधों पे,
दृष्टि धूमिल आज हो गयी।
कितने मीत बने रस्ते में,
चले गये सब अपनी राहें।
दूर कारवां चला गया है,
तकता अब बस सूनी राहें।
चले गये सब अपनी राहें।
दूर कारवां चला गया है,
तकता अब बस सूनी राहें।
सूनी राहों पर चलते रहना,
शायद यही नियति है मेरी।
घिरा हुआ था कभी भीड़ से,
भूल गया क्या खुशियाँ मेरी।
शायद यही नियति है मेरी।
घिरा हुआ था कभी भीड़ से,
भूल गया क्या खुशियाँ मेरी।
क्या उद्देश्य यहाँ आने का,
भूल गया जग की माया में।
अंतस की आवाज़ सुनी न,
कुछ पल रिश्तों की छाया में।
भूल गया जग की माया में।
अंतस की आवाज़ सुनी न,
कुछ पल रिश्तों की छाया में।
सांध्य अँधेरा लगा है बढ़ने,
नहीं सुबह की आस है बाक़ी।
पैमाना खाली, पर उठ चल,
चली गयी महफ़िल से साक़ी।
नहीं सुबह की आस है बाक़ी।
पैमाना खाली, पर उठ चल,
चली गयी महफ़िल से साक़ी।
....कैलाश शर्मा
बहुत खूब। अकेलेपन की हद हो गई।
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना..
ReplyDeleteसांध्य अँधेरा लगा है बढ़ने,
ReplyDeleteनहीं सुबह की आस है बाक़ी।
पैमाना खाली, पर उठ चल,
चली गयी महफ़िल से साक़ी...
सच है की महफिर खाली हो गयी पर जब तक बंद हो जाए ... चलेगी ... अंतिम सांस तो लेनी ही पड़ती है ...
भाव पूर्ण ...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (28-10-2014) को "माँ का आँचल प्यार भरा" (चर्चा मंच-1780) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच के सभी पाठकों को
छठ पूजा की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार...
Deleteकितने मीत बने रस्ते में,
ReplyDeleteचले गये सब अपनी राहें।
दूर कारवां चला गया है,
तकता अब बस सूनी राहें।
=कडवी सच्चाई ...... उम्दा रचना
वाह बहुत बढ़िया ।
ReplyDeleteजीवन का सत्य उद्घाटित है इस रचना में, सादर बधाई
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ।
ReplyDeleteवाह ! बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति !
ReplyDelete'क्या उद्देश्य यहाँ आने का,
ReplyDeleteभूल गया जग की माया में।
अंतस की आवाज़ सुनी न,
कुछ पल रिश्तों की छाया में।'
- यही तो दुनिया है !
बहुत गहरी प्रस्तुति,भीड में भी अकेले हैं हम सभी.
ReplyDeleteअकेलापन भ्रमित भी करता है तो कभी-कभी अपने तक ले भी जाता .है
जीवन के चोराहे मुश्किल हैं .....सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति , सर धन्यवाद !
ReplyDeleteI.A.S.I.H - ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )
जीवन का सत्य लिखा है आपने. सुन्दर रचना. द्रष्टि से आपका दृष्टि तो नहीं?
ReplyDeleteगूगल transliteration से कोशिश करने पर भी मैं दृष्टि टाइप नहीं कर पाया. अब आपके लिखे को कॉपी करके सुधार दिया है...आभार
Deleteराहें जिंदगी की कई कहानियाँ कह जाती हैं
ReplyDeleteसुन्दर !
अंतस की आवाज़ सुनी न,
ReplyDeleteकुछ पल रिश्तों की छाया में।'
- यही तो दुनिया है ...बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति !
Recent Post कुछ रिश्ते अनाम होते है:) होते
बेहद भावपूर्ण और यथार्थपरक अभिव्यक्ति... इस बेहतरीन रचना के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@आंधियाँ भी चले और दिया भी जले
नयी पोस्ट@श्री रामदरश मिश्र जी की एक कविता/कंचनलता चतुर्वेदी
क्या ही सटीक बात !
ReplyDeleteजितने पार किये चौराहे,
नया दर्द हर राह दे गयी।
कल 30/अक्तूबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
आभार...
Deleteदुनिया के मेले में हर कोई अकेला है. भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteचौराहों पर ही जाने कब शाम हो जाती है जीवन की।
ReplyDeleteकश्मकश को अच्छे शब्द भाव मिले !
सुंदर प्रभावी रचना...
ReplyDeleteजीवन का सच
ReplyDeleteसूनी राहों पर चलते रहना,
ReplyDeleteशायद यही नियति है मेरी।
घिरा हुआ था कभी भीड़ से,
भूल गया क्या खुशियाँ मेरी।
चौराहे पर आदमी ! आदमी की वास्तविक कहानी को कहते सार्थक शब्द