उदास है बरगद
अपने साये में छाये
सन्नाटे से.
खोगयी हैं
किलकारियां
छाया में खेलते
बच्चों की,
गुम हो गये हैं
नौजवान,
जो करते थे चर्चा
अपने प्रेम की
उसकी छाया में.
आज बैठे हैं मौन
कुछ चेहरे
अपनी झुर्रियों में
कितने दर्द की परतें चढाये,
ताकते उस सड़क को
जिससे अब कोई नहीं आता,
क्योंकि
युवा और बच्चे
खो गये हैं दूर
कंक्रीट के जंगल में
और भूल गये हैं रस्ता
बरगद तक वापिस आने का.
bilkul sach likha hai .....gaaon ki bargad ki chanv ,chaupal sab kuch khota ja raha hai
ReplyDeleteआजकल बरगद का दर्द सुनता ही कौन है?
ReplyDelete--
रचना बहुत अच्छी लिखी है आपने!
बरगद के माध्यम से बहुत गहरी बात कह दी।
ReplyDeleteप्रतीकों ,प्रतिमानों व आश्रयदानों का मजबूत हमसफ़र आज सूना अकेला जरुर है ,फिर भी लिखने का अकथनीय सबब जरुर बन गया है .....बहुत ही आकर्षक ,मार्मिक वर्णन ... नमन आपको ,लेखनी को ......
ReplyDeleteवास्तविक रचना..
ReplyDeleteइस छद्म विकास और उपभोगतावाद की कुछ कीमत चुकानी पड़ेगी हमे आप को और शयद बरगद को भी..
बरगद की विशाल छाँव हो या एसी की शीतल हवा?
ReplyDeleteयह भी बदलाब से आहत है सुंदर रचना, बधाई.....
ReplyDeletebahut hee khoobsurat kailash bhai
ReplyDeleteबरगद के माध्यम से बुजुर्गों के मन की टीस लिख दी है ..सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबरगद की टीस बहुत ही मार्मिक वर्णन ,सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteओह!! बहुत भावपूर्ण....सुन्दर!
ReplyDeleteबचपन में गाँव के बरगद के नीचे दुपहरी में खेलने जाया करते थे..यादें ताज़ा हो गयीं..बेहद भावपूर्ण अभिव्यक्ति सर..
ReplyDeleteबरगद को जीवन का प्रभावी प्रतीक बना दिया है आपने ....... सादर!
ReplyDeleteबरगद का प्रतीक लेकर आज कि परिवेश को और उसकी उपयोगिता को बहुत मजबूती से प्रस्तुत किया है कविता में. आभार.
ReplyDeleteBilkul sach likha hai. badhiya prastuti
ReplyDeleteआदरणीय कैलाश जी,
ReplyDeleteजब मैंने आपकी इस कविता को पढ़ा तो मेरे होश फाकता हो गये...
अरे ये तो मेरी एक कथा का काव्य-रूपांतरण है.
जो अभी तक अप्रकाशित है.
जिसमें एक वृक्ष की पीड़ा है ... उसके पास बच्चे अब नहीं आते...न ही उसपर चढ़ते हैं और न ही डालियों पर लटकते हैं, झूला डालकर झूलते हैं... हाय! अब उनको न जाने कौन ऐसा मिल गया है जो उन्हें व्यस्त रखता है... एक पक्षी कह रहा था "अब बच्चे घरों में ही खेलते हैं... कम्यूटर और टीवी से ही मन बहलाते हैं. उनकी मम्मियाँ उन्हें बाहर जाने को नहीं कहतीं. वे गंदे हो जायेंगे ना ! इसलिये"
........ आपकी कविता ने मुझे फिर से बचपन के समय में भेज दिया. आभार.
सच... बड़ा सुख होता है बाल-स्मृतियों का.
वैसे भी बरगद एक परिवार का प्रतीक है और परिवार में आज का युवा कहाँ रहना चाहता है?
ReplyDeleteaadarniy sir
ReplyDeletevilamb se aane ke liye xhama chahti hun.
aapki rachna nisaneh bahut hi marmik aur samyik hai jise aapne bade hi pratikatmakta ka prayog karke bahut hi bahatreen treeke se prastutt kiya hai .
bahut bahut badhai
sadar naman
poonam
बहुत अच्छा लिखा है सर!
ReplyDeleteसादर
बहुत खरी बात कह दी आपने। काश, इसे लोग महसूस कर पाते।
ReplyDelete---------
विलुप्त हो जाएगा इंसान?
ब्लॉग-मैन हैं पाबला जी...
आज बैठे हैं मौन
ReplyDeleteकुछ चेहरे
अपनी झुर्रियों में
कितने दर्द की परतें चढाये,
ताकते उस सड़क को
जिससे अब कोई नहीं आता,
क्योंकि
युवा और बच्चे
खो गये हैं दूर
कंक्रीट के जंगल में
और भूल गये हैं रस्ता
बरगद तक वापिस आने का.
बच्चों के दूर जाने का दर्द बरगद के दर्द जैसा ही है कभी इसी बरगद से गाँव की रोनक का अन्दाजा लगाया जाता था अज ये दर्द का एहसास करवाता है। बहुत अच्छी रचना। खास कर ये आखिरी पँक्तियाँ।
गुम-सुम सा आज, गांव का बरगद अपना |
ReplyDeleteपीपल पेड़ का बाकी निशान नहीं प्यारे ||
बरगद के मध्यम से कितना कुछ कह दिया ... ज़माने का कडुवा सच ... लाजवाब ...
ReplyDeleteआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (27-6-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
युवा और बच्चे
ReplyDeleteखो गये हैं दूर
कंक्रीट के जंगल में
और भूल गये हैं रस्ता
बरगद तक वापिस आने का.
बहुत ही भावुक रचना..... हार्दिक बधाई।
बरगदऋ संस्कार और संस्कृति का प्रतीक,
ReplyDeleteइस बरगद की ओर अब कोई झांकता भी नहीं।
शर्मा जी, इस रचना में एक सभ्यता की पीड़ा समाई हुई है।
इस श्रेष्ठ कविता के लिए आभार।
ओह्ह....बहुत सुन्दर...दर्द उभर कर आया है...
ReplyDeletebargad ko prateek roop me lena bahut hi sateek prayog raha. aajkal ke buzurgo ke akelepan ka dard bahut bariki se ukera hai.
ReplyDeleteवाकई हम लोग अकेले से रह गए हैं ...सब चले गए उन ऊंचे जंगलों में आनंद खोजने !
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
बरगद एक पेड़ नहीं परंपरा है. बरगद एक पेड़ नहीं पूरी संग्कृति है. इसका सूना हो जाना अपने पतन के शुरूआत होने का संकेत है. सोचनीय और कारण खोजने के लिए पूरी ऊर्जा के साथ झकझोरती काय वाणी. क्या हम सम्वेद्स्नशील रह गए हैं जो सुने इस दर्द को/ बाते इसके एहसास और अंतर्मन की पीड़ा को? देखना है इस बत ब्रिक्ष जिस्न्र पता नहीं कितनों का रराण किया है बच्पाब से बुढापे तद, क्या आज हम उसका ऋण चुकायेंगे याकन्नी काट जायेंगे? एहसान फरामोश और कृतघ्न कहलायेंगे? हम तो ठहरे मानव, धरती की सर्वोत्क्रिस्ट . रचना इस तुच्छ वृक्ष के बहकावे में क्यों आयेंगे? फिर भी है आशा, एक प्रत्याशा जो आगे बढकर आएगा, फर्ज अपना निभाएगा. ऐसे ही लोग होते हैं जो कहलाते हैं साधु और फ़कीर, कुछ उन्हें असभ्य और भिखारी भी कह देते हैं, लेकिन वे यह नहीं देखते पूरे साम्राज्य को त्याग कर फ़कीर चाँद बना है. उसके पास है पूँजी सामर्थ्य पूरी जगत की सुनने और सेवा करने के लिए.
ReplyDeleteबधाई बहुत बधाई इस प्यारी किन्तु सम्वेदन्शीएल रचना के लिए. बहुत पसंत आयी यह कविता....जो प्रकृति और संस्कृति से प्रति उपेक्षा को रेखान्तित करती है, कुछ करने को प्रेरित करती है.
बहुत सुन्दरता से आपने बरगद के दर्द को शब्दों में पिरोया है! शानदार रचना!
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
बेहद भावमय करती शब्द रचना ।
ReplyDeleteबरगद के माध्यम से बहुत अच्छा सन्देश देती पोस्ट........शानदार|
ReplyDeleteइस भाव पूर्ण रचना के लिए नमन करता हूँ आपकी लेखनी को....मेरी ह्रदय से बधाई स्वीकारें...
ReplyDeleteनीरज
आप भी मेरी तरह पर्यावरण-प्रेमी लगते हैं.
ReplyDeleteबरगद पर बेहतरीन रचना.
अपनत्व भरा बरगद खो गया है कंक्रीट के परायेपन के जंगल में उदास झुर्री दार चेहरे ताकते हैं उस राह को जो कहीं दूर खो गयी है...बहुत सुन्दर संवेदनशील रचना...कोटि कोटि शुभकामनाएं....
ReplyDeleteबहुत मार्मिक रचना, बरगद के बहाने आज के बदलते हुए हालात पर गहरा दुःख झलकता है आपकी कविता में..
ReplyDeleteशर्मा जी!
ReplyDeleteप्रणाम!
वटवृक्ष हमारी परम्परा का, हमारी संस्कृति का, हमारी दार्शनिक विचारधाराओं का प्रतीक है। सबको आत्मसात् करने वाला, सबका संरक्ष करने वाला, सबका सहयोगी है यह। इसकी शाखायें हमारे क्षैतिज दर्शनधारा को व्यक्त करती हैं। जिस प्रकार इसकी शाखायें एक साथ इस विशाल वृक्ष को अपने ऊपर टिकाये रहती हैं, उसी प्रकार हमारी सनातन संस्कृति को, हमारे बौद्धिक परम्परा को चार्वाक से लेकर अद्वैत वेदान्त तक विभिन्न दर्शनधारायें साथ-साथ मिलकर वाद-विवाद से परस्पर सहयोग करके टिकाये हुए हैं, जीवब्न्त बनाये हुए हैं उसके प्रवह को।
आज परिस्थितियाँ बदल गयी हैं। भले ही युवा पीढ़ी समय से कदम मिलाअकर चलने की होड़ में बरगद को भुला दे, उसकी शीतल छांव को भुला दे। परन्तु बरगद के दिन फिर बहुरेगें।
आज भी एक थके हुए पथिक के लिये बरगद वैसे ही सुखदायक और आत्मीय है, जैसे पहले था।
कंक्रीट के जम्गलों ने बरगद को दूर गाँव तक ही सीमित कर दियाअ है......हा‘ं उसकी जगह घरों में बोनसाई अवश्य सज गयी है।
बहुत ही मार्मिक कविता है।
आपने अपने अनुभव को बहुत मर्मस्पर्शी शब्द दिये हैं , जिससे कविता सीधे हृदय तक जाती है।
बेचारा बरगद...
ReplyDeleteबुजुर्गों के साये से दूर भागती युवावस्था शहर के किसी अपार्टमेन्ट में 2-BHK या 3-BHK की छत को ही अपने सिर पर छाया समझ बैठी है जहाँ न तो जमीं अपनी है न ही छत .बरगद की पीड़ा भला कौन समझे ?
ReplyDeletebarag ke bahane jivan-darshan diya hai aapane. badhai, sarthak kavita k liye.
ReplyDeleteबच्चों को बरगद तक ले जाने की ज़िम्मेदारी हमारी ही है|
ReplyDeleteबरगद के माध्यम से कड़वा सच बयाँ कर दिया है...
ReplyDeleteबरगद को लेकर जिस ओर आपने इशारा करने की कोशिश की है, मुझे लगता है कि उसे सभी ने समझा है। दरअसल युवाओं को लगता है कि बरगद की जड़ें बहुत मजबूत हैं,लिहाजा वो पानी देने से भी भागते हैं।
ReplyDeleteयुवा और बच्चे
खो गये हैं दूर
कंक्रीट के जंगल में
और भूल गये हैं रस्ता
बरगद तक वापिस आने का.
बहुत सुंदर रचना है
bhaavuk karti rachnaa...
ReplyDeletebahut sundar..
बरगद का दर्द समझा तो किसी ने ....
ReplyDeleteबेहतरीन !