Monday, August 13, 2012

इंतज़ार धूमिल आँखों का


जिनके लिए पाले थे स्वप्न
अपने स्वप्नों को कुचल कर,
उठाये रहे जिनको हमेशा गोदी में,
आज ज़िंदगी के आख़िरी पहर में
छोड़ गये वृद्धाश्रम में,
क्योंकि उठा न पाए 
माता पिता का भार,
और फ़िर भी धूमिल आँखें 
ताकती हैं राह
इंतज़ार में अब भी उन के.

कैलाश शर्मा 

37 comments:

  1. सही कहा आज ऐसा ही होरहा है.मार्मिक प्रस्तुति..

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  2. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार १४/८/१२ को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चामंच पर की जायेगी आपका स्वागत है|

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  3. भावमय करती प्रस्‍तुति ...आभार

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  4. माँ बाप का मन जो है ... बच्चों से अलग मन तो होना ही है ...
    बात जोहता रहता है ... पर समय नहीं बदलता ...

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  5. बहुत मार्मिक....।

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  6. नौ महिने माता ढोई थी, इर्द गिर्द तेरे जीवन था
    सोई न गोदी में लेकर , न रोई न कभी थकी थी |
    पिता बना घोडा गदहा नित, तेरा बोझ उठाये टहला-
    मात-पिता पर तोहमत रविकर, दो मिनटों के सुख से पैदा -
    इसीलिए क्या आज भेजता, वृद्धाश्रम बदला लेने को-
    पत्नी के संग ऐश करेगा, पीढ़ी दर पीढ़ी यह होगा -

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    1. बहुत सुन्दर रविकर जी .....

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  7. आदरणीय कैलाश जी ये रचना भीतर से भावुक कर गई

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  8. पता नहीं
    पर कहीं पर
    दिये गये संस्कार
    लिये गये संस्कार
    के बराबर
    हो जाते हैं
    और
    संस्कार खो जाते हैं !

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  9. उफ़....भावुकता से लबालब

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  10. बहुत ही भावमय रचना .............आभार

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  11. इस सार्थक प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकारें.
    कृपया मेरी नवीनतम पोस्ट पर भी पधारने का कष्ट करें, आभारी होऊंगा .

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  12. माता बोली पुत्र से,होकर के गम्भीर
    बड़ा किया क्या इसलिए,सही पेट की पीर
    सही पेट की पीर,नौ माह पेट में रक्खा
    मौका आया तो हमे,दे रहे हो धोखा
    माँ के शब्द सुन, पुत्र रह गया दंग
    गुस्साकर माँ से बोला, नहीं रहना है संग
    नहीं रहना संग ,अपना किराया बोलो
    नौ माह का क्या,किराया एक साल का लेलो,,,,

    स्वतंत्रता दिवस बहुत२ बधाई,एवं शुभकामनाए,,,,,
    RECENT POST ...: पांच सौ के नोट में.....

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  13. - दुनिया के यही रंग हैं !

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  14. वर्तमान की बहुत बड़ी समस्या है जिसका समाधान दूर दूर तक नजर नहीं आता

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  15. काफी दुखदायक स्थिति !
    मर्मस्पर्शी रचना !

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  16. मन फूला फूला फिरे ,जगत में झूंठा नाता रे ,जब तक जीवे माता रोवे ,बहन रोये दस मासा रे ,और तेरह दिन तक तिरिया रोवे ,फेर करे घर वासा रे ----

    यही है हकीकत सपूतों की यही है फलसफा पिंड दान करने वाले का ..ये सब कन्या भ्रूण हत्या का नतीजा है -पूत कपूत सुनें हैं लेकिन ,माता हुईं सुमाता रे ...
    ram ram bhai
    मंगलवार, 14 अगस्त 2012
    क्या है काइरोप्रेक्टिक चिकित्सा की बुनियाद ?
    http://veerubhai1947.blogspot.com/

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  17. प्रभावशाली रचना ...शुभकामनाएं जी /

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  18. ऑंखें ठगे जाने पर भी इंतज़ार तो करती ही हैं !

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  19. यही तो कडवा सत्य है।

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  20. कभी ना खत्म होने वाला इंतजार है इन आँखों में... भावुक करती रचना...

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  21. आह ! पुत्र कुपुत्र हो ही जाते हैं

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  22. टूटते संयुक्त परिवार के इस दौर में वृद्ध माता-पिताओं की अब यही नियति है।

    स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं।

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  23. बहुत ही मार्मिक कविता सर |

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  24. वाह... उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...

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  25. न बदलने वाली नियति..

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