न जी पाते हैं जीवन को, न सुकूं से मौत ही मिलती.
महल बनाये जाने जाने कितने, खून पसीना एक कर दिया,
लेकिन मरने पर भी पूरा कफ़न न पाया जग में तूने.
बन कर विश्व रचियता तूने इस जग का निर्माण किया था,
लेकिन मरने पर भी कोई स्मारक न पाया तूने.
पहने फटे वस्त्र को तूने जिस पल देखा होगा उसको,
देख विवशता अपने दिल की तूने अश्रु बहाये होंगे.
काश अश्रु जो होते मोती, फिर क्या तेरी लाचारी थी,
देख क्षुधित बालक को दिल के दर्द और उभर आये होंगे.
क्या जीने का अर्थ उसे जो उनके पेट न भरने पाये,
लेकिन केवल ममता ही तो पेट नहीं भर सकती उनका.
केवल प्यार भरे चुम्बन से शांत नहीं हो सकते बालक,
उनके लिए चाहिये रोटी और वस्त्र उस नन्हे तन का.
मरने पर तो लाश जानवर की भी जग में बिक जाती है,
लेकिन मानव का कोई भी मूल्य नहीं होता इस जग में.
मूल्य अगर होता कुछ भी तो कौन हिचकता बिक जाने से,
जब की भूखे पेट तड़पते बालक होते उसके पथ में.
जीवन और मृत्यु दो पहिये कहते हैं इस मानव रथ के,
लेकिन जीवन नहीं, मृत्यु ही उनके लिए रही श्रेयस्कर.
पुत्र बना कर छिपा लिया उसने उसको जीवन कंटक से,
लेकिन जीवन ने उसको प्रतिपल मारी थी ठोकर हंसकर.
मृत्यु शांति दायक इस जग में, लेकिन जीवन कोलाहल है,
चाहे कितनी भी निष्ठुर हो, मृत्यु मगर फिर भी सुखकर है.
मृत्यु तोड़ देती है नाता मानव का अभिशापित जग से,
जीवन देता अश्रु उम्र भर, इससे म्रत्यु कहीं बेहतर है.
(कॉलेज जीवन में लिखी मेरी एक लम्बी कविता 'ताज महल और एक कब्र' के कुछ अंश)
कैलाश शर्मा
(कॉलेज जीवन में लिखी मेरी एक लम्बी कविता 'ताज महल और एक कब्र' के कुछ अंश)
कैलाश शर्मा
अक्षरश: सच्चाई बयां करती उत्कृष्ट प्रस्तुति ... आभार ।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना.....
ReplyDeleteएक एक शब्द में सार्थकता निहित है....
सादर.
अनु
बहुत बढिया रचना है।बढिया प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना.....
ReplyDeleteएक एक शब्द में सार्थकता निहित है....
सादर.
अनु
मृत्यु शांति दायक इस जग में, लेकिन जीवन कोलाहल है,
ReplyDeleteचाहे कितनी भी निष्ठुर हो, मृत्यु मगर फिर भी सुखकर है.
मृत्यु तोड़ देती है नाता मानव का अभिशापित जग से,
जीवन देता अश्रु उम्र भर, इससे म्रत्यु कहीं बेहतर है.
आपके निरंतर साहित्यिक विकास की कथा कहती है यह रचना .बधाई इस गुणात्मक यात्रा के लिए .
चाहे कितनी भी निष्ठुर हो, मृत्यु मगर फिर भी सुखकर है.
ReplyDeletekitna katu saty ...sundar rachna ke liye aabhar
हकीकत का बोध कराती आपकी ये कविता बहुत अच्छी लगी...
ReplyDeleteऔर सबसे अच्छी बात तो ये लगी कि ये कविता आपने अपने कालेज के दिनों में लिखी... बधाई
SACH LIKHA HAI AAPNE ....COLLEGE TIME ME LIKHI GAYI YAH KAVITA YE AHSAS BHI KARATI HAI KI SAMAY BEET JATA HAI PAR GAREEB KI JINDGI ME KUCHH NAHI BADALTA .AAJ BHI HALAT AISE HI HAIN.AABHAR EK SARTHAK PRASTUTI HETU .
ReplyDeleteYE HAI MISSION LONDON OLYMPIC-LIKE THIS PAGE AND SHOW YOUR PASSION OF INDIAN HOCKEY -NO CRICKET ..NO FOOTBALL ..NOW ONLY GOAL !
बड़ी ही सुंदर रचना है सर...
ReplyDeleteकिश्तों मे पूरी रचना पोस्ट करें तो अच्छा होगा...
सादर।
महल बनाये जाने जाने कितने, खून पसीना एक कर दिया,
ReplyDeleteलेकिन मरने पर भी पूरा कफ़न न पाया जग में तूने.
बन कर विश्व रचियता तूने इस जग का निर्माण किया था,
लेकिन मरने पर भी कोई स्मारक न पाया तूने... गहरे अर्थों से भरी पंक्तियाँ
मरने पर तो लाश जानवर की भी जग में बिक जाती है,
ReplyDeleteलेकिन मानव का कोई भी मूल्य नहीं होता इस जग में.
मृत्यु शांति दायक इस जग में, लेकिन जीवन कोलाहल है,
चाहे कितनी भी निष्ठुर हो, मृत्यु मगर फिर भी सुखकर है.
बहुत ही मार्मिक और सुन्दर है पोस्ट.....बहुत पसंद आई ।
मरने पर तो लाश जानवर की भी जग में बिक जाती है,
ReplyDeleteलेकिन मानव का कोई भी मूल्य नहीं होता इस जग में.
मूल्य अगर होता कुछ भी तो कौन हिचकता बिक जाने से,
जब की भूखे पेट तड़पते बालक होते उसके पथ में.
मर्मस्पर्शी रचना ... !!
चाहे कितनी भी निष्ठुर हो, मृत्यु मगर फिर भी सुखकर है.sahi bat...
ReplyDeleteजब अंश इतना प्रभावशाली है तो पूरी कविता का अंदाजा लगाया जा सकता है ..
ReplyDeleteमरने पर तो लाश जानवर की भी जग में बिक जाती है,
ReplyDeleteलेकिन मानव का कोई भी मूल्य नहीं होता इस जग में.
मूल्य अगर होता कुछ भी तो कौन हिचकता बिक जाने से,
जब की भूखे पेट तड़पते बालक होते उसके पथ में.
अत्यंत संवेदनशील प्रस्तुति. इस मर्मस्पर्शी रचना के लिये बधाई.
मृत्यु शांति दायक इस जग में, लेकिन जीवन कोलाहल है,
ReplyDeleteचाहे कितनी भी निष्ठुर हो, मृत्यु मगर फिर भी सुखकर है.
मृत्यु तोड़ देती है नाता मानव का अभिशापित जग से,
जीवन देता अश्रु उम्र भर, इससे म्रत्यु कहीं बेहतर है.
बहुत बढ़िया संवेदन शील रचना,सुंदर अभिव्यक्ति,बेहतरीन पोस्ट,....
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: मै तेरा घर बसाने आई हूँ...
उत्कृष्ट रचना....संवेदनशील अभिव्यक्ति
ReplyDeleteमूल्य अगर होता कुछ भी तो कौन हिचकता बिक जाने से,
ReplyDeleteजब की भूखे पेट तड़पते बालक होते उसके पथ में
काफी पहले से ही जीवन के यथार्थ को देखने की दृष्टि पाई
है आपने...वाह!!!
जन्म और मृत्यु के बीच विस्तारित जीवन..
ReplyDeletebahut prbhavi...katu satya hai ye samaj ka
ReplyDeletemaarmik rachna!
ReplyDeleteरचना बहुत प्रभावी हैं ...संवेदनपूर्ण ...और ये रचना आपके कॉलेज के वक्त की हैं ....कम से कम ३०...३५ साल पहले .....उस वक्त ऐसा ही कुछ था ........पर अब वक्त बदल चुका हैं ....आज घर में खाने को हैं या नहीं .....नहाने के लिए बाथरूम हैं की नहीं ...पर हर घर में लग्ज़री आइटम्स सब हैं .....(अगर कुछ बुरा लगा हो तो क्षमा चाहूँगी ...अपने वक्त में जो जैसा देखा उसी के मुताबिक टिप्पणी की हैं )
ReplyDeleteआपका कहना बहुत हद तक सही है....लेकिन सम्पूर्ण रचना जिस सन्दर्भ में लिखी थी उसमे दिखाने की कोशिश की थी कि एक तरफ एक बादशाह अपनी प्रेमिका के लिये एक भव्य यादगार ताज महल बनवाता है और दूसरी तरफ उसको बनाने वाले मज़दूरों के दुखों और कष्टों का इतिहास में कहीं नाम भी नहीं है.
Deleteजहां तक आज के समय गरीबों की स्तिथि का प्रश्न है, शहरों में रहने वाले गरीबों की स्तिथि ज़रूर सुधरी है, लेकिन मैंने ट्राइबल एरिया में उनकी इतनी बदतर हालात आज भी देखी है कि जिसको देख कर रूह काँप उठे.
जहां तक बुरा मानने वाली बात है, इस बात का बुरा मानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. आप ने जो कहा है वह भी एक सत्य है.विचारों के आदान प्रदान का हमेशा स्वागत है...आभार
अत्यंत संवेदनशील प्रस्तुति...बहुत सुन्दर...कैलाश जी
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 05-04-2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete.... आज की नयी पुरानी हलचल में ......सुनो मत छेड़ो सुख तान .
बहुत ही संवेदनशील रचना ... बहुत प्रभावी ...गरीब इंसान की आत्मकथा लिख दी हो जैसे ..
ReplyDeletesarthak aevam vicharniya .aabhar,
ReplyDeleteक्या जीने का अर्थ उसे जो उनके पेट न भरने पाये,
ReplyDeleteलेकिन केवल ममता ही तो पेट नहीं भर सकती उनका.
केवल प्यार भरे चुम्बन से शांत नहीं हो सकते बालक,
उनके लिए चाहिये रोटी और वस्त्र उस नन्हे तन का.
सार्थक एवं मार्मिक
बस .... नमन
ReplyDeleteमरने पर तो लाश जानवर की भी जग में बिक जाती है,
ReplyDeleteलेकिन मानव का कोई भी मूल्य नहीं होता इस जग में.
बहुत सच बात काही है सर!
सादर
इसी विषय पर मैंने भी एक कविता और कहानी लिखी थी। मेरे पड़ोस में बन रहे फाइव स्टार के कारीगरों को जब ऐसे ही तप्पड़ के सहारे रहते देखा था तब।
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील रचना
ReplyDeleteसंवेदनशील और सार्थक रचना ...
ReplyDeleteसंवेदनशील,उत्कृष्ट रचना .....
ReplyDeleteदिल पर गहरा प्रभाव छोड़ने वाली रचना ........
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील रचना,बहुत ही सुंदरप्रस्तुति
ReplyDeleteआप को सुगना फाऊंडेशन मेघलासिया,"राजपुरोहित समाज" आज का आगरा और एक्टिवे लाइफ
,एक ब्लॉग सबका ब्लॉग परिवार की तरफ से सभी को भगवन महावीर जयंती, भगवन हनुमान जयंती और गुड फ्राइडे के पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं ॥
आपका
सवाई सिंह{आगरा }
एक लंबे अंतराल के बाद आपके पोस्ट पर आना हुआ। कविता बहुत अच्छी लगी । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
ReplyDeleteवाह!!!!!!बहुत सुंदर रचना,अच्छी प्रस्तुति,..
ReplyDeleteMY RECENT POST...फुहार....: दो क्षणिकाऐ,...
revealing the harsh realities..
ReplyDeletein spite all the so called relief efforts of govt..
there r so many who r living in dire conditions !!
sarthak kavita
ReplyDeletesir g namskaar bahut hi khubsurat kavita likhi hai eska ak ak shabad bo.lta huaa nazar aata hai.sahi ukera hai aapne manav varnan.aabhar.........
ReplyDeleteक्या जीने का अर्थ उसे जो उनके पेट न भरने पाये,
ReplyDeleteलेकिन केवल ममता ही तो पेट नहीं भर सकती उनका.
केवल प्यार भरे चुम्बन से शांत नहीं हो सकते बालक,
उनके लिए चाहिये रोटी और वस्त्र उस नन्हे तन का.
मार्मिक पंक्तियां !
ग़रीबों के दर्द को शब्द देकर आपने उसे सजीव कर दिया है।
निर्धनता का अभिशाप व्यक्ति को उसकी गरिमा से गिरा देता है...काश इस दुनिया में कोई गरीब न रहे. मार्मिक कविता !
ReplyDeleteसंवेदनशील और सार्थक
ReplyDeleteसार्थक रचना अपने उद्देश्य में एकदम सफल है, कड़वी सच्चाई कलेजा चीर जाती है।
ReplyDeleteमरने पर तो लाश जानवर की भी जग में बिक जाती है,
ReplyDeleteलेकिन मानव का कोई भी मूल्य नहीं होता इस जग में.
मूल्य अगर होता कुछ भी तो कौन हिचकता बिक जाने से,
जब की भूखे पेट तड़पते बालक होते उसके पथ में.
विश्व कर्मा श्रमिक की यही नियति हैं यहाँ पर .साल में सिर्फ सौ दिन काम तो सरकारी स्तर पर है .रोटी तो उसे चाहिए सवा ३६५ दिन .कीमत है उसकी सिर्फ ३२ रुपया रोजाना .योजना आयोगीय पैमाना .झकझोरती है यह कविता हर बार .
वह बैठी पथ पर( तोडती पत्थर ).,तेंदू पत्ता में भरती तम्बाकू ,
छ्ब्ड़े में सोता लाल उसका नंग धडंग ,
बन जाता अफीमची ,क्योंकि निकोटिन का नशा अफीम से कम नहीं होता है ,
और पत्तों के उठाऊ सेज का सुख हर किसी का नसीब नहीं होता .
प्रभावशाली रचना ....
ReplyDeleteबधाई भाई जी !
आदमी आदमी को आदमी समझ ले इतना ही बहुत है नहीं तो जिंदगी में गरीबी तो शाश्वत सत्य है ...........
ReplyDeletereality ,,,,,,wakae me aap lajwab he he sharma ji.....thanks
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