घर के आँगन में,
आशा में
बड़े होकर देगा फल
और घनी छांव
जिसके नीचे
सुकून से बैठूँगा बुढापे में.
तेज धूप से दी उसे छांव,
जब भी देखा उसको मुरझाते
किया सिंचित और
सहलाया प्यार से,
उसको बढते देखने में ही
होगयीं सारी खुशियाँ केंद्रित.
क्या कहूँ
नियति का खेल
या मेरा प्रारब्ध,
आज वह पौधा
जब बन गया विशाल वृक्ष ,
उसके फल
मेरी पहुँच से बहुत ऊँचें,
उसकी छांव पड़ती है
दूसरे आँगन में,
और मैं खड़ा हूँ
तपती धूप में
ढूंढता ठंडक
अपनी ही परछाईं की
छाया में.
उसकी छांव पड़ती है
ReplyDeleteदूसरे आँगन में,
और मैं खड़ा हूँ
तपती धूप में
ढूंढता ठंडक
अपनी ही परछाईं की
छाया में.
ज़िन्दगी का कडवा सच कह दिया।
आज के परिवेश को बताती सच्ची रचना ....अब तो बिना किसी उम्मीद के ही पौधों ( बच्चों ) की परवरिश करनी चाहिए ...
ReplyDeleteउसके फल
ReplyDeleteमेरी पहुँच से बहुत ऊँचें,
उसकी छांव पड़ती है
दूसरे आँगन में,
और मैं खड़ा हूँ
तपती धूप में
वर्तमान परिवेश को पूरी तरह से अभिव्यंजित करती कविता ....अब तो किसी से कोई आस रखने की जरुरत नहीं ..बस अपना फर्ज अदा करो .....शुक्रिया
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (2/12/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
आज के इस "वर्तमान" को
ReplyDeleteबखूबी परिभाषित करती हुई
नायाब रचना ...
शब्द-शब्द मन में कहीं गहरे उतर रहा है
अभिवादन .
आज वह पौधा
ReplyDeleteजब बन गया विशाल वृक्ष ,
उसके फल
मेरी पहुँच से बहुत ऊँचें,
उसकी छांव पड़ती है
दूसरे आँगन में,
और मैं खड़ा हूँ
तपती धूप में
ढूंढता ठंडक
अपनी ही परछाईं की
छाया में.....
वाह कैलाश जी ... आज की आपकी रचना ने निशब्द कर दिया ... .उम्दा प्रस्तुति .. ..
वह पौधा वृक्ष होकर किसी और राही को छाया दे रहा है ...
ReplyDeleteमानती हूँ कि यह आत्मसंतोष इतना आसान नहीं ...
मगर दिल तो बहल जाएगा ...!
आज वह पौधा
ReplyDeleteजब बन गया विशाल वृक्ष ,
उसके फल
मेरी पहुँच से बहुत ऊँचें,
उसकी छांव पड़ती है
दूसरे आँगन में,
और मैं खड़ा हूँ
तपती धूप में
ढूंढता ठंडक
अपनी ही परछाईं की
छाया में
बहोत ही सुन्दर प्रस्तुति
बहुत ही गहराई से बहुत ही बड़ी बात कहती हुई,दिल को छू लेने वाली कविता.
ReplyDeleteसादर
बागबां का धर्म यही
ReplyDeleteतूफा से बचाये पौधे को
इक दिन फल पक कर गिरने पर
तेरी ही झोली ढूढेगा
गूढ अर्थों से सज्जित... जीवन का यथार्थ । उत्तम.
ReplyDeleteआज वह पौधा
ReplyDeleteजब बन गया विशाल वृक्ष ,
उसके फल
मेरी पहुँच से बहुत ऊँचें,
उसकी छांव पड़ती है
दूसरे आँगन में,
और मैं खड़ा हूँ
तपती धूप में
ढूंढता ठंडक
अपनी ही परछाईं की
छाया में.....
वाह कैलाश जी .बहुत ही गहराई से बहुत ही बड़ी बात कहती हुई,दिल को छू लेने वाली कविता... आज की आपकी रचना ने निशब्द कर दिया ... .उम्दा प्रस्तुति .. ..
आज के परिवेश पर सीधा कटाक्ष.
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी रचना.
jindgi ke yatharth ka marmik chitr hai....
ReplyDeletehridayshparsi evam marmik rachna...
dil ko chhoo gayee !
दूर हो गए फल जो पंछी खायेंगे वे भी तो उसी ने बनाये हैं जिसने उसे जिसके आंगन में छाया पड़ती है,जब तक खुद से दूरी है तभी तक कोई पराया है, अब तो सारी शिकायत छोड़ कर उस एक का पता लगाना है, है न?
ReplyDeleteबाऊ जी,
ReplyDeleteनमस्ते!
कविता तो अच्छी है, मगर कल्पना ही रहे तो बेहतर!
सादर,
आशीष
--
नौकरी इज़ नौकरी!
उसकी छांव पड़ती है
ReplyDeleteदूसरे आँगन में
और मैं खड़ा हूँ
तपती धूप में
ढूंढता ठंडक
अपनी ही परछाईं की
छाया में
कविता पढ़कर मन ने इस में व्यक्त भावों के साथ तादात्म्य महसूस किया।
आभार आपका।
यही जीवन का कटु सत्य है आजकल के समय में...जिस से सबको रु-ब-रु होना है. सुंदर रचना.
ReplyDeleteकैलाश जी,
ReplyDeleteआपने जीवन की कड़वी सच्चाई को बड़ी ही सहजता से उकेरा है, कविता मन को उद्वेलित करती है !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
पेड़ की क्या घरों की भी यही हालात है. दो दो निशाने साधती है ये कविता.बढ़िया है.
ReplyDeleteबड़े भाई प्रणाम //
ReplyDeleteआप छोटे भाई के ब्लॉग पर आये ....मेरी ख़ुशी का क्या कहना //
बड़ा ही गंभीर बात आपने बातो बातो में कह डाली //
आज के बच्चे पढ़ लिखकर विधेश चले जा रहे है //
माँ -पिता की स्थिति तो दसरथ जैसी हो जा रही है //
मैंने भी इसी संदर्भव में likha hai //
आज वह पौधा
ReplyDeleteजब बन गया विशाल वृक्ष ,
उसके फल
मेरी पहुँच से बहुत ऊँचें,
उसकी छांव पड़ती है
दूसरे आँगन में,
और मैं खड़ा हूँ
तपती धूप में
ढूंढता ठंडक
अपनी ही परछाईं की
छाया में.....
बहुत गहराई से लिखी गई रचना और जीवन का कटु सत्य...बहुत सुंदर
Expectations are the cause of pain...
ReplyDeleteVery deep thought.. Sangeeta ji ki baat se sahmat hu m bhi
बहुत खूब .. ये जीवन भी कुछ कुछ ऐसा ही है ... आज का दौर है ये ... अपने भी अपनों को चंव नहीं देना चाहते ....
ReplyDeleteज़िन्दगी का कडवा सच|दिल को छू लेने वाली कविता|
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना मंगलवार 07-12 -2010
ReplyDeleteको छपी है ....
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
papa ki yaad aa gayi... bahut sunder rachna!
ReplyDeleteye kaisi vidambana hai...!!!
ReplyDeletesundar gahan abhivyakti!!
और मैं खड़ा हूँ
ReplyDeleteतपती धूप में
ढूंढता ठंडक
अपनी ही परछाईं की
छाया में.
अपनी छाया में रहना होगा
Oh my god sir....kya khoob kaha hai aapne, ped ki chhaanv tale, kitni badi baat keh gaye aap, bas yahi chahungi, ke mere papa ko kabhi aisi nazm ikhne ka mauka na mile....pranaam aapko sir
ReplyDeleteअफ़सोस ...
ReplyDeleteभविष्य में आपको पढने के लिए मैं आपका प्रसंशक बन रहा हूँ आप वाकई अच्छा लिखते हैं !
शुभकामनायें !
कटु सत्य! आज के परिवेश का. क्या कहें, सब समझ ले तो छाँव के लिए यूँ सोचना नहीं पड़ेगा.
ReplyDeletesir baton hi baton me aapne bahut hi jyada gahri bat kah di......dil ko chu gayi yah rachna kisi din copy karke apne bhai ko send karugi.......:-)
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