छूटा नहीं था
रंग अभी मेंहदी का
पर टूट गयीं
चूड़ी लाल हाथों की
और पुछ गया
सिन्दूर माथे का.
नहीं देखा किसी ने
मेरे अरमानों का ज़लना,
मेरे सपनों का बिखरना,
मेरा दर्द
बीच राह में लुट जाने का,
और थोप दिया
सारा दोष मेरे ऊपर
लगा कर एक दाग
मेरे माथे पर
शापित, दुर्भागी
और कलंकनी होने का.
क्या देखा है
किसी पुरुष को
विधुर होने पर
अभिशापित होने का
दाग लगते हुए,
अकेलेपन का बोझ ढ़ोते
या समाज से
बहिष्कृत होते हुए.
फिर क्यों?
फिर क्यों औरत को
विधवा होने पर
बना दिया जाता है
अभागी,
अनपेक्षित
और शापित,
और छोड़ दिया जाता है
बनारस या बृन्दावन की
गलियों में,
बैठने को कोठे पर
या फ़ैलाने को हाथ
गैरों के सामने
माँगने को भीख.
क्यों जलना होता है
हमेशा औरत को ही,
कभी सती बनकर,
और कभी तिल तिल कर
तिरष्कृत और अकेले
वैधव्य का बोझ ढ़ोते.
क्यों कर दिया जाता है
हमेशा मुझे ही शापित?
क्या देखा है
ReplyDeleteकिसी पुरुष को
विधुर होने पर
अभिशापित होने का
दाग लगते हुए,
अकेलेपन का बोझ ढ़ोते
या समाज से
बहिष्कृत होते हुए.
प्रत्येक शब्द एक सच कहता हुआ ...।
यक्ष प्रश्न है ……………मगर अब इस समाज को बदलना होगा……………मार्मिक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteस्त्री विमर्श को दिशा देती कविता... बहुत सुन्दर
ReplyDeleteएक पुरानी मगर बेहद सामयिक कालजई कृति बड़े भाई
ReplyDeleteअधिकतर मामले तो होते हैं
ReplyDeleteसम्पत्ति हडपने के --
वही बहू वही भाभी वही चाची
सौभाग्य शालिनी होती है
और जब बेटा भैया या चाचा
छोड़ के जाता है चल तो वही
बन जाती है अभागिन |
क्या वो माँ जिसका बेटा गया या वो,
जिसका भाई गया सौभाग्यशाली बने रहते हैं?
यदि नहीं तो बहू के समकक्षी हुए सभी
और यदि हाँ तो ये सौभाग्य--
बहू की धन-संपत्ति ही है और कुछ नहीं|
यह बात आज तक मैं भी नहीं समझ सकी कि उसका अकेलापन शाप क्यूँ है , और सुहागन मरना उसके हिस्से क्यूँ ? मृत्यु तो किसी को भी आती है.... साथवाले का दर्द , दूसरे इसे पाप क्यूँ बना देते हैं !
ReplyDeleteमार्मिक अभिव्यक्ति .. सही प्रश्न है !!
ReplyDeleteक्यों जलना होता है
ReplyDeleteहमेशा औरत को ही,
कभी सती बनकर,
और कभी तिल तिल कर
तिरष्कृत और अकेले
वैधव्य का बोझ ढ़ोते.
क्यों कर दिया जाता है
हमेशा मुझे ही शापित?
बहुत दर्दिले शब्दों में वैधव्य को चित्रित किया है आभार.....
बेहद मार्मिक लिखा है सर!
ReplyDeleteसादर
सुन्दर भावपूर्ण मार्मिक प्रस्तुति.सही सोच से इस दिशा में भी परिवर्तन आयेगा ही.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.......हैट्स ऑफ टू यू कैलाश जी इस पोस्ट के लिए........तस्वीर पोस्ट में चार चाँद लगा रही है .......सुभानाल्लाह|
ReplyDeleteबेहद भावविभोर कर देने वाली पंक्तियाँ समाज के चेहरे को एक बार फिर आइना दिखाती कविता, और अनुत्तरित प्रश्न उठाती भी बधाई कैलाश जी
ReplyDeletevaidhavy ek abhishap achchha likha hai
ReplyDeleteजलती हुई सच्चाई को समेटे मार्मिक कविता !
ReplyDeleteआभार !
मिलन -विछोह तो सास्वत है ,वैधव्य तो समाज की विकृतियों ने ,
ReplyDeleteआततायियों ने ,रुढ़िवादियों ने तथाकथित ठेकेदारों ने अपनी इच्छानुसार ,सुविधानुसार सृजित किया है ,कितना जघन्य कृत्य , ओफ़.../ निंदनीय .
मार्मिक काव्य- सृजन को वंदन .../
मन को झकझोर देने वाली रचना।
ReplyDelete---------
रहस्यम आग...
ब्लॉग-मैन पाबला जी...
क्यों जलना होता है
ReplyDeleteहमेशा औरत को ही,
कभी सती बनकर,
और कभी तिल तिल कर
तिरष्कृत और अकेले
वैधव्य का बोझ ढ़ोते.
क्यों कर दिया जाता है
हमेशा मुझे ही शापित?
Sach! Ye hamare samaj kee sab se badee trasadee hai!
Beahad achhee rachana!
aaj samaj me nari ke halaat itna badal jane par bhi sthiti vahi ki vahi hai....bharat ek purush pradhaan desh hai jaha nari ke prati soch ka dayra badhne me sadiyo lag jayengi.
ReplyDeletebahut marmsparshi rachna.
सच में दुर्भाग्यपूर्ण है, समानता हो।
ReplyDeleteप्रश्नों के उत्तर मांगती हुई सारगर्भित पोस्ट , आभार
ReplyDeleteमार्मिक अभिव्यक्ति.... प्रश्न उठाती रचना....
ReplyDeleteतस्वीर के साथ साथ बहुत सुन्दर और मार्मिक रचना लिखा है आपने! आपकी लेखनी को सलाम!
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
जिससे पुरुष के अहम् की संतुष्टि होती रहे। उसे हमेशा लगे कि ये काले और सफेद वस्त्र पहने हुए महिला पर हम कुदृष्टि डालने के हकदार हैं। हमने अपने आनन्द के लिए स्त्री नामक जीव को अपनी मुठ्ठी में कैद करके रखा है। लेकिन फिर भी पुरुष ही उसके लिए कविता लिखता है। कभी अपनी मानसिकता नहीं बताता कि मेरे मन में क्या चल रहा होता है जब एक सफेद वस्त्र में लिपटी महिला को देखता हूँ।
ReplyDeleteबहुत मार्मिक रचना है आपकी...वैधव्य पर श्री लोकेश 'साहिल' का एक दोहा देखिये
ReplyDeleteबिछुए कंगन चूड़ियाँ ,महंदी वाले हाथ
अम्मा की सजधज गयी, बाबूजी के साथ
बहुत बहुत सही कहा आपने....यही तो विडंबना है....
ReplyDeleteसार्थक और अत्यंत प्रभावशाली ढंग से विषय को रचना में ढाला है आपने...
साधुवाद !!!!
जो मैं कहना चाह रहा था, नीरज जी पहले ही कह चुके हैं
ReplyDeleteक्या देखा है
ReplyDeleteकिसी पुरुष को
विधुर होने पर
अभिशापित होने का
दाग लगते हुए,
अकेलेपन का बोझ ढ़ोते
या समाज से
बहिष्कृत होते हुए.
Arthpoorn prashn uthati rachna..... Bahut Sunder
maarmik rachna!
ReplyDeleteसार्थक रचना
ReplyDeleteसार्थक प्रश्न
......
अनादि काल से उठ रहे इस प्रश्न को मार्मिक कविता में ढाल कर विचारणीय - चिंतन करने को बाध्य कर दिया है.अहम्-ब्रम्हास्मि का ध्वज फहराती पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था क्या चिंतन कर पायेगी ?
ReplyDeleteयह प्रश्न सदियों से नारी मन को उद्वेलित करता रहा है पर कोइ उत्तर नहीं सब और चुप्पी है कोइ कुछ नहीं बोलता मेरी एक मित्र ने किसी सन्दर्भ में मुझसे कहा था देख बहिन एक आदमी ही तो चला जाता है पर पूरा जगत हमारा शरीर हमारी इच्छाएं तो नहीं बदलतीं फिर सारी अपेक्षाएं सारे दुःख सारी आलोचनाएं सिर्फ और सिर्फ ह्मारे हिस्से ही क्यों आती है
ReplyDeleteसमाज में यह अन्याय जाने कब से चला आ रहा है... औरत अब जाग रही है.. अपने अधिकारों के प्रति सजग भी लेकिन अभी लड़ाई बहुत लम्बी है.. सार्थक रचना !
ReplyDeleteक्यों जलना होता है
ReplyDeleteहमेशा औरत को ही,
कभी सती बनकर,
और कभी तिल तिल कर
तिरष्कृत और अकेले
वैधव्य का बोझ ढ़ोते.
क्यों कर दिया जाता है
हमेशा मुझे ही शापित?
:-( bahut sunder rachna