कभी देवी बनाकर
मन्दिर में
सिंहासन पर बैठाया.
समझ कर ज़ागीर
कभी जूए में
दांव पर लगाया.
और कभी बनाकर सती
जिंदा चिता में जलाया.
कुचल कर अरमानों को
बनाया कभी नगरवधू
तो कभी देवदासी.
परिवार की इज्ज़त के नाम पर
अपनों ने ही
लटका के पेड से
कभी दी फांसी.
बेटी, पत्नी और माँ बनकर
जी रही हूँ सदियों से,
पर नहीं जी पायी
एक दिन के लिए भी
सिर्फ़ अपने लिये
केवल
एक नारी बनकर.
क्यों थमा दी
प्रेम, ममता और त्याग
की वैसाखियाँ
मेरे हाथों में,
होने दो मुझे भी खड़ा
अपने पैरों पर.
मुक्त कर दो मुझे
कुछ क्षण को
इन सभी बंधनों से,
और अहसास करने दो
क्या होता है
जीना
सिर्फ़ एक नारी बनकर.
मन्दिर में
सिंहासन पर बैठाया.
समझ कर ज़ागीर
कभी जूए में
दांव पर लगाया.
और कभी बनाकर सती
जिंदा चिता में जलाया.
कुचल कर अरमानों को
बनाया कभी नगरवधू
तो कभी देवदासी.
परिवार की इज्ज़त के नाम पर
अपनों ने ही
लटका के पेड से
कभी दी फांसी.
बेटी, पत्नी और माँ बनकर
जी रही हूँ सदियों से,
पर नहीं जी पायी
एक दिन के लिए भी
सिर्फ़ अपने लिये
केवल
एक नारी बनकर.
क्यों थमा दी
प्रेम, ममता और त्याग
की वैसाखियाँ
मेरे हाथों में,
होने दो मुझे भी खड़ा
अपने पैरों पर.
मुक्त कर दो मुझे
कुछ क्षण को
इन सभी बंधनों से,
और अहसास करने दो
क्या होता है
जीना
सिर्फ़ एक नारी बनकर.
nari banker jine mein abhi waqt lagega thorisi tarakki hui hai per na ke baraabar
ReplyDeleteक्यों थमा दी
ReplyDeleteप्रेम, ममता और त्याग
की वैसाखियाँ
मेरे हाथों में,
होने दो मुझे भी खड़ा
अपने पैरों पर.
gahri abhivyakti
मुक्त कर दो मुझे
ReplyDeleteकुछ क्षण को
इन सभी बंधनों से,
और अहसास करने दो
क्या होता है
जीना
सिर्फ़ एक नारी बनकर.
बहुत खुबसूरत प्रस्तुति
बहुत बढ़िया सर!
ReplyDeleteप्रेम , ममता और त्याग
ReplyDeleteबैसाखियाँ नहीं हैं
हिस्सा हैं तुम्हारे वुजूद का
गर ये नहीं तो तुम नहीं
आत्महत्या न करो
मुक्ति के नाम पर
नारी होकर जीना है तो
बस काफ़ी है
ख़ुद की पहचान
बहुत सुन्दर कविता। इतना बाँध दिया है नारी को कर्तव्यों की डोर में।
ReplyDeleteआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (7-3-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
very nice.
ReplyDeleteek sunder rachana....
ReplyDeletebadhai ho...
jai baba banaras...
क्यों थमा दी
ReplyDeleteप्रेम, ममता और त्याग
की वैसाखियाँ
मेरे हाथों में,
होने दो मुझे भी खड़ा
अपने पैरों पर.
भगवान को नारि से योग्य कोइ लगा ही नहि जिसे ये काम सौप पाते इस्लिए नारि को हि ये सब थमा दिया.
बहुत सुन्दर कविता.
मुक्त कर दो मुझे
ReplyDeleteकुछ क्षण को
इन सभी बंधनों से,
और अहसास करने दो
क्या होता है
जीना
सिर्फ़ एक नारी बनकर.
Kaash...kabhee aisa ho jaye!
अतिसुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति.
ReplyDelete"प्रेम, ममता और त्याग
की वैसाखियाँ" क्या वास्तव में वैसाखियाँ हैं नारी के लिए?
नारी मन की सच्ची व्यथ कथा ....बहुत सुंदर
ReplyDelete*व्यथा
ReplyDeleteनारी मन की व्यथा-कथा. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeleteमुक्त कर दो मुझे
ReplyDeleteकुछ क्षण को
इन सभी बंधनों से,
और अहसास करने दो
क्या होता है
जीना
सिर्फ़ एक नारी बनकर...
बहुत खूब ... सच है कभी कभी प्रेम, ममता के बंधन कमजोर कर देते हैं नारी को ... भावनाओं में बाँध लेते हैं ...
सुंदर भावाभिव्यक्ति ! किन्तु मुझे लगता है प्रेम,ममता और त्याग बेडियाँ ही नहीं सीढियां भी बन सकती हैं किसी के भी लिये !
ReplyDeleteआपकी यह रचना एक कोशिश है समाज में जागरूकता फ़ैलाने की ...
ReplyDeleteसुंदर भावाभिव्यक्ति ! साधुवाद !
बेटी, पत्नी और माँ बनकर
ReplyDeleteजी रही है सदियों से,
और जी सकती है,
सदियों तक
पर उसे कभी नगरवधू
तो कभी देवदासी जैसे नाम न दो...
नारी तो है ही त्याग, ममता और बलिदान की मूर्ती बदले में सिर्फ और सिर्फ प्रेम और आदर की चाह रखती है... नारी ह्रदय की व्यथा कहती भावपूर्ण रचना... आभार
बहुत सुंदर ... आपने तो नारी की हर व्यथा कथा अपनी कविता में कह दी ...
ReplyDeleteमुक्त कर दो मुझे
ReplyDeleteकुछ क्षण को
इन सभी बंधनों से,
और अहसास करने दो
क्या होता है
जीना
सिर्फ़ एक नारी बनकर.
bahut sunder...!
प्रेरित करने वाली बहुत खूबसूरत रचना है । आपका बहुत बहुत आभार ।
ReplyDeleteमुक्त कर दो मुझे
ReplyDeleteकुछ क्षण को
इन सभी बंधनों से,
और अहसास करने दो
क्या होता है
जीना
सिर्फ़ एक नारी बनकर.
बहुत खूब.
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 08-03 - 2011
ReplyDeleteको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/
बहुत ही सुन्दर ! नारी की व्यथा का बखूबी चित्रण किया है आपने.
ReplyDeleteमुक्त कर दो मुझे
ReplyDeleteकुछ क्षण को
इन सभी बंधनों से,
और अहसास करने दो
क्या होता है
जीना
सिर्फ़ एक नारी बनकर.
बेहद ही खुबसुरत तरीके से आपने नारी मन की वेदना को उकेरा है।
नारी ह्रदय की व्यथा कहती भावपूर्ण रचना| धन्यवाद|
ReplyDeleteनमस्कार आपकी रचना बहुत अच्छी है । लेकिन नारी की पहचान ममता , स्नेह , करूणा ,धैर्य है । कहते हैं ब्रह्मा जी जब सृष्टि की रचना कर रहे थे तो किसी ने उनसे पूछा धरती पर भगवान कहां रहेंगें ? भगवान ने कहा मैं हर मां के दिल में रहूंगा । जब कोई मेरे दर्शन करना चाहे तो ममतामयी मां से मिल ले ।
ReplyDeleteआपका रसबतिया में स्वागत है शर्मा जी । अपना स्नेह बनाए रखिएगा
बहुत सुन्दर और सच्ची कविता है
ReplyDeleteबेटी, पत्नी और माँ बनकर
जी रही हूँ सदियों से,
पर नहीं जी पायी
एक दिन के लिए भी
सिर्फ़ अपने लिये
केवल
एक नारी बनकर
सच है एक महिला सब कुछ है माँ ,बहन बेटी ,पत्नि यहां तक कि देवी बस वो एक नारी ही नहीं है
उस के क्षमा ,दया ,त्याग जैसे गुणों का सम्मान करने की जगह इन गुणों की आड़ ले कर उस का लाभ उठाया जाता है लेकिन इन बातों के लिये मेरी दृष्टि में पुरुष वर्ग से ज़्यादा महिला वर्ग ही ज़िम्मेदार है
कैलाश जी,सुंदर अभिव्यक्ति !
मैं तो आप के विचार से सह्मत हूं
क्यू थमा दी मु्झे प्रेम ममता और त्याग की बैसाखियां,
ReplyDeleteमुझे भी अपने पैरों पर खड़ा होने दिजिये।
बेहतरीन अभिव्यक्ति, ख़ूबसूरत रचना मुबारकबाद कैलाश जी।
महिला दिवस पर आपकी रचना दुबारा पढ़ी और आज लगा कि कितनी आत्मीयता से आपने नारी के पूरे इतिहास को खोल कर रख दिया है अतीत में बहुत जुल्म हुआ है नारी पर लेकिन अब और नहीं, हमें अपनी पहचान स्वयं निर्मित करनी होगी ! आभार!
ReplyDeleteकैलाश जी ,
ReplyDeleteबहोत सुंदर रचना , बधाई स्वीकारे .
और मेरी रचना "महोब्बत ठहर जाती है" उस पर आप की टिपण्णी के लिए बहोत बहोत धन्यवाद्
पलक
आद. कैलाश जी,
ReplyDeleteक्यों थमा दी
प्रेम, ममता और त्याग
की वैसाखियाँ
मेरे हाथों में,
होने दो मुझे भी खड़ा
अपने पैरों पर.
मुक्त कर दो मुझे
कुछ क्षण को
इन सभी बंधनों से,
और अहसास करने दो
क्या होता है
जीना
सिर्फ़ एक नारी बनकर.
मैं नहीं समझता हूँ नारी पीड़ा को इस अंदाज़ में किसी ने प्रस्तुत किया है !
बहुत ही प्रभावशाली ! शब्द शब्द मन की संवेदना को छू गए !
आभार
कैलाश जी इस कविता का आरंभ होता है 'देवी' शब्द से, और अंत में कविता विश्राम पाती है 'नारी' शब्द के साथ| बीच में सारा का सारा नारी का संसारिक अनुभव वो भी युगों युगों वाला| ये आप की गहन विचार धारा और भाव प्रवणता का सशक्त उदाहरण है| आप जैसे अग्रजों से हम लोग बहुत कुछ सिख सकते हैं|
ReplyDeleteमुक्त कर दो मुझे
ReplyDeleteकुछ क्षण को
इन सभी बंधनों से,
और अहसास करने दो
क्या होता है
जीना
सिर्फ़ एक नारी बनकर.....
बेहतरीन भावपूर्ण रचना के लिए बधाई। अच्छी रचना है ....
बहुत ही सुंदर कविता और बिम्ब बधाई सर |
ReplyDeletemahila divas par sunder prastutikaran , badhai
ReplyDeleteSarthak rachna.
ReplyDeleteBadhayi.
---------
पैरों तले जमीन खिसक जाए!
क्या इससे मर्दानगी कम हो जाती है ?
सुन्दर कविता है ।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया नया अंदाज़ !! शुभकामनायें !
ReplyDeleteमैं पिछले कुछ महीनों से ज़रूरी काम में व्यस्त थी इसलिए लिखने का वक़्त नहीं मिला और आपके ब्लॉग पर नहीं आ सकी!
ReplyDeleteआपकी टिपण्णी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
बहुत सुन्दर और उम्दा रचना लिखा है आपने ! बेहतरीन प्रस्तुती!
आपकी लेखनी को सलाम !
priya sharma sahab
ReplyDeletepranam !
pahale mafi ,der se dussahas karne ki . dusara itani bhavya kavita se rubaru hone ki / ek kalamkar ke hanthon kalmbadh kavita jarur puchhati
hogi sajaya kaise . wastav men dil ko angikar
karati prastuti. aabhar.
आदरणीय कैलाश जी
ReplyDeleteनमस्कार !
इन सभी बंधनों से,
और अहसास करने दो
क्या होता है
जीना
सिर्फ़ एक नारी बनकर.....
बेहतरीन भावपूर्ण रचना के लिए बधाई। अच्छी रचना है