प्रकाश स्तम्भ
नहीं एक मंज़िल,
सिर्फ़ एक संबल
दिग्भ्रमित नौका को,
दिखाता केवल राह
लेना होता निर्णय
चलाना होता चप्पू
स्वयं अपने हाथों से।
नहीं एक मंज़िल,
सिर्फ़ एक संबल
दिग्भ्रमित नौका को,
दिखाता केवल राह
लेना होता निर्णय
चलाना होता चप्पू
स्वयं अपने हाथों से।
आसान है सौंप देना
नाव लहरों के सहारे
शायद पहुंचे किसी तट पर
न हो जो इच्छित मंज़िल
या डूब जाए बीच धारा में,
केवल प्रकाश स्तम्भ
या पतवार नौका में
कब है पहुंचाती
नाव लहरों के सहारे
शायद पहुंचे किसी तट पर
न हो जो इच्छित मंज़िल
या डूब जाए बीच धारा में,
केवल प्रकाश स्तम्भ
या पतवार नौका में
कब है पहुंचाती
इच्छित मंज़िल को,
करनी होती स्थिर
दृष्टि प्रकाश स्तम्भ पर,
चलाने होते पतवार अपने हाथों से
रोकने को बहने से नाव
लहरों के साथ।
करनी होती स्थिर
दृष्टि प्रकाश स्तम्भ पर,
चलाने होते पतवार अपने हाथों से
रोकने को बहने से नाव
लहरों के साथ।
....©कैलाश शर्मा
बहुत सुंदर भाव
ReplyDeleteउम्दा रचना
ReplyDeleteमार्गदर्शिका,आत्मविश्वास जगाने वाली बहुत हीं भावपूर्ण रचना!
ReplyDeleteUttam
ReplyDeleteUttam
ReplyDeleteखूबसूरत रचना।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (27-09-2015) को "सीहोर के सिध्द चिंतामन गणेश" (चर्चा अंक-2111) (चर्चा अंक-2109) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार...
Deleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, आए हाए तेरी अंग्रेजी - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteआभार...
Deleteभावपूर्ण और प्रभावी रचना
ReplyDeleteउत्क्रष्ट प्रस्तुति
सादर
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 28 सितम्बर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
ReplyDeleteआभार...
Deleteसुन्दर भाव सृजन
ReplyDeleteबिलकुल सच कहा है ... स्वयं ही हाथ उठाने होते हैं ... जगाना होता है आत्मविश्वास ...
ReplyDeleteसही कहा है..प्रकाश स्तम्भ और पतवार तो मिल ही जायेंगे..मुसाफिर चाहिए..दिल में भरे जोश..
ReplyDeleteआत्म बिशवास है । तो मंजिल भी मिल ही जाएगी । बहुत सुंदर ।
ReplyDeleteचलाना होता चप्पू
ReplyDeleteस्वयं अपने हाथों से।
जीवन की सफलता का सार यही है ।
इस प्रेरक कविता के लिए आभार !
प्रेरणादायी।
ReplyDeleteबेहतरीन रचना........
ReplyDeleteसच है ऐसा एक संबल ही चाहिए आगे बढ़ने की राह में.
ReplyDeleteसच है प्रकाश स्तम्भ केवल राह बताता है मंजिल तक जाने में चलना तो खुद ही होता है. गहन अभिव्यक्ति.
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करनी होती स्थिर
ReplyDeleteदृष्टि प्रकाश स्तम्भ पर,
चलाने होते पतवार अपने हाथों से
रोकने को बहने से नाव
लहरों के साथ।
प्रेरित करते सुन्दर शब्द आदरणीय श्री कैलाश शर्मा जी !! बहुत बेहतर