कहाँ खो गयी संतुष्टि,
कहाँ गये वे दिन
जब होती थी एक रोटी
बाँट लेते एक एक टुकड़ा
और नहीं सोता कोई भूखा.
लेकिन आज
भूख रोटी की गयी है मर,
लगी है अंधी दौड़
दौलत के पीछे
कुचलते सब रिश्तों को
अपने पैरों तले.
ईमानदारी बन कर रह गयी बेमानी
और छुपाती मुंह शर्मिन्दगी से,
भ्रष्टाचार और काला धन
बन कर रह गए सिर्फ़ एक मुद्दा
बहस और अनशन का.
यह तो हाल है
जबकि पता है
क़फ़न में ज़ेब नहीं होती
और मुट्ठी भी खाली होती
अंतिम सफ़र में.
क्या होता हाल
इन्सान के लालच का
अगर ऊपर भी खुल जाती
कोई शाखा स्विस बैंक की
जहां भेज सकते पैसा
मरने से पहले.
कैलाश शर्मा
कहाँ गये वे दिन
जब होती थी एक रोटी
बाँट लेते एक एक टुकड़ा
और नहीं सोता कोई भूखा.
लेकिन आज
भूख रोटी की गयी है मर,
लगी है अंधी दौड़
दौलत के पीछे
कुचलते सब रिश्तों को
अपने पैरों तले.
ईमानदारी बन कर रह गयी बेमानी
और छुपाती मुंह शर्मिन्दगी से,
भ्रष्टाचार और काला धन
बन कर रह गए सिर्फ़ एक मुद्दा
बहस और अनशन का.
यह तो हाल है
जबकि पता है
क़फ़न में ज़ेब नहीं होती
और मुट्ठी भी खाली होती
अंतिम सफ़र में.
क्या होता हाल
इन्सान के लालच का
अगर ऊपर भी खुल जाती
कोई शाखा स्विस बैंक की
जहां भेज सकते पैसा
मरने से पहले.
कैलाश शर्मा
लालसा के ढेर तले कहीं दब गया है संतोष..........
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना
सादर
सामयिक रचना, आज के हालात का बहुत सटीक चित्रण. बहुत बढ़िया व्यंग है...
ReplyDeleteक्या होता हाल
इन्सान के लालच का
अगर ऊपर भी खुल जाती
कोई शाखा स्विस बैंक की
जहां भेज सकते पैसा
मरने से पहले.
आभार,
क्या होता हाल
ReplyDeleteइन्सान के लालच का
अगर ऊपर भी खुल जाती
कोई शाखा स्विस बैंक की
जहां भेज सकते पैसा
मरने से पहले.
कैलाश जी तब तो खुदा भी तौबा कर लेता …………लालचियों के पेट कभी कहीं नही भरते ………एक बेहद सशक्त रचना।
waah bahut khub sir
ReplyDeleteइस भाग दौड़ में बस रही एक बात सब भूल जाते हैं की जेब खाली होती है जब इंसान जाता है .. भाव पूर्ण रचना ...
ReplyDeleteaek sashakt rachna .bdhai.
ReplyDeleteक़फ़न में ज़ेब नहीं होती
ReplyDeleteऔर मुट्ठी भी खाली होती
तब इतना अफरातफरी है ,अगर जो होती .... ?
बेहद सार्थक रचना .... !!
आज की स्थिति का सटीक चित्रण !
ReplyDeleteअब तो वह संतुष्टि अहम् के मलबे में है
ReplyDeleteक्या होता हाल
ReplyDeleteइन्सान के लालच का
अगर ऊपर भी खुल जाती
कोई शाखा स्विस बैंक की
जहां भेज सकते पैसा
मरने से पहले.
बहुत ही बढिया ...
अगर ऊपर भी खुल जाती
ReplyDeleteकोई शाखा स्विस बैंक की
जहां भेज सकते पैसा....bahut bda bat kah di par ??kaun samajhta hai.....
Sach! Santushti na jana kahan kho gayi hai!
ReplyDeleteशायद वर्तमान में भोगवाद चरम पर है....सुन्दर कृति, आभार
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया सर!
ReplyDeleteसादर
यह तो हाल है
ReplyDeleteजबकि पता है
क़फ़न में ज़ेब नहीं होती
truth of life.
वाह क्या बात है
ReplyDelete"मैं" ने आत्मा को मार दिया ...
ReplyDeleteअगर ऊपर भी खुल जाती
ReplyDeleteकोई शाखा स्विस बैंक की
जहां भेज सकते पैसा
मरने से पहले.
क्या बात है!
मेरी टिप्पणी स्पाम से निकालिए सर........
ReplyDeleteदौलत के पीछे
ReplyDeleteकुचलते सब रिश्तों को
अपने पैरों तले.yahi sach hai.....
kya khoob likha hai .....insaan upar sath le jaa nahi sakta verna to lalach mein daulat ka dher lekar jata
ReplyDeleteदेर से आने के लिए क्षमा चाहता हूँ .... सुन्दर प्रस्तुति, आपकी तो हर कविता की बात ही निराली हैं!
ReplyDeleteजीवन के कटु सत्य को उजागर करती कविता...किसी ने सही कहा है संतोषम परम सुखं
लालच .. लालच और लालच और कुछ नहीं
ReplyDeleteकहाँ खो गयी संतुष्टी,
ReplyDeleteकहाँ गये वे दिन
जब होती थी एक रोटी
बाँट लेते एक एक टुकड़ा
और नहीं सोता कोई भूखा.
सर बहुत ही अच्छी कविता
बहुत बढ़िया प्रस्तुति,कटु सत्य उजागर करती सुंदर अभिव्यक्ति,बेहतरीन रचना,
ReplyDeleteकैलाश जी,...बधाई
MY RECENT POST काव्यान्जलि ...: कवि,...
लालसा और संतुष्टी का तालमेल जरा मुश्किल है.
ReplyDeleteसुंदर संवेदनशील प्रस्तुति.
बहुत बढ़िया प्रस्तुति......
ReplyDeleteईमानदारी बन कर रह गयी बेमानी
ReplyDeleteऔर छुपाती मुंह शर्मिन्दगी से,
भ्रष्टाचार और काला धन
बन कर रह गए सिर्फ़ एक मुद्दा
बहस और अनशन का
स्विस बैंकियों पर करारा व्यंग्य .
यह तो हाल है
जबकि पता है
क़फ़न में ज़ेब नहीं होती
मरने के बाद इंसान कहाँ जाता है यह पता होता तो बैंक ज़रूर खुलवा दिया जाता ... बहुत गहन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteविचारणीय बात..... अगर ऐसा होता तो न जाने क्या होता ..............
ReplyDeleteसोचने वाली बात है.....क्यूंकि जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान .
ReplyDeleteहाल बड़ा बेहाल रे साधो..
ReplyDeleteमरने के बाद की चिंता के उपदेश केवल उन के लिए है जो इस दुनिया में बदहाल रहे।
ReplyDeleteजो उन के बल मौज करते हैं वे उपदेशकों पर मेहरबान हैं।
यह तो हाल है
ReplyDeleteजबकि पता है
क़फ़न में ज़ेब नहीं होती
और मुट्ठी भी खाली होती
अंतिम सफ़र में.
कितना कड़वा सच...मानव के लोभ की कोई सीमा नहीं रह गयी है आज..या उसकी मूर्खता की..
आज संतुष्टि कहाँ रह गई है, और-और-और की चाह में लोग इंसानियत तक भूल चुके हैं... वर्तमान परिस्थितियों का सटीक वर्णन करती रचना... आभार
ReplyDeleteबहुत बढिया।
ReplyDeleteएक बेहद सशक्त और भावपूर्ण रचना .......
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ReplyDeleteयथार्थ का आईना दिखती बहुत ही सार्थक एवं सटीक रचना....समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है बहुत दिनों से मेरी पोस्ट पर आपका आगमन नहीं हुआ है सर .... :)
ReplyDeleteऊपर भी खुल जाती
ReplyDeleteकोई शाखा स्विस बैंक की
जहां भेज सकते पैसा
मरने से पहले.
सचमुच तब क्या होता...वहाँ भी ए टी एम के पास भीड़ लगी रहती...:)
bahut khub .sundar
ReplyDeleteकहाँ खो गयी संतुष्टी,
ReplyDeleteकहाँ गये वे दिन
जब होती थी एक रोटी
बाँट लेते एक एक टुकड़ा
और नहीं सोता कोई भूखा.
...........kailash ji bahut sunder prastuti saho kaha aapne kahan gaye wo din .....hardik badhai
Bahutu satik aur sundar prastuti.....
ReplyDeleteYEH SAB KUCH HO BHI JATA TO KYA, WAHAN UPPER YAHAN KI CURRENCY NAHI CHALTI,BESHAK SWISS BANK HOTA, KAFAN MEIN ZEB BHI BANWA LETE ,PAR SANTUSTI PHIR BHI NAHIN HOTI KI IS LALACH KE YUG MEIN PEECHE SE LOG ZEB MEIN CURRENCY YA DRAFT RAKHENGE BHI YA NAHIN.
ReplyDeleteKAILASHJI BAHUT HI SUNDAR KATAKSH KE LIYE BADHAIE
लेकिन आज
ReplyDeleteभूख रोटी की गयी है मर,
लगी है अंधी दौड़
दौलत के पीछे
कुचलते सब रिश्तों को
अपने पैरों तले.
सच बयां करती रचना
इतनी सुन्दर कविता के लिए बधाई...
ReplyDeleteबाऊ जी,
ReplyDeleteराम राम....
गुड कुएस्चन!
आशीष
--
द नेम इज़ शंख, ढ़पोरशंख !!!
क्या होता हाल
ReplyDeleteइन्सान के लालच का
अगर ऊपर भी खुल जाती
कोई शाखा स्विस बैंक की
जहां भेज सकते पैसा
मरने से पहले................................
सोचा नही जाता ।
अब कोई बिरले ही धन के अभाव में मरता है। मगर अंतिम क्षणों में हर आदमी की आंख में आंसू होते हैं। कारण,युगों-युगों से व्यक्त अनुभव को दरकिनार कर,उसने भी वही किया जो बाक़ी करते आए थे। औसत आदमी की यही नियती है।
ReplyDeleteantim panktiyon mein aapne gadar macha diya
ReplyDeleteरोटी छोड़ चंद्र को धाये
ReplyDeleteरोटी पाये न चंदा पाये.
katu saty vaya karati sundar rachana.
ReplyDeleteSHURUAAT HI LAJABAB DHANG SE KR DI APNE....PORI KAVITA GAHAN CHINTAN KE LIYE VIVASH KARTI HUI ...BADHAI SWEEKARE KAILASH JI
ReplyDeleteयह तो हाल है
ReplyDeleteजबकि पता है
क़फ़न में ज़ेब नहीं होती
और मुट्ठी भी खाली होती
अंतिम सफ़र में.
सच को सच्चाई से प्रस्तुत किया हे आपने।
तृष्णा का कोई हल नहीं... बढ़िया कविता...
ReplyDeleteक्या होता हाल
ReplyDeleteइन्सान के लालच का
अगर ऊपर भी खुल जाती
कोई शाखा स्विस बैंक की
जहां भेज सकते पैसा
मरने से पहले.
आज का कड़वा सच ....इंसान का लालच कभी खत्म नहीं होगा ...अहंकार दिनोदिन और बढ़ रहा हैं .....
दौलत के पीछे
ReplyDeleteकुचलते सब रिश्तों को
अपने पैरों तले......बहुत सही कहा आपने